रोनी सी हंसी
और निषाद सी चीख
के बीच
क्रूस पर
रोज़ मरता है…
और फिर जी उठता है
वो अमसीहा |

कहने को वो दुनियादार आदमी
रोज़ उठता है |
टूटे पंख सा मगर अपने मन की अँधेरी गुफा में
उड़ता ही रहता है |
उसकी बेतरतीब मूछें
और ओछी सी दाढ़ी
उसके सीने में गढ़ती हैं |
रात रोडरोलर की तरह
घड़घड़ाकर
उसके ऊपर से गुज़रती है |
और अधकुचली सुबह उसे साँसे देती है
सूंघने के लिए |

तारीख के लिए उसे घड़ी में झांकना पड़ता है |
टूटा बटन उसे ख़ुद ही टांकना पड़ता है |
और साढ़े सात बजे
अधजले ब्रेड खाकर
वह घर से निकलता है
ज़ंग लगे ताले में अपनी ज़िन्दगी को लटकाकर |
दुर्गा पूजा में वो चंदा देता है |
वो मुस्कराना जानता है !
अपने मोहल्ले के दो-चार सभ्य से दिखने वाले
लोगों को भी पहचानता है |
बस में वह पूरे रास्ते चलता ही रहता है |
उसकी चाल में निद्रा और अनिद्रा का अद्भुत मेल होता है |
उसे स्पर्श कर फिज़ाएं
सर्द आहें बन जाती हैं
उसके दुलार से
तेरह बरस की एक लड़की डर जाती है |
खुद से बातें कर
शीशा तोड़ना उसका स्वभाव बन चुका है |
दो थके कानों को अपनी वही बासी चीख सुनाकर
वो शायद आंसू में बहता एक नाव बन चुका है
जिसके सपनों में मल्लाह के दो मज़बूत हाथ
उसे थाम हरे किनारे की ओर मोड़ देते हैं
अकेलेपन के विषाक्त डंक से बचा लेते हैं |

वह फिर भी किनारा ढूंढता ही रहता है |
और कल की उम्मीद लेकर मर जाता है
वो अमसीहा ||

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