बदलते समय में वृद्ध माता-पिता के प्रति संतान की कर्तव्यहीनता

matapitaजीवन चिंतन

नागेन्द्र शर्मा

हम पढ़े लोगों के मुंह से भी अंग्रेजी का यह कथन अक्सर सुना जा सकता है कि ऑल्ड इज गोल्ड’ । अतीत की सुखद स्मृतियों का चाहे कितना ही मूल्यांकन किया जाये कम ही लगता है उसी तरह बड़े-बड़े नगरों मे अवस्थित पुस्तैनी हवेलियों, इमारतों व मकानों मे रखी वस्तुओं के मूल्यांकन के बारे मे भी कुछ इसी तरह की भावनाएं क्रियाएं करती है। बेचने वाला सोचता है ‘कीमत कहीं कम तो नहीं ली गई और खरीदने वाले के मन मे भी कुछ ऐसे ही विचार आते हैं कि दाम दर करने पर शायद इससे भी कम मे मिल जाती। लेकिन खरीददार को यह संतोष रहता है कि कीमत जो भी हो पर वह आज दुनियां की एक दुर्लभ और नायाब वस्तु का मालिक है। भारतीयों मे प्राचीनतम दुर्लभ वस्तुओं के संग्रह करने का शौक कम ही पाया जाता है लेकिन पश्चिमी देशों मे ऐसे शौकीन काफी मिल जाएंगे।
भारत मे भी धनी वर्ग के लोगों मे धीरे-धीरे यह शौक पनपता देखा जा सकता है। अपने पुराने मेज और कुर्सियों पर नई पॉलिश करा कर करीने से सजाकर रखने मे एक तरह का गर्व महसूस करते हैं। लेकिन मानव जगत के संदर्भ मे भारतीयों के प्राचीनता के प्रेम की वस्तु-स्थिति बिल्कुल भिन्न दिखलाई पड़ती है। इस पूरे आशय को कुछ इस तरह समझने की कोशिश करें तो उचित होगा कि पुरानी वस्तुओं का मूल्य समय के साथ-साथ बढ़ता जायेगा पर जहां तक मानव जगत के संदर्भ का सवाल है तो वहां मूल्य बढ़ने के बजाय घटते ही देखा जाता है। यहां मेरा संकेत बुजुर्ग और वृद्ध हो चले उन माता-पिता की ओर है, जो अपनी संपन्न संतान की उपेक्षा को ढोकर भी जीने को मजबूर हैं। माता कितनी वेदना दायक प्रसव पीड़ा सहन करती है पर जब नवजात शिशु के सुकोमल गले से उसके रौदन की आवाज सुनती है तो वह अपनी प्रसव वेदना को थोड़ी देर के लिए भूल कर एक अब्यक्त आनंद मे सरोबार हो उठती है। फिर पिता के स्नेहपूर्ण सहयोग से उसका पालन-पोषण होता चला जाता हैं।
इस तरह के सयत्न और संवेदनशील पालन-पोषण के पीछे प्रारंभिक अवस्था मे सिर्फ मकसद एक ही रहता है कि किसी भी तरह इसको पढ़ा लिखा कर इतना लायक बना देना है ताकि यह अपने पैरों पर खड़ा हो कर अपना जीवन यापन सरलता से करते रहें। उस समय माता-पिता को दृढ़ विश्वास रहता है, कि जिस लाड़-प्यार से उसको पाल-पोस कर बड़ा कर उसे सब तरह से योग्य बनाया है, वह अपने वृद्ध माता पिता की लाठी तो बनेगा ही। इसमे संशय की कोई गुंजाइश ही नहीं हैं। उनकी धारणा यह रहती है, कि जब हमने अपना सुख, भोग विलास आदि सब कुछ त्याग कर इन्हे इस योग्य बनाया है तो उसका प्रतिदान वृद्धावस्था में हमें अवश्य मिलेगा। लेकिन खेद है, कि आज ऐसी स्थिति नहीं रही। माता-पिता वृद्ध हो जाने पर आज की कुछ संतान इतनी खुदगर्ज हो गई है, कि वे उनके सुखमय गुजर-बसर की चिंता न कर इस अनावश्यक बोझ से राहत कैसे मिले इस पर इनका ध्यान ज्यादा केन्द्रित रहता है। पश्चिमी देशों की बातें तो कुछ अलग ही होती हैं। वहां माता-पिता को अकेले छोड़ना अथवा वृद्धाश्रम में छोड़ आने को एक सामाजिक मर्यादा मिली हुई है। लेकिन हमारे देश मे जहां श्रवण जैसे पुत्रों का इतिहास है, फिर भला इस स्थिति को कैसे स्वीकार किया जा सकता है। लेकिन वक्त ने करवट ली है और इस करवट ने परम्परागत मूल्यों का अवमूल्यन कर डाला है