कृति --- यह जग केवल स्वप्न असार (काव्य संग्रह)
कवयित्री -- डा० श्रीमती तारा सिंह
प्रकाशक - मीनाक्षी प्रकाशन, दिल्ली
समीक्षक - श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव, वरिष्ठ साहित्यकार
संयोजक, पाठक मंच, सी ६ , एम० पी० एस० ई० बी०
कालोनी, रामपुर , जबलपुर – ८ (म० प्र० )
मो० – ०९४२५४८४४५२
‘ तत्सम शब्द , शाश्वत भावों की रचनाएँ ’
अब तक इन्टरनेट पर हिन्दी साहित्य के पन्ने कम ही हैं , और उनसे जुड़े गंभीर
रचनाधर्मी भी । डा० तारा सिंह उनमें से एक अत्यन्त महत्वपूर्ण नाम है । स्वर्ग विभा
नामक इंटरनेट साहैत्यिक ब्लोग , वे समर्पित भाव से चला रही हैं । उनकी चौदहवीं
काव्य कृति ’ यह जग केवल स्वप्न असार ’, आद्योपांत पढ़ने के बाद उनके नारी मन की
भारतीय शाश्वत मूल्यों के प्रति आस्था, एवं तत्सम शब्दों में उनकी अभिव्यक्ति समझने
का पाठकों को अवसर मिलता है ।
कवयित्री के पास विपुल शब्द भंडार है जिसका वे अत्यन्त दक्षता से उपयोग करती हैं—
प्रथम रचना , ’ भेज रहा हूँ प्रणय निमंत्रण ’ से दो पंक्तियाँ उद्धृत हैं, जो डा०
तारा सिंह की शब्द योजना को रेखांकित करती हैं –
’पीताभ अग्निमय अम्बर में , प्रलय हृदय भरता, इसलिए त्याग कर धरती के निष्ठुर जल का
अवलम्ब उर्ध्व नभ के प्रकाश को आत्मसात कर उनके रूप, गंध, रस से झंकृत भूषण पहनकर
यहाँ चली आओ ।’
उनकी शैली गद्यमय है । तत्सम शब्दों का विपुल प्रयोग है । संस्कृतनिष्ठ भाषा है ।
वैचारिक परिपक्वता कविता का मूल आधार है । कवि एवं पत्रकार श्री कृष्ण मित्र के
पुस्तक के आमुख में इन कविताओं को छायावादी रचनाएँ कहा है, वे बिल्कुल ठीक हैं ।
कवयित्री का भावपक्ष बहुत प्रबल है, उसके मन में राष्ट्रप्रेम की शाश्वत भावना
हिलोरें मार रही हैं । वर्तमान सामाजिक परिदृश्य से पीड़ित वे लिखती हैं ---
’ मैं ढूंढ रही हूँ भारत माँ का ऐसा चित्र जिसमें
वर्णों से विभाजित, मानव की तकदीर न रहे ।’
कवयित्री समाज की नैतिक चारित्रिक गिरावट से दुखी है ’ नैतिकता भर रही चित्कार ’
एवं ’ ईमानदार दर – दर की ठोकरें खाता ’ --- इसी पीड़ा की रचनाएँ हैं ।
ऐसे में उनकी दार्शनिकता चरम पर पहुँचकर लिखती है ---
’ फ़िर भी इसके गहरे तम में , डूब जा रहा संसार
जब कि यह जग है, केवल स्वप्न असार !’
यह पुस्तक इस शीर्षक रचना से उद्धृत पंक्तियाँ हैं । ’ दुनिया है एक धर्मशाला ’
रचना भी कुछ मनोभावों की पुष्टि करती है ।
डा० तारा सिंह लम्बे समय से निरंतर लिख रही हैं, छप रही हैं एवं उनकी अनेक कृतियाँ
प्रकाशित हैं । उन्हें देश-विदेश की शताधिक सस्थाओं ने उनके समर्पित लेखन, चिंतन
एवं साहित्यिक समर्पण हेतु सम्मानित किया है । उनके अनुभवों का संसार , उनके गाँव
से प्रारम्भ होकर विश्व के कैनवास पर फ़ैला है , एवं वे उसे समूचे ब्रह्माण्ड तक
विस्तारित करने हेतु कलम का सहारा लेकर रचनाएँ कर रही प्रतीत होती हैं । उनके भीतर
की मूल नारी ’ उसकी एक झलक से गूँज उठी कुटिया मेरी ’ जैसी रचना दीखती है । ’आँसू
से भीगे आँचल पर जब कुछ धरना होगा’, रचना की दो पंक्तियाँ हैं ---
’ मातृपद को पाकर हमारी धरती कितनी पवित्र है
वहीं नारी माँ बनकर भी कितनी कलुषित है ।’
स्त्री विमर्ष पर आज खूब रचना हो रही है , डा० तारा सिंह अगली ही पंक्तियों में इस
समस्या का उत्तर देती हैं –
’ लेकिन मुझे विश्वास है, जिस दिन नारी
सोच लेगी, हमें कंदर्प बनक्र नहीं जीना है
नर- नारी एक ही युगपद की संग्याएँ हैं
तब कमल- कंदर्प का यह भेद,आप मिट जायगा ।’
इसी तरह की वैचारिक दृष्टि से परिपक्व रचनाएँ इस संग्रह में हैं । कृति पठनीय एवं
संग्रहणीय है । डा० तारा सिंह से हिन्दी जगत और भी श्रेयस्कर रचनाओं की आकांक्षा
रखता है । विशेष रूप से इंटरनेट पर जो कार्य वे कर रही हैं, उसके लिए उन्हें पुन:
बधाई ।
-------श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव
वरिष्ठ साहित्यकार
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