स्वर्ग विभा
कैसी
दी स्वर्ग
विभा उड़ेल
तुमने
भू मानस
में मोहन,
मैं
देख रहा ,मिट्टी
का तम
ज्वाला बन धधक रहा प्रति़क्षण !
नव
स्वप्नों की लपटें उठतीं
शोभा
की आभाएँ
बखेर,
शत
रंग की छायाएँ कँपतीं
उपचेतन मन का गहन घेर !
ज्यों
उषा प्रज्ज्वलित सागर में
डूबता
अस्तमित
शशि
मंडल
चेतना
क्षितिज पर आभा स्मित
भूगोल
उठ
रहा
स्वर्णोज्वल !
लिपटीं फ़ूलों
के रंग ज्वाल,
गूँजते मधुप , गाती
कोयल,
हरिताभ हर्ष
से भरी
धरा
लहरों
के रश्मि ज्वलित अंचल !
भौतिक
द्रव्यों
की घनता से
चेतना
भार लगता
दुर्वह,
भू
जीवन
का आलोक ज्वार
युग
मन के पुलिनों को दु:सह !
चेतना
पिंद
रे
भू
गोलक
युग
युग के मानस से आवृत ,
फ़िर
तप्त स्वर्ण सा निखर रहा
वह
मानवीय बन, सुर दीपित !
अब
नव उषा के
पावक का
पल्लवित हो रहा भू – जीवन,
शोभा
की कलियों
का वैभव
विस्मित करता मन के लोचन !
मैं
रे
केवल
उन्मन
मधुकर
भरता
शोभा स्वप्निल
गुंजन,
कल
आएँगे
उर
तरुण
भृंग
स्वर्णिम मधुकण करने वितरण !
यह
स्वर्ण
चेतना
की ज्वाला
मानव
अंत:पुर
की
गोपन
जो
कूद
कूद
नव सन्तति में
बढ़ती
जाएगी
नव
चेतन !
वह
पूर्ण
मानवों
का
मानव,
जो जन
में धरता क्रमिक चरण,
वह
मर्त्य
भूमि को स्वर्ग बना
जन
भू को कर
लेगा
धारण !
अब
धरा हृदय– शोणित से रँग
नव
युग प्रभात श्री में मज्जित,
अब
देव
नरों
की
छाया में
भू
पर
विचरेंगे
अंत:स्मित !