सामान्य साहित्य हो या बाल साहित्य हो दोंनों का उदेश्य और प्रयोजन समान है
बच्चों का एक स्वतंत्र व्यक्तित्व होता है, उनकी रुचि और मनोव्रति को ध्यान
में रखकर लिखा गया साहित्य ही बाल साहित्य कहला सकता है. एक ऐसा साहित्य जो
उन में बोये हुए अंकुरों को पुष्ट करता है और उन्हें अपनी छोटी समझ बूझ के
आधार पर जीवन पथ पर आती जाती हर क्रिया को पहचानने में मदद करता है, साथ
साथ उन्हें यह भी ग्यान हासिल होता है कि वे भले बुरे की पहचान पा सकें.
हिंदी बाल साहित्य के लेखक का यह भी फर्ज़ बनता है कि बाल साहित्य के
माध्यम से बच्चों की सोच को सकारात्मक रूप देने का प्यास भी करें. साहित्य
को रुचिकर बनायें, विविध क्षेत्रों की जानकारी अत्यंत सरल तथा सहज भाषा में
उनके लिये प्रस्तुत करें जिससे बालक की चाह बनी रहे और उनमें जिग्यासा भी
उत्पन होती रहे. इससे उनमें संवेदनशिलता और मानवीय संबंधों में मधुरता
बढ़ेगी.
बच्चे का मानसी विकास ही कुछ ऐसा है, वह आज़ादी का कायल रहता है, बँधन
मुक्त. अगर कोई उनसे कहे कि यह आग है, जला देती है, तो उसका मन विद्रोही
होकर उस तपिश को जानने, पहचानने और महसूस करने की कोशिश में खुद को कभी कभी
हानि भी पहुंचा बैठता है. सवालों का ताँता रहता है, क्यों हुआ? कैसे हुआ?
और अपनी बुद्धि अनुसार काल्पनिक आक्रुतियाँ खींचता है और अपनी सोच से भी
अनेक जाल बुनता रहता है. मसइले का हल अपनी नज़र से आप खोजता है यही उसका
ग्यान है और यही उसका मनोविग्यान भी. उनके मानसिक व बौद्धिक विकास को ध्यान
में रखकर रचा गया साहित्य उनके आने वाले विकसित भविष्य को नज़र में रख कर
लिखा जाये तो वह इस पीढ़ी की उस पीढ़ी को दी गई एक अनमोल देन होगी या
विरासत कह लें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं.
बस आवश्यक्ता है उस पुल की जो बाल साहित्य को बच्चों तक पहुंचा पाए. पाठ्य
सामग्री हो तो फिर ज़रूरत रहती है वह अमानत बालकों तक पहुंचाने तक की, जो
उत्तरदायित्व का काम है. बाल जन्म दिवस पर, शिक्षक दिवस हो या कोई तीज
त्यौहार या राष्ट्र दिवस हो, बच्चों को खिलौने, मिठाई या कपड़े लेकर देने
से बेहतर है उन्हें बासाहित्य भेंट में दिया जाय , जिससे उन में चाह के
अंकुर खिलने लगेंगे और वे उकीरता से हर बात साहित्य की उपेक्षा की बजाय
अपेक्षा रखेंगें.
जूलाई में न्यूयार्क में ८वें विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान बाल साहित्य पर
काफ़ी विस्तार से चर्चा हुई और बहुत ही अच्छे मुदे सामने आए जिनका उल्लेख
यहाँ करना ज़रूरी है. डॉ॰सुशीला गुप्ता ने बच्चों के मनोविग्यान की ओर
इशारा करते हुए कहा कि बच्चों का मन मस्तिष्क साफ स्वच्छ दिवार की तरह होता
है जिस पर कुछ भी बड़ी सरलता से उकेरा जा सकता है. इसलिये बच्चों में बचपन
से ये शब्द बीज बो देने चाहिये. इसी सिलसिले में दिल्ली के इंदिरा गाँधी
राष्ट्रीय मुक्त विश्वविध्यालय की डॉ॰ स्मिता चतुर्वेदी ने बाल साहित्य के
स्वरूप और दिशाओं पर रौशनी डालते हुए यही कहा ” कि साहित्य बालकों की अपनी
विशिष्ट छोटी छोटी समस्याओं को उभारे, उन्हें गुदगुगाए, उनका मनोरंजन करे,
और उनकी समस्याओं का आदर्श से हट कर समाधान दे, वही साहित्य श्रेष्ठ बाल
साहित्य है.
बाल साहित्य के शिरोमणि श्री बालशौर रेड्डी ने बाल ग्यान विग्यान पर बातों
के दौरान में अपनी प्रतिक्रिया में संक्षेप में बताते हुए कहा ” बाल
साहित्य के सूत्रों से आपका कहने सुनने का नाता है, था और चलता रहेगा.
टिमटिमाते सितारे, पानी में मछली, जिग्यासा भरे प्रश्न उत्पन करती है,
प्रश्न उत्तर की चाहत रखता है, बस बाल मन समझने की जरूरत है, चिंतन मनन के
पश्चात उसको पाचन करने का समय देना हमारा कर्तव्य है.”
भाषा शिक्षण के अपने अनुभवों से परिचित कराते हुए सुश्री सुषम बेदी कहती है
“भाषा पढ़ाना एक कला है और विज्यान भी. कला इसलिये कि उसमें लगातार
सर्जनात्मकता की जरूरत है और विग्यान इसलिये कि उसमें व्यवस्था और नियमों
का पूरा पूरा ध्यान रखना पड़ता है. ऊर्जा, उत्साह, सर्जनात्मकता और उपज
जहां भाषा शिक्षण को एक कला का रूप पर्दान करते हैं, वहीं पाठक-पद्धतियों
का सही इस्तेमाल विग्यान को. दोनों का संतुलन ही श्रेष्ठ भाषा शिक्षण की
नींव है.” इसी दिशा में एक सफलतापुर्ण कदम है सरिता मेहता जी का नवीन
प्रयास ” आओ हिंदी सीखें” जो बाल साहित्य के जगत में एक महत्वपूर्ण व अनुपम
भेंट है, जो आने वाली पीढ़ियों को लाभाविंत करती रहेंगी.