पुस्तक समीक्षा

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  समीक्ष्य कृति - "अब तो ठंढी हो चली जीवन की राख"

  कवयित्री - --   डा० (श्रीमती) तारा सिंह

             समीक्षक - --   पं० ओम प्रकाश विकल

 

     

 डा० श्रीमती तारा सिंह की उपरोक्त कविता-संग्रह मुझे अवलोकनार्थ प्राप्त हुआ है, जिसे मैं अपना परम सौभाग्य ही मानता हूँ | लगभग भिन्न-भिन्न प्रान्तों से हिन्दी साहित्य की महान सेवाओं के फलस्वरूप चालीस उच्चतर एवं उच्चतम सम्मानों से विभूषित बहन तारा सिंह हिन्दी साहित्याकाश की साधारण तारा नहीं वरन् ध्रुवतारा हैं |
             मेरी लेखनी में तो वे शब्द भी नहीं जिनके माध्यम से मैं इनकी दिव्यतम लेखनी - कला का वर्णन कर सकूँ, मेरे लिए तो कम से कम यह असंभव ही लगता है किन्तु हृदय की कोमल भावनाओं के उठते ज्वार को रोक पाना भी असंभव जानते हुए कतिपय दो रूखे-सूखे शब्दों को वाक्यरूप देने का प्रयास लेखनी की हो गई कृपा से कर रहा हूँ जिसे समीक्षा कहना शायद न्याय संगत नहीं होगा, करण कि 'सूर्य को एवं शरद चन्द्र राकेश को दीपक दिखाना नितांत अग्यानता ही है | तारा जैसा ऊपर लिखा' साधारण नहीं अपितु वह ध्रुवतारा है जिसके इर्द - गिर्द अगणित तारे परिक्रमा कर अपने को कृतार्थ करते हैं| इस ध्रुवतारे की स्वर्णिम रश्मियाँ काव्य - जगत को जगमग कर रही हैं | परमेश्वर इसे शाश्वत् अक्षुण्ण एवं दीर्घ जीवन प्रदान करें -- यह हमारी कामना है | अस्तुः ' अब तो ठंढी हो चली जीवन की राख' , श्रीमती डा० तारा सिंह की मर्माहत कोमल एव्म जीवन पर्वों पर टिकती हुई , आगे की पड़ावों की ओर जाने वाली सांसारिक पीड़ाओं का संगम है | इस अमूल्य कृति में जीवन के पड़ावों पर होती चलती अनुभूत पीड़ाएँ जिस प्रकार तारा जी की लेखनी से निःसृत हुई हैं वह पाषाण दिल मानव को भी पिघला देने में पूर्ण समक्ष है, यह मैं दावे के साथ कह सकता हूँ | इस कृति में , मानवीय ऊर्जा की पराकाष्ठा जो युवावस्था में ही संभव है, स्पष्ट झलकती है युवावस्था में मानव की इच्छाशक्ति पल -पल एवं पग -पग पर साकार होती चलती है जो वृद्धावस्था के आरंभकाल से शनैः - शनैः ठंढी अथवा मंद पड़ने लगती है | इस ऊर्जा का शिथिल हो गया रूप निष्प्रभावी एवं आधारहीन होने लगता है :----
 'वर्षों    बीत   गए    उस     अग्नि   प्रलय    को
जिसने जला -जलाकर भस्मसात  कर दिया था
मेरे कुसुमित हृदय को ,अर्द्धस्फुटित कलियों को
अब   तो    ठंढी   हो   चली   जीवन   की   राख
फिर  भी  यथावत  है  हृदय   का  वह  भू भाग
जहाँ   कभी  हुआ  था  भीषण  अग्निदाह   और
आत्म प्रताड़ित होकर किया था मैंने आत्मदाह
जीवन यात्रा का 'यौवनावस्था की स्मृतियाँ' किस आश्चर्यजनक हृदयोद्भावों में वर्णित है, देखिये  ः--
‘कभी    पारिजात   मंदार   की   लताओं   की     तरह
सुंदरता  मेरे   अंग - अंग   से   लिपटी   रहती    थी
ज्वलित प्रबालों के पर्वत पर भी हिम कुसुम बनकर
रक्तसिक्त      नीलकमल    सा       खिली   रहती    थी
जमाने    के   निर्मम   पदघातों   से कब मुरझा गई
कुंचित   अधरों   की  रस माधुर्यता कब लुप्त हो गई
भाग   गया   कब सौम्यकांत  मुखवाला  वह  विहग
जो   मेरे    निर्जन    ठूँठ   को   गुंजरित   करता  था'
वाह् क्या मूर्धन्य अभिव्यक्ति है जीवन में परिवर्तन की | स्व० श्री पंत जी के परिवर्तन में भाव स्पष्ट हैं :-
'अभी  तो  मुकुट  बंधा था माथ, हुए हल्दी से पीले हाथ
हाय लुट गया यहीं संसार,वातहत लतिका यह सुकुमारि
