अंतिम ख़त—-विजय कुमार शर्मा आज़ाद


कल रात मैं अच्छी तरह से सो नहीं पाया था .कारण मैं खुद नहीं जानता. मैं
दिमाग की अंतिम सतह पर था तथा सोच रहा था की मुझे नींद क्यों नहीं आई.
कौन सी इसी बात थी जिसने मुझे सोने नहीं दिया था.
सुबह सुबह दरवाजे पर आहात हुई थी बाहर कोई बुला रहा था वो दोड़ता हुआ गया.
दरवाजे पर हॉस्टल का ही एक कर्मचारी था. वो मेरे रूम में ही रहता था. मैं
नींद में था. वो जल्दी जागता था. सुबह सुबह जिम जाता था. मैंने उसे उछलते
हुए देखा. वो ख़ुशी से चिल्ला रहा था मेरा ख़त आया है. मुझे उसने फिर
याद किया है. वो मुझे भूले नहीं है. वो मेरे अपने है. वो मेरा सब कुछ है.
इस महीने में तीसरा ख़त आया है. पर अफ़सोस मैं एक भी ख़त नहीं डाल सकता.
ये क्या जिन्दगी है मेरी? दुनिया की बंदिशों ने मुझे बांध के रखा है.
लेकिन जल्दी मैं उन्हें मिलने जाऊंगा. ……….
वो जल्दी जल्दी में क्या बद्बदा रहा था मेरी समझ से बाहर था. मैंने पूछा
क्या हुआ भाई किसका ख़त है? वो बोला मेरे महबूब का.
उसने जल्दी से लिफाफा फाड़ा और ख़त पढ़ना आरम्भ किया. मैंने बोला भाई
अपने महबूब की कुछ खुशखबरी मुझे भी सुना दो. वो ख़ुशी में बोला ठीक है
मैं जोर जोर से पढ़ता हूँ. और वो जोर जोर से पढ़ने लगा. ख़त में लिखा था
” मेरे प्राणप्रिये दोस्त , अभी तक तो तुम मेरे सिर्फ अच्छे दोस्त थे
लेकिन आज मैं तुम्हे अपना……… ” इसके बाद वो धीरे धीरे पढना लगा और
धीरे धीरे उसके गाल अन्सुअनो से भीगने लगे. मैंने पूछा क्या हुआ? वो कुछ
नहीं बोला. वो पढ़ रहा था और रो रहा था. मैं भी परेशान हो गया शायद कुछ
बुरी खबर है. मैंने फिर पूछा सब ठीक तो है? वो फूट फूट कर रोने लगा.
मैंने अपना बिस्तर छोड़ा और उसके पास गया. उसके कंधे पर हाथ रख कर पूछा
क्या हुआ? उसने कुछ कहा नहीं. वो ख़त मुझे पकड़ा दिया. इससे पहले वो अपना
ख़त मुझे कभी नहीं पढने देता था. मैंने उससे कहा क्या मैं इसे पढ़ सकता
हूँ? उसने सम्मति

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