विधवा
मंदिर
की
दीपशिखा
-
सी,
भाव
लीन
टूटे
तरु
की
छूटी,
लता
सी
दीन
कौन
है
यह
देवी,मिले
प्रिय
का
पदचिह्न,
कोई,
बाँध
रही
रजकण
को
चुन
देह
कृष्णलता
–
सी
है
कुम्हलाई
साँसों
में
जीवन
की
शून्यता
है
समाई
जमाने
से
खुद
को
रखती
बचा-बचाकर
भिक्षुणी
–सी
फ़िरती
मारी-
मारी
नयनों
के
कोने
में,दीनता
के
दोने
में
है
स्मृति
का
भरा
है
हीरक
पानी
कहती
मैं
भी
हूँ
उसी
सृष्टि
की
जिसने
इस
जग
को
बनाया,और
भरा
उसमें
प्रेम-
प्यार,
स्वर्णिम
जवानी
मगर
इस
जग
में
मेरे
होने
का
अर्थ
नहीं
मेरा
जनम
व्यर्थ
,
मेरी
कोई
जीवन
साध
नहीं
मुझे
गगन
में
भी
छूता
धरती
का
दाह
मिट्टी
पर
चलने
को
मिलती
नहीं
राह
मैं
नियति
वंचिता,
आश्रय
रहिता
पदमर्दिता,
पछतावे
की
परिछाहीं
हूँ
कोई
नियति
से
लिखवा
लाई
हूँ
मैं
अपने
भाग्य
में
अंतहीन
पीड़ा
मैं
नक्षत्र
लोक
से
टूटी,
विश्व
के
शतदल
में
ढुलकी,ओस
की
बूँद
हूँ
कोई
मैं
जीवन
-अनुभूति
की
तुला
पर
अपने
अरमानों
को
तौल,मूक
अबोध
व्यथा
से,पागलपन
को
लेती
हूँ
मोल
मैं निर्घोष
घटाओं
में
तड़पने
वाली
वेदना
की
मतवाली,
चपला
हूँ
कोई
मेरे
मानस
के
भींगे
पट
पर,
जितनी
भी
पीड़ाएँ
हैं,सब
के
सब
सुमन
से
खिलते
रहे
भव
बंधन
के
दोनों
कूल
हरे-
भरे
रहे
सींचती
हूँ
मैं
अपने
अश्रु
वर्षण
से,
जीवन
नद
में,
भरकर
रखती हूँ
आँखों का
पानी
युग
अंधर
में,
पतझड़
की
पत्तियों
–सी
कैसे
छितराईं
मेरी
अभिलाषाएँ
सारी
अग्यात
अंधकार
को
सुनाती
हूँ
कहानी
नभ
की
चाह
रखती
हूँ,
धूलि
के
कण
में
बिंदु
में
रखती
हूँ
दुख
का
अथाह
जलधि
यही
है
मेरा
लघु
जीवन,यही
है
मेरी
निशानी