सूरज और धरती
सुबर्हसुबह होली खेला
सूरज धरती के संग
भरी धूप से पिचकारी
तो धरती रह गई दंग
न छेड़ने की फ़रियाद लिए
कसमसा के वह उठ बैठी
स्वच्छ ओस से नहा के पाई
उसने तन में फुर्ती
सूरज के भिजवाए गहने
ᅠचाव से पहने, निखरी
किरणों से श्रृंगार करा के
इतराती खेतों में फिरी
मृग मोरों के संग वह नाची
और झूमी अल्हड़ सरसों सी
कूक उठी कोयल सी कभी
तो कभी नदी के संग बही
साँझ ढली तो सूर्य अनमना
विदा माँगने आया जब
गहने वापिस कर वह बोली
ᅠअब ये पि्रय ले जाओ सब
तुमसे ही श्रृंगार है मेरा
ᅠतुम ही हो मेरा गहना
थके हो तुम भी सुस्ता लो अब
मान लो मेरा कहना
लौटा सूरज हौले हौले
धीमे धीमे साँझ ढली
सुबह मिलन की आस लिये
शयन को अपने धरा चली।