‘‘सुर्ख हुए रेत के पाँव’’
		-शिवचरण सेन ‘‘शिवा’’
पूर्व दिशा से 
उगल रहा 
रवि
मुख से ज्वाला सी
जादुई किरणंे,
मंत्र मुग्ध हो उड़ रहा
झीलों/नदियों का
खारा/मीठा निर्मल जल
सुर्ख हुए रेत के पाँव
ताक रहे क्षितिज की ओर
अपनी एड़ी की
फटी बिवाईयों के क्लांत मन से,
स्वाहा कर रहे उन्मुक्त होकर 
हरी दूब/वृक्षों की
पत्तियों के झुलसे चेहरे 
अपनी कोमलता को,
वृक्ष अपनी नंगी देह के सिर पर
आशाओं/आकांक्षाओं/अपेक्षाओं की
गठरी लिए 
तपस्वी जैसे
स्तब्ध खड़े हंै पंजों के बल
और 
टपक रहे 
खारे जल बिम्ब 
आदमी की देह से।
 

 
HTML Comment Box is loading comments...
Free Web Hosting