नारीऔर पुरुष के कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों मे काल, देश और विभिन्न
संसकृतियों के संदर्भ मे सदा विवाद रहे हैं और रहेंगे, क्योंकि समय और
परिस्थितयों मे परिवर्तन होते ही विचार धारायें बदलती हैं। नैतिकता के स्तर
भी बदलते हैं। समाज का कल्याण तभी संभव है जब स्त्री पुरुष एक दूसरे के
पूरक बने रहें,, नारी पुरुष को आदर दे पर स्वामित्व न स्वीकारे,, पुरुष भी
नारी की भावनाओं को समझे, उसे आदर दे पर उसका शोषण न करे न होने दे।
नारी को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता मिले पर वो उसका दुरुपयोग न करे।
साहितय़िक कृतियों मे नारी के विभिन्न रूप उभरे हैं ,संभवतः काल और परिवेश
के अनुसार सही रहे होंगे परन्तु आज अनुचित और अधूरे लगते हैं। दुर्गा,,
लक्ष्मी और सरस्वती हिन्दू संसकृति की प्रतीक हैं। दुर्गा शक्ति है,,
लक्ष्मी धन है और सरस्वती शिक्षा। नारी यदि शक्ति, धन और विद्या थी तो वह
शोषित ही क्यों हुई? वास्तव मे नारी कभी शक्ति, धन और विद्या की स्वामिनी
थी ही नहीं, क्योंकि न कभी उसे अधिकार मिले न शिक्षा और धन के लियें भी वह
पुरुष पर आश्रित रही। उसके व्यक्तित्व का अस्तित्व तो कभी समझा ही नहीं
गया। नारी से हमेशा बलिदान मांगा गया, सहनशीलता की अपेक्षा की गई। ये गुण
अच्छे हैं, पर शिक्षा के अभाव मे नारी के इनहीं गुणो को विकसित और
गौरवान्वित करने की वजह से उसका शोषण हुआ। कभी पुरुष ने नारी को शोषित
किया, कभी नारी ने नारी को शोषित किया।
साहित्यिक कृतियों मे अधिकतर नारी के सतीत्व का ही गौरव गान हुआ है।
रामचरित मानस मे सीता जी की अग्नि परीक्षा लेकर उनको अपमानित किया गया,
गर्भधारिणी सीता का परित्याग किया गया। अश्वमेघ यज्ञ मे उनकी सोने की
प्रतिमा से काम चला लिया गया। कही भी किसी नारी पात्र के दुर्गा,लक्ष्मी या
सरस्वती रूप के दर्शन नहीं होते। तुलसीदास जी ने तो ढोल, ,गंवार, ,शूद्र,
पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी कहकर रही सही कसर भी पूरी कर दी। उर्मिला
के बलिदान को तो वो भूल ही गये। साकेत मे उर्मिला के चरित्र पर मैथिलीशरण
गुप्त जी का ध्यान गया पर बात वहीं की वहीं रही कि नारी से बलिदान मांगो और
उसका गौरवगान करदो। हमेशा से यही तो होता आया है।
महाभारत मे द्रौपदी पाँच पतियों से ब्याह दी गई,, युधिष्टर उन्हें जुए मे
हार बैठे, भरी सभा मे उनका चीर हरण हुआ,ये तो अपमान की सीमा हो गई।
यशोधरा को त्याग कर राज कुमार सिद्धार्थ ज्ञान की खोज मे निकल पड़े तो
गुप्त जी ने लिखा-
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,
आँचल मे है दूध और आँखों मे पानी,
जयशंकर प्रसाद जी ने लिखा -
नारी तुम केवल श्रद्धा हो ,विश्वास तल मग मे,
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर तल मे
कहीं भी नारी के दुर्गा,,लक्ष्मी या सरस्वती रूप के दर्शन नहीं हुए।
सुभद्रा कुमारी चौहान ने नारी के दुर्गा रूप को दर्शाया -
खूब लड़ी मर्दानी, वो तो झाँसी वाली रानी थी।
साहित्य समाज का दर्पण होता है, नारी के जो रूप साहित्यिक कृतियों मे
दर्शाये गये हैं लगभग वही स्थिति समाज मे स्त्री की थी। मुंशी प्रेमचन्द की
निर्मला दहेज़ के अभाव मे बूढे के संग ब्याह दी गई थी।
मध्यकाल मे तो नारी भोग विलास की वस्तु बन कर रह गई। धीरे धीरे नारी के दिन
आज सुधरे हैं, ,नारी को शिक्षा मिल रही है भले ही ग्रामीण क्षेत्रों मे अभी
