ओ कथाकार !

युग के सजग, मुखरित, अमिट इतिहास,

जन-शक्ति के अविचल प्रखर विश्वास !

दृष्टा थे भविष्यत्‌
के ;

धनी भावों-विचारों के !

अमर शिल्पी

मनुज-उर के

अकृतिम, सूक्ष्म-विश्लेषक !

.

सितारे-तीव्र

मेघाच्छन्न जीवन के गगन के,

रूढ़ियाँ-बंधन शिथिल तुमने किये

अपनी अरुक, दृढ़ लेखनी के बल !

सभी ये थरथरायीं

काल्पनिक, प्राचीन, झूठी, जन-विरोधी

धारणाएँ, मान्यताएँ ;

धर्म-ग्रन्थों से बँधी

निर्जीव, मिथ्या, शून्य की बातें

अनोखी, खोखली

जो हो रही थीं प्रगति-बाधक !

पतित साम्राज्यवादी-शक्तियों का

नग्न-चित्रण कर

बनायी भूमिका

जनबल अथक-संघर्ष की !

.

ओ अमर साधक !

सतत चतित रहे तुम

स्वर्ग धरती को बनाने !

अभय सामाजिक सुधारक,

युग-पुरुष !

तुमको, तुम्हारी ज्योति को

क्या ढक सकेंगी काल-रेखाएँ ?

नहीं अब शेष साहस जो

अँधेरा सिर उठाए !

तुम प्रगति-पथ की

नयी ज्योतित दिशा का

मार्ग-दर्शन कर रहे हो !

प्राण में बल भर रहे हो !

 

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