धर्म के मदारी
बीनू भटनागर

हमारे देश में पीर, पैगम्पर, बाबा, गुरू या गुरू मां जैसे बहुत से लोग प्रकट होते हैं। इनकी लोकप्रियता का अनुमान लगाना हो तो इनके अनुयायियों की संख्या देखिये भीड़ का जमवाड़ा करना इनके लिये कठिन नहीं है। अपने अनुयायियों को ये क्या सिखाते हैं- शायद वही गुण भाईचारा, ईमानदारी, सहयोग और प्रेम परन्तु अनुयायी सबसे ज्यादा सिखते हैं अंधभक्ति। लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष का क्लेश दुगुर्ण है सभी जानते हैं, आवश्यक्ता है अपने व्यक्तित्व में से इन्हें निकालकर सद्गुण लाने की, जिसके लिये व्यक्ति को सक्षम, सुदृढ़ और कुछ हद तक संवेदनशील होना पड़ता है।

प्रत्येक व्यक्ति के लिये महत्वपूर्ण है कि वह हर स्थिति में अपने विवेक से निर्णय लेने की क्षमता रखे। यदि उसका निर्णय ग़लत भी होगा तो भी वह उसका अपना ही निर्णय होगा। कई बार निर्णय लेना कठिन हो जाता है आपकी मानसिक स्थिति आपको निर्णय लेने से रोकती है। ऐसे समय में आप किसी विशेषज्ञ की सलाह ले सकते हैं। यदि निवेश करना है तो उसके लिए विशेषज्ञ है, रिश्तों में कड़वाहट है तो मनोवैज्ञानिक है और कानूनी सलाह लेनी है तो वकील है।

ठहरिये। कुछ धर्म के मदारी भी हैं जो हर विषय पर आपको सलाह देने के लिये बैठे हैं। मकान बेचें या किराये पर दें? पैसा कहां निवेश करें? किस डाक्टर से इलाज करायें? होम्योपैथिक इजाल किराये या आयुर्वैदिक, सभी विषय पर आपको सलाह मिलेगी। साथ ही वातावरण में एक भ्रम फैला होगा कि यदि आपने उनकी सलाह नहीं मानी तो आपके पूरे कुटुम्ब का अनिष्ठ हो सकता है।

वास्तव में धर्म के ये मदारी सत्ता लोभी हैं। अनुयायियों का मास्तिष्क इस क़दर इनके प्रभाव में होता है कि इनकी हर बात को बिना सोचे समझे अपनाकर अनेक बार ग़लत निर्णय ले लेते हैं यह सिलसिला अंतहीन चलता रहता है। अनुयायियों की निर्णय लेने की क्षमता ख़त्म होने लगती है। मदारी ने कहा ‘‘ओ झमूरे-नाचेगा’’ झमूरा बोला ‘‘नाचूंगा’’ का क्रम शुरू हो जाता है। मदारी की डुगडुगी पर झमूरा खूब नाचता है। मदारी तो अपनी डुगडुगी पर एक या दो बंदरों को नचाता है पर हमारे धर्म के मदारियों का कोई जवाब नहीं वे तो हजारों लाखों अनुयायियों को नचा सकते हैं। इस तथ्य के स्पष्टीकरण के लिए मेरे पास अनेक उदाहरण हैं। एक डाक्टर दंपत्ति ने आना क्लीनिक जो वर्षों से जमा हुआ था उसे अपनी गुरू मां के आदेश पर दूसरे शहर में ले जाकर स्थापित किया। अब उनका अधिकांश समय गुरू मां के चरणों में बीतता है। एक संभ्रात परिवार के बुजुर्ग को डाक्टर ने कैंसर बताया उनके गुरू ने अपने ही समुदाय के डाक्टरों की नियुक्ति कर दी जो कैंसर विशेषज्ञ भी नहीं थे। गुरू जी के नेतृत्व में डाक्टर उनका इलाज करते रहे। रोगी व उनका परिवार गुरू और डाक्टरों का गुणगान करता रहा। रोगी की कुछ महीने बाद मृत्यु हो गई। गुरू का और उनके नेतृत्व में काम करने वाले डाक्टरों का गुणगान आज भी जारी है।

कैंसर के रोगी इलाज अत्यंत कठिन है सभी जानते हैं परंतु समय से यदि योग्य विशेषज्ञ इलाज करें तो रोगी रोग मुक्त हो सकता है। कम से कम उसके जीवन की अवधि को बढ़ाया जा सकता है और उसका कष्ट कम किया जा सकता है। जो डाक्टर अपने ज्ञान और अनुभव के आधर पर नहीं बल्कि अपने धर्म गुरू की सलाह पर इलाज करते हैं वे अपने व्यवसाय से बेइमानी करते हैं। ऐसे डाॅक्टरों का लाइसैंस मैडिकल काउंसिल को ज़ब्त कर लेना चाहिए।

