मेरा सारा जीवन हिन्दी के आधार पर ही टिका हुआ है। हिन्दी मेरी मां है। हिन्दी
के प्रति मेरी जो वफादारी है, वह मुझे असत्य लिखने नहीं देती। जो कुछ मैं लिखूंगा,
सच लिखूंगा। मैं सच्ची निष्ठा से हिन्दी-जापानी दोनों भाषाओं की सेवा करूंगा। सत्य
की पूजा और गुणगान ही मेरे शेष जीवन का लक्ष्य है। उक्त उद्घोषणा 'हिन्दी रत्न'
(शांति निकेतन - 2006) साइजी माकिनो ने अपनी पुस्तक 'भारतवर्ष में पैंतालीस साल,
मेरी हिन्दी-यात्रा' के बैक कवर पर लिखी है। इस उद्घोषणा ने मुझे काफी हद तक
प्रभावित किया। वैसे इस पुस्तक से मेरा गहरा लगाव है। इसके दो कारण हैं- एक, मुझे
पत्रकारिता का कखग पढ़ाने वाले शिक्षक श्री जयंत तोमर के चाचाश्री डॉ. रामसिंह तोमर
जी का और दूसरा, मेरी जन्मस्थली ग्वालियर का इसमें इसमें खास उल्लेख है। श्री जयंत
तोमर जी ने इस पुस्तक की चर्चा करते समय कहा था कि लेखक श्री साइजी माकिनो मुरैना
के पास ऐतिहासिक महत्व का स्थल है नूराबाद वहां रहे। माकिनो उनके चाचा रामसिंह जी
से अक्सर जिक्र करते थे कि चंबल के बच्चे बड़े असभ्य, शैतान और परेशान करने वाले
थे। इसका उल्लेख उन्होंने किताब में भी किया है। दरअसल जापानी साफतौर पर भारतीयों
से भिन्न दिखते हैं। गांव के बच्चे उनके बालकों को छोटी-छोटी आंखों के चलते खूब
चिढ़ाते और सताते थे। गांव के लोग उन्हें 'जापानी मास्टर' कहते थे तो वहीं गांव के
ही एक संत रामदास जी महाराज उन्हें 'जापान का भगवान' बुलाते थे।
ग्वालियर के एक सिनेमा घर में उन्होंने मीना कुमारी और अशोक कुमार द्वारा अभिनीत
'चित्रलेखा' फिल्म देखी। बाद में यहीं उन्होंने इसी नाम का श्री भगवतीचरण वर्मा का
उपन्यास पढ़ा, जिसका बाद में उन्होंने जापानी में अनुवाद किया। इसका बड़ा रोचक
किस्सा उन्होंने लिखा है। माकिनो ने ग्वालियर में रहकर लेखक, भ्रमणकारी, शिक्षक,
डॉक्टर और जापानी कंपनी में दुभाषिए की भूमिका का निर्वहन किया। साइजी माकिनो जब
चंबल से चले गए तब सिनेमा, साहित्य और समाचारों के माध्यम से उन्होंने चंबल में
डाकुओं की समस्या पर चिंतन किया। इस विषय में सोचने के बाद उन्होंने वे चंबल के
बारे में लिखते हैं - यद्यपि चंबल क्षेत्र भयावह स्थान, डाकुओं की शरणस्थली माना
जाता है, तथापि वहां का हवा-पानी शुद्ध है। वहां के लोग सीधे-सादे और ईश्वर-भक्त
हैं। चंबल अब प्रगति की राह पर अग्रसर हो रहा है। मेरी इच्छा है कि यदि मैं जिन्दा
रहूं, तो और एक बार ऐसे साधना-स्थान में नये सिरे से सांस लेना चाहता हूं। साइजी
भारत के विभिन्न राज्यों और शहरों में रहे। गोवा में अतिथि सत्कार के बारे में वे
अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि जब पादरी भक्त घर के घर जाते हैं तो भक्त उन्हें
चाय-कॉफी नहीं बल्कि बियर या वाइन पेश करते हैं। पादरी उसे निस्संकोच ग्रहण करते