पड़ी   है  छिन्नाधर  अहे    वासुकी    सहस्त्र       फन
अहे                      निष्ठुर              परिवर्तन  --|'
               डा० श्रीमती तारा जी का हृदय मानवीय संवेदनाओं का मानो समुद्र है | जीवन यात्रा में पग-पग पर होते खट्टे-मीठे अनेकों सुख-दुख सहेजे अनुभवी लेखनी द्वारा लिपिवद्ध किए गए हैं | ' तरसा करते थे जो मुझे देखने सालों भर ' शीर्षक कविता में कवयित्री  की मर्मपीड़ा किस प्रकार पाठकों के हृदय को छलनी करती प्रतीत होती है, जब कवयित्री अपने स्वर्गीय पिता को अपने गाँव में जाकर उन्हॅं नहीं देख पाती है, मात्र उनकी स्मृति छाँह को दृष्टि अनुभव करती है  :---
          ' हर साल की भाँति इस साल भी मैं, दुर्गा-पूजा के अवसर पर गई थी गाँव
        सब  कुछ  जस का तस था, अगर कुछ नहीं था तो वह थी पिता की छाँह
          तरसा  करते  थे  जो  मुझे  देखने सालों भर् खत पर खत लिखा करते थे
           यह     जानने     कि   तारा      तुम    कब    आ  रही   हो       घर |'
                  एक वृद्ध की पीड़ा तथा दुनिया में कौन किसका ; किस प्रकार लेखनी ने पाठकों को रुला दिया है  यहाँ काव्य कौशल ही नहीं, मानव हृदय का करुण क्रन्दन तथा स्वार्थरत विश्व का सच्चा मानचित्र दिखला देने की क्षमता भी है, वास्तव में कवयित्री की इस कृति में सभी कविताएँ स्तुत्य हैं तथा प्रसाद गुणातीत भी | श्रीमती डा० तारा सिंह की लेखनी काव्य -जगत में बौद्धिक क्रांति की सृष्टा सिद्ध होने जा रही है | निकट भविष्य में डा० तारा  की रचना संसार नभ शीर्षस्थ होगी | प्रस्तुत कृति में ः-- "नारी तुम स्वयं प्रकृति हो", " तुम्हारी यादों की टीस ", "पंख बिना मनुज अधूरा", ' तुम्हारा वह स्वर्ग विहान कहाँ है?". "यह कैसा त्योहार" " हमारे प्रिय बापू", " बेटी होती पराया धन” एवं "प्राण बिन जीवन हर्षित होगा कैसे" आदि शीर्षक कविता - गीत हृदय में राष्ट्रीय , सामाजिक, लौकिक एवं बौद्धिक चेतना जगाते हुए मानव मात्र विशेषकर कवि हृदयी मानव के हृदय पर अपनी अमिट छाप छोड़ते चल रहे हैं, ऐसा मेरा भी मत है | इस नाशवान जगत में तो --' विकसने मुरझाने को फूल , उदित होता छिपने को चन्द’ प्रकृति क्रीड़ा का प्रमुख स्वरूप है |  कब क्या हो जाय कुछ मानव को पता नहीं, 'Life is probable’ --किसी ने कहा ही है |
        अंत में मैं डा० श्रीमती तारा जी को पुनः बधाई देता हूँ जिन्होंने मानव हृदय की गहन संवेदनाओं  को अपनी चमत्कारित लेखनी से लयबद्ध कर विश्व चेतना में उतारा है, जिससे ये कृतियाँ विश्व प्रेरणा सिद्ध होने को स्वयं ही विवश हैं | ईश्वर डा० तारा जी को अति दीर्घायु प्रदान करें ताकि वे अपनी और अन्य कृतियाँ माँ वाणी के चरणों में समर्पित कर अमृत प्रसाद ग्रहण करती रहें |
कवयित्री सम्पर्क:                                                                                       ऑम प्रकाश 'विकल' (समीक्षक)
डा० तारा सिंह,  बी० ६०५, अनमोल प्लाजा                        कवि एवं साहित्यकार
प्लाट - ७, सेक्टर - ८,                                                                         स्व० मैथिलीशरणगुप्त स्मृतिसम्मान  
 खारघर,नवी मुम्बई-४१०२१०.                                                                   सारस्वत सम्मान प्राप्त  साहित्यकार

सह - सम्पादक् घटना-कर्म-दर्पण, अलीगढ

 

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