एक संगठन है जिसके गुरू का दर्जा अनुयायियों के लिये भगवान जैसा है। ये लोग अपने गुरू को मालिक कह कर संबोधित करते हैं। इसी संगठन से जुड़ी एक बुजुर्ग संभ्रात महिला ने मुझसे कहा ‘हमें कोई परेशानी होती है तो मालिक से सलाह लेते हैं। बाकी लोग मूर्ति के सामने बैठकर प्रार्थना करते है करते वह तो कोई सलाह नहीं दे सकती मैंने कहा ‘‘बिल्कुल सही फरमाया आपने मूर्ति कोई सलाह नहीं दे सकती पर आपके मालिक हमेशा सही सलाह दें ये भी जरूरी नहीं है।’’ मूर्ति का उद्देश्य केवल एकाग्रचित करना होता है जिससे दुविधा के समय सही निर्णय लेने में मदद मिल सकती है। यदि बिना मूर्ति के कोई व्यक्ति एकाग्रचित होकर सोचने की क्षमता रखता है तो उसे मूर्ति की आवश्यकता नहीं होगी।

कुछ गुरू धर्मिक कुरीतियों के विरोध में खड़े होते हैं ये अपना एक समुदाय बनाकर बदलाव लाने का प्रयत्न करते हैं। इनमें से कुछ को ना धन का लालच होता है ना सत्ता का लोभ। धीरे-धीरे इनके अनुयायी अंधभक्ति में लीन होकर इन्हें भगवान का दर्जा दे देते हैं। तब अनजाने में ही सही ये सत्ता के लोभी बन जाते हैं। कालांतर में ये वही गलतियां करने लगते हैं जिनके विरोध में ये खड़े हुए थे।

एक प्रकार के गुरू होते हैं जो चमत्कार दिखाते हैं। कभी हाथ उठाकर हवा में से अंगूठी निकाल दी तो कभी हथेली रगड़कर विभूति। ये वास्तव में थोड़ा बहुत जादू जानते हैं जिन्हें भक्त चमत्कार समझ लेते हैं।
सबसे खतरना गुरू की श्रेणी उनकी है जो गैर कानूनी काम करते हैं। इनपर हत्या, बालात्कार व यौन उत्पीड़न के अरोप भी होते हैं। इनके असंख्य भक्त इन आरोपों की षड़यंत्र कह कर नकार देते हैं। उनकी भक्ति पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। कुछ धर्म गुरुओं के काले धन के खाते स्विस बैंको में है ऐसा भी अनुमान है।

सभी गुरुओं के समुदाय सामाजिक कल्याण के लिए कुछ न कुछ अच्छे कार्य करते हैं जो सराहनीय है।, परंतु समाज कल्याण की आड़ में गुरू की तानाशाही या भक्तों की अंधभक्ति का कोई औचित्य नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण है कि व्यक्ति में आत्म विश्वास हो न कि अंधभक्ति। अंधभक्ति और आस्था में बहुत अंतर है। आस्था की वजह से कोई अपना विवेक नहीं खोता। अंधविश्वास और अंधभक्ति व्यक्ति के मस्तिष्क को कुंठित करते चले जाते हैं।

अंधभक्ति केवल जीवित गुरू फैलाते हों ऐसा नहीं है मूर्तिपूजक भी उतने ही अंधविश्वासों की गिरफ्रत में हैं। पर उनकी चर्चा कना इस लेख की परिधि के बाहर है।
संत कबीर रहीम ने नीति के दोहे देकर साहित्य को आमूल्य निधि दी है। ये लोग शिक्षित भी नहीं थे परंतु इन्होंने कभी किसी की निजी जिंदगी में दखल नहीं दिया न खुद को गुरू मानकर किसी समुदाय का गठन किया। ये फक्कड़ फकीर थे न धन का लालच न सत्ता का लोभ।

भीड़-भीड़ को खींचती है यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। भीड़ में अफवाहें फैलती हैं। भीड़ में मनुष्य का अपना व्यक्तित्व विलीन होने लगता है उसकी मानसिकता कमजोर हो जाती है। व्यक्ति कही सुनी बातों पर भरोसा करने लगता है ऐसे में किसी प्रभावशाली व्यक्ति को भीड़ की डोर अपने हाथ में लेना सरल हो जाता है। एक तरह से अनुयायियों का ‘ब्रेन वाश’ हो जाता है। दिभाग के ताले बंद हो जाते हैं विवेक नष्ट होने लगता है। इस स्थिति को ये लोग मन की शांति या ‘ट्राॅस’ समझ कर भक्ति में डूबने लगते हैं।
हिंदुओं पर यदि आतंकवादी हमला हुआ तो किसी हिंदू गुरू ने उसके जवाब में हमला करने के लिये अपने अनुयायियों को उकसाया और आतंकवाद के साथ हिंदुओं का नाम जुड़ने लगा। आतंकवाद का किसी भी धर्म से जुड़ना उस समुदाय के लिये शर्मनाक बात है। विश्व की सभी आतंकवादी घटनाओं के पीछे कोई न कोई धर्म का मदारी और उसके झमूरे जिम्मेदार हैं।

अंत में यही कहना है अपने पर भरोसा रखना चाहिये। प्रत्येक परिस्थिति में संतुलन बनाये रखकर निर्णय लेना चाहिये। अंधविश्वास में न पड़कर अपने विवेक से निर्णय लेना चहिये आवश्कता पड़े तो कुशल विशेषज्ञों की सलाह आवश्य लेनी चाहिये पर किसी भी धर्म के मदारी का झमूरा बनने से स्वयं को रोकना चाहिये।

 

नाच झमूरे नाच..............नाचेगा.........................नाचूंगा
डुग डुग डुग डुग..................................

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