’अनजाने आकाश में’- महेश चंद्र द्विवेदी का नवप्रकाशित काव्यसंग्रह
(प्रकाशक: डा. गिरिराजशरण अगरवाल, १६, साहित्य विहार, बिजनौर(उ. प्र.)_ मूल्य:रु. १७०/-)

भाषा भावों की सम्वाहिका होती है. जब कोई कवि अपने भावों की अभिव्यक्ति हेतु कविता का सहारा लेता है, तो ऐसा शब्दचयन जो पाठक को भावों का संप्रेषण सुगमता एवं सरसता से कर सके, उस अभिव्यक्ति की गुणवत्ता में वृद्धि करता है. शब्द संगुम्फ़न की कला में प्रवीण श्री द्विवेदी की कविताओं में यह विशेषता स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है. आप ने जहां कुछ कविताओं में शुद्ध संस्कृतमय भाषा का प्रयोग किया है, वहीं आवश्यकतानुसार अनेक कवितओं में बोल-चाल के शब्दों का प्रयोग करके उन कविताओं को जनसाधारण के लिये बोधगम्य बना दिया है. कुछ कविताओं में उर्दू, अवधी, कन्नौजी एवं अन्ग्रेज़ी के शब्दों का प्रभावोत्पादक प्रयोग गोरे गाल पर काले तिल के समान सुशोभित हुआ है. वांछित होने पर लोकोक्तियों एवम मुहावरों के समावेश ने भी कविताओं को रुचिकर बनाने में सहायता की है.
छायावाद, शृंगार, समाज व प्रकृति से लेकर सामाजिक पाखंडों एवं राजनैतिक छलछद्म पर व्यंग्य तथा हास्य जैसा विषय-वैविध्य और सबका रुचिकर प्रस्तुतीकरण इस संग्रह की विशेषता है, उदाहरणार्थ:
’आतुर-प्रकृति’- ’आकाश विशाल है- उसका विस्तार एवं विवेक है महान’
फिर भी क्षितिज है मृगतृष्णा, वह इस सत्य से अनजान.’
’कवि मन’- ’ना सीपी, ना चकोर है यह,
ना रूप-गर्विता का याचक है;
स्वयं स्वंति है, स्वयं चंद्र है,
स्वप्नों की चातकि का चातक है.’
’ऐसा क्यों लगता है?’- ’मैं जानता हूं कि उस दिन सूरज पूरब में ही निकलेगा,
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छत की मुंडेर पर चिरौटा चहकेगा, गौरैया चह्चहाएगी,
पृथ्वी किंचित नहीं दहलेगी, जब विदाई की वेला आयेगी,
फिर भी न जाने क्यूं लगता है, वह पल कोई विशेष होगा?’

इसी प्रकार शृंगारिक रचनायें हृदय को छूने वाली हैं:
’कोई प्रतिबंध नहीं है’: ’प्यार के इज़हार पर चाहे लगे हों हज़ार अनुबन्ध,
मन-बसे यार के विचार पर कोई प्रतिबंध नहीं है’
’अनजाने आकाश में छलांग’:’प्यार के स्वीकार के पहले तो कभी न निखरता था,
रंग, जो तेरे गालों पर अब उसे देखकर निखरता है’

और व्यंग्य के तो कहने ही क्या हैं:
’स्टेप नी’: ’जिस प्रकार मीठा खाते खाते मन भर जाने पर,
स्वाद-वृद्धि हेतु कभी-कभी नमकीन खाना चाहिये;
उसी प्रकार देश-सेवा में हलकान नेता के लिये,
पत्नी के अतिरिक्त स्टेप-नी उपलब्ध होना चाहिये’

अवधी मे लिखी ’अमरीकन भौजी’ और कन्नौजी मे लिखी ’दद्दू हमऊं मेला देखन जययें’ न केवल मानवीय संबंधों एवं
आकांक्षांओं का सटीक वर्णन हैं वरन दोनों प्रदेशों की परम्पराओं का सजीव चित्रण भी करतीं हैं.
श्री द्विवेदी प्रमुखतः छंद-मुक्त विधा के लेखक प्रतीत होते हैं. अतः उन्होंने लयात्मकता एवं मात्राओं पर उतना ध्यान नहीं
दिया है, जितना भाव एवं उसकी सम्प्रेषणात्मकता तथा प्रभावोत्पादकता पर दिया है और इस कसौटी पर उनकी कवितायें खरी उतरतीं हैं.
मुझे विश्वास है कि उनकी कविताओं का साहित्य जगत में स्वागत होगा.

/राजेन्द्र प्रसाद शुक्ला/
पूर्व प्रधानाचार्य, एस. ए. वी. इन्टर कालेज
भर्थना, इटावा

 

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