और अब सारी मान्यतएं बदल चुकी है। यदि किसी कारणवश अकालमृत्यु न हो तो मानव जीवन मे वृद्धावस्था एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, और इस अवस्था मे मनुष्य को आक्रांत करती शारीरिक कमजोरियों का अनुभव होने लगता है। इन कमजोरियों को एक प्रोढ़ स्वाभाविक प्रक्रिया मान कर स्वीकार कर लेता है। लेकिन वही प्रोढ़ जब अपनी संतान की उपेक्षा का शिकार होने लगता है तो यही कमजोरियां मानसिक पीड़ा का कारण बन जाती है। ऊपर से आज की महंगाई और चीजों के आसमान छूते दाम। डॉक्टरी फीस सहित मंहगा इलाज।
डिबरुगढ़ के पास जमीरा नामक चाय बगान निवासी एक वृद्ध मां ने अपनी संतान से मिल रही जिल्लत और उपेक्षा से तंग आकर उसे अपने खर्च के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ा। उसे न्याय भी मिला। लेकिन आज की आसमान छूती मंहगाई के चलते बेटों से मिलने वाली राशि कम पड़ने लगी तो उसने अपने बेटों को राशी बढाने के लिए कहा पर बेटों ने मना कर दिया। उसने फिर अदालत मे गुहार लगाई। लेकिन दूसरी बार उसे अदालत मे जिस जिल्लत का सामना करना पड़ा वह देश, समाज और मानवता के लिए शर्मनाक है। उसने ‘सादिन’ (गुवाहाटी से प्रकाशित असमीया साप्ताहिक) को अपनी ब्यथा का विवरण देते हुए एक पत्र लिखा जो यहां प्रस्तुत है:-
अपनी संतान से उपेक्षित एक बुजुर्ग मां का पत्रः
मैं दो पुत्रों की 74 वर्षीय एक विधवा मां हूं। वे न तो मेरी देख भाल कर रहे थे और न मुझे कोई खर्च भेजा करते हैं। मजबूरन मैने 1996 मे डिबरुगढ़ की अदालत मे एक मां के अधिकार की मांग करते हुए एक मुकदमा (मु.क्र.19/96) दायर किया। माननीय अदालत के आदेश के अनुसार दोनो बेटे मिल कर प्रति माह 1500 रु. देने लगे। लेकिन खाने-पीने और चिकित्सा सहित अन्य खर्च के लिए उक्त राशि कम होने लगी। अत: मैंने उक्त राशि को बढ़ाने के लिए अदालत में एक और आवेदन पेश किया। मुझे गत 20-01-2011 को अदालत मे बयान देने के लिए बुलाया गया। अदालत कक्ष के बाहर पुकारने के इंतजार में काफी देर तक खड़े रहने के बाद भी जब मुझे पुकारा नहीं गया तो मैं कक्ष के भीतर स्वत: ही चली गई। अंदर जा कर देखा तो वहां पेशकार के सिवा कोई नहीं था। वहां जाने पर मैंने देखा कि मजिस्ट्रेट और मेरे विरोधी पक्ष का वकील दोनो हीटर पर हाथ सेक रहे हैं। मुझे देखते ही विरोधी पक्ष का वकील आग बबूला हो उठा और कहा इस बुढ़िया को देखते ही मेरा दिमाग गर्म हो जाता है। मै इसकी सूरत तक देखना पसंद नहीं करता। सर, हो सके तो इसे बंदी बना कर जेल की कोठरी मे डाल दें। इस गहरे अपमान का घूंट पी कर भी मैंने मेजिसट्रेट से मेरा बयान लेने का अनुरोध किया। लेकिन न्याय की कुर्सी पर बैठने वाले हाकिम तो वकील से भी अधिक क्रोधित हो कर बोला, आप अपने आपको समझती क्या है। क्या मै आपके बेटों को नहीं जानता। बेचारे सज्जन और अच्छे इनसान हैं। आप खामख्वाह उन्हे बदनाम करेने पर तुली हैं। आपकी हरकत से लगता है मै जेल का आर्डर आपके लिए दूं। दिल तो करता है आपको अपने बेटों से जो कुछ मिलता है उसे भी बंद करा कर आपको जेल भेज दूं। अब मेरा सवाल यह है कि न्यायाधीश का जब ऐसा रवैया हो तो निरीह जनता उससे क्या उचित न्याय की उम्मीद कर सकती है। क्या प्रदेश के कानून मंत्री इस ओर ध्यान देंगे ?
विनीत
एक दुखियारी माँ

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