शिक्षा की सुविधाये कम हैं, फिर भी अधिकतर उनकी शिक्षा मे परिवार पहले जैसी
रुकावट नहीं डालते हैं। कुछ परिवारों मे यह चिन्ता अवश्य बनी रहती है कि
बेटी यदि अधिक पढ़ लिख गई तो उसके लियें अधिक पढ़ लिखा वर ढूँढना पड़ेगा,
जो अधिक दहेज़ की माँग कर सकता है। अजीब विडम्बा है ,कि साथ जीवन बिताने के
एक पवित्र रिश्ते का आरंभ ही एक मोल भाव की प्रक्रिया से हो। शायद मै विषय
से थोड़ा भटकी हूँ। आज के युग मे नारी का सरस्वती रूप बहुत निखरा है। हर
क्षेत्र मे नारी ने अपने क़दम रखे हैं शिक्षा के क्षेत्र मे हर ऊँचाई को
छुआ है। व्यवसाय हो या नोकरी हर जगह नारी ने पुरुष से कम नाम नहीं कमाया
है। खेलकूद हो, ,सेना हो, पर्वतारोहण हो, विमान चालक हो या फिर अंतिरिक्ष
हो नारी ने अपनी उपस्थिति सब जगह दर्ज कराई है। सरस्वती रूप मे आज नारी का
स्थान पुरुष से कम नहीं है।
नारी के सरस्वती रूप के विकास के साथ उसकी धनोपार्जन की क्षमता भी बढी और
उसका लक्ष्मी रूप भी उजागर हुआ, फिर भी नारी ने स्वयं को सक्षम नहीं समझा,,
पुरुष ने भी उसे पूरी तरह बराबरी का दर्जा नहीं दिया उसे अबला ही समझा जाता
रहा अन्यथा जगह जगह महिलाओं को छूट या आरक्षण देने का क्या औचित्य है।
बस और मैट्रो मे ही नहीं संसद मे भी महिलाओं को आरक्षण चाहिये। क्या
महिलाय़ें सक्षम नहीं हैं, या अपनी रक्षा नहीं कर सकतीं ? आयकर मे भी पुरुष
के मुक़ाबले उन्हे अधक छूट क्यों मिलती है ,जबकि पैतृक समाज मे परिवार की
आर्थिक सुरक्षा की ज़िम्मेदारी पुरुष की ही मानी जाती है। स्त्री की भूमिका
आमतौर पर सहयोग देने की ही होती है।
केवल लड़कियों के लियें बहुत से महाविदयालय होते हैं, पर किसी संस्था के
दरवाज़े उनके लियें बन्द नहीं हैं। ज़ाहिर है कि लड़कियों के लियें लड़कों
की अपेक्षा अधिक सीटें उपलब्ध होती हैं ,तब भी अनेक महाविद्यालय उन्हें 5-7
प्रतिशत की छूट कयों देते हैं ? लड़कियाँ अपनी योग्यता के बल पर आगे बढ
सकती हैं, और बढ रही हैं ये बेमतलब के आरक्षण और छूट का कोई वाजिब आधार
नहीं है। ठीक है, कभी नारी का शोषण हुआ था पर उसका ये मतलब तो नहीं है कि
अब उसे पुरुष का हक़ छीनना चाहिये। लड़कियों ने जब धनोपार्जन के लियें घर
से बाहर क़दम रखा तो निश्चय ही पुरुष के लियें रोज़गार के अवसर कम हो गये
पर उसने न आरक्षण की माँग की न विचिलित हुआ। उसके स्वाभिमान ने उसे ऐसा
करने ही नहीं दिया।
नारी ने अपने दुर्गा रूप को पहचानने की कोशिश ही नहीं की इसलियें वह हमेशा
ख़ुद को पुरुष के बिना अधूरा समझती रही। कन्या भ्रूण हत्या की वजह दहेज़
प्रथा है, यदि हर लडकी आत्मनिर्भर हो और सोच ले कि विवाह हो या न हो पर
दहेज़ के लालची लोगों के आगे वो और उसके माता पिता कभी सर नहीं झुकायेंगे
तो कन्या भ्रूणहत्या अपने आप समाप्त हो जायेगी।
नारी को अपनी क्षमताओं पर भरोसा होना चाहिये। उसे हर रिश्ते का सम्मान करना
चाहिये पर अपने व्यक्तितव को केवल बलिदान की प्रतिमूर्ति नहीं बनने देना
चाहिये। अपने हक़ के लियें लडें, पर दूसरे का हक़ छीनने की कोशिश कभी न
करें। नारी मुक्ति के फिज़ूल के नारे लगाकर अपने कर्तव्यों से विमुख न हों।
शालीन बने रहकर भी दृढ रहा जा सकता है।
अपने सरस्वती और लक्ष्मी स्वरूप के साथ अपने दुर्गा रूप को भी पहचाने,
,नारी कोमल अवश्य है पर समय आने पर शक्ति का भी प्रदर्शन कर सकती है।
ना मै अबला, ना केवल श्रद्धा मै ही लक्ष्मी मै ही सरस्वती और दुर्गा बनकर
जियूंगी।
- बीनू भटनागर