हैं।
भारतवर्ष में पैंतालीस साल, मेरी हिन्दी-यात्रा
- श्री साइजी माकिनो
मूल्य : 110 रुपए
प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली - 110032 श्री साइजी ने गुरु
रविन्दनाथ ठाकुर की साधना स्थली शांति निकेतन को जो चित्रण किया है वो बड़ा ही
अद्भुत है। शांति निकेतन को पढ़ते हुए पाठक को प्रतीत होता है कि जैसे वह शांति
निकेतन में खड़ा है और सब कुछ देख रहा है। वे लिखते हैं कि शांति निकेतन का जीवन
सुबह की 'बैतालिक' से शुरू होता है। जिसमें उपनिषद के मंत्र और गुरुदेव रवीन्द्रनाथ
का संगीत अवश्यम्भावी है। शांति निकेतन में समस्त उत्सव गान से शुरू होकर गान पर ही
समाप्त होते हैं। इस पुस्तक की सहायता से आप जितना करीब से शांति निकेतन और भारत को
महसूस करते हैं उसी प्रकार जापान और उसकी कला-संस्कृति के भी दर्शन कर सकेंगे।
बातों ही बातों में साइजी भारत की वर्षों पुरानी खेती पद्धति (प्राकृतिक खेती) के
महत्व को भी स्पष्ट कर जाते हैं। वे भारत का बहुत सम्मान करते हैं, भारत को कई
मायनों में सबसे बहुत आगेे पाते हैं। लम्बे समय के बाद साइजी माकिनो अपने देश जापान
वापस गए। प्रथम जापान-यात्रा के कुछ समय बाद ही पुन: उनका जापान जाना हुआ। उस समय
उन्होंने भारत और जापान में जो अन्तर अनुभव किया उसे वे लिखते हैं-
1 - विशेष चेतावनी न देने पर भी जापानी स्वयं नियमों और कर्तव्यों का पालन करते
हैं। भारतीय नियमों की अवहेलना करता है और कहता है कि कोई चिन्ता नहीं, सबकुछ ठीक
हो जाएगा।
2- भौतिक रूप से सम्पन्न हर जापानी जीवन को भोगने की चीज मानता है, लेकिन भारतीय हर
दिन के जीवन को जीने के लिए बाजी लगाते हैं। जापानी जीते हैं केवल अपने सुख भोगने
के लिए, पर भारतीय स्वयं के आनंद के लिए जीते हैं और दूसरों को भी जीने देते हैं।
3- सुख-साधन सम्पन्न सामाजिक कल्याण-व्यवस्था के कारण जापानी वृद्ध निरुत्साही और
सुस्त हो गए हैं। लेकिन, भारतीय वृद्ध सादगी और मर्यादा के साथ मृत्यु का इन्तजार
करते हुए जी रहे हैं।
4- जापान के लड़के अपने आपको लड़कियों जैसा कमजोर महसूस करने लग गए।
5- जापानी जहां कहीं भी रहेंगे, कीड़े-मकोड़ों, मच्छर-मक्खी से घृणा करते हैं और
अपने खिड़कियां दरवाजे बंद कर लेते हैं। लेकिन, भारतीय खुली हवा में रहते हैं।
6- जापानी युवक यदि एक बार भारत भूमि पर पैर रखता है तो उसका मन मोहित हो जाता है।
अनेक कष्ट और दुर्घटनाओं के कड़वे अनुभव पाने पर भी इस देश में आने के लिए इच्छुक
रहता है।
अंत में यही कहूंगा कि हो सकता है आप भारत में बड़े लम्बे समय से रह रहे हैं, लेकिन
हो सकता है आप भारत को उतना नहीं जान पाए जितना कि साइजी माकिनो पैंतालीस साल के
भारत प्रवास में भारत को जान पाए।
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