विस्तार
कल रात
मैंने खुद को जन्मते देखा
तुम्हारे शब्दों की कोख से।
वर्षों से अभिशप्त,
गर्भ के अंधेरे की अभ्यस्त
मेरी नन्ही आँखें, चौंधिया गयी थीं
अचानक फैले प्रकाश से ।
मेरी जननी का वात्सल्य,
मेरे नन्हे शरीर को ढक रहा था
अरुण मयूख सा
और बह रहा था,
धमनियों में रक्त के साथ।
वो बार बार मुझे सीने से चिपटाती,
मेरी मुट्ठियों को खोलकर-
मेरी नन्ही उँगलियों और हथेलियों को
अपने चेहरे से छुआती,
मेरे शरीर को अपनी आंखों में भरती,
मुझमे अपना अक्स निहारती।
उनकी आंखों से झरती खुशियाँ और सपने
मुझे अपनी बाहों में लेकर ,
बार बार झुलाते ,
बार बार दुलारते ।
मैं , अबोध ,
अपरिचित हर शब्द से
अनजान हर भाव से
अचंभित नए विस्तार से
टुकुर टुकुर देखता माँ के चेहरे को,
प्रत्युत्तर दे पाता उनकी सघन भावनाओं का
सिर्फ अपने क्रंदन से ,
सिर्फ अपनी मुस्कान से ।