असमीया कहानी
लेखिकाः अनुराधा
शर्मा पुजारी
एक असामाजिक कवि की बायोग्राफी
अनुवादकः नागेन्द्र शर्मा
कभी कभी किसी ब्यक्ति के प्रति एक ऐसी ‘कंक्रीट’ धारणा बन जाती है कि उसके खिलाफ
कुछ भी कहे जाने पर यकीन नही होता। बल्कि यह कहना पङता है – ‘अरे ! वह ?’ ना ना, वह
ऐसा काम कर ही नहीं सकता।
: तुम्हारी लेकिन वह बङी बुराई कर रहा था।
: पर मै यकीन नहीं करती।
: उस पर इतना भरोसा !
: भरोसा है इसीलिए तो पूरे यकीन के साथ कह रही हूं।
: करो भरोसा, लेकिन एक दिन सब कुछ खुद समझ जाओगी।
इसके बावजूद भी यकीन नहीं हो रहा। ‘अमुक आदमी कम से कम इतना बुरा नहीं हो
सकता’... कभी कभी इस तरह की धारणा इतनी दृढ हो जाती है कि उसको बदल पाना बङा
मुश्किल होता है। कौशिक बऱुआ के प्रति भी ठीक ऐसी ही मेरी धारणा बङी दृढ थी। यही कि
वह है मेधावी उच्च पदस्थ अफसर पर निरअंहकारी,सत्यवादी, परोपकारी इत्यादि इत्यादि।
उसके प्रति इस तरह की धारणा कोई हठात् हुई धारणा नहीं है। इसके बीज तो बचपन मे ही
बोये जा चुके थे। आइए इसको जरा अतीत के झरोके से देखें।
शहर की प्रथम अंग्रेजी माध्यम की स्कूल मे जब मेरा दाखिला कराया गया उस समय मेरी
उम्र कोई तीन या चार साल की रही होगी और उस समय पूर्णतः युवा कौशिक बरुआ हमारे पास
ही के एक कॉलेज मे अंग्रेजी के अध्यापक के रुप मे नियुक्त थे। स्वभाव से बङे ही
चंचल और बेपरवाह। मौके बेमौके बात बात मे अंग्रेजी झाङना। चूंकि मेरा दाखिला
कॉनवेंट मे किया गया था और इसलिए मेरी अंग्रेजी पर ध्यान देने का उनसे विशेष अनुरोध
किया गया था। अतः बङे खुश हो कर उन्होने यह दायित्व अपने कंधों पर ले लिया।
अंग्रेजी का उच्चारण सिखाने के मकसद से मुझे अपने कंधो पर बैठा कर उछले कूदते
गाते---पुसी कैट,पुसी कैट,व्हैर हैव यू बीन ? ऐसा करते समय वे कमर तक बिल्ली की तरह
झुक जाते और बीच बीच मे ‘म्याउँ, म्याउँ’ भी बोलते जाते। इस तरह बिल्ली और आदमी के
से खेल के बीच मेरा पढना लिखना चलता रहता। मुझे याद है मेरी छ साल की उम्र तक वे
मझे दौङा दौङा कर खेलाते रहते और इस तरह वे मुझे अपने बंधु-बांधवियों से भी अधिक
प्रिय लगने लगे। यहां तक कि घर के दूसरों की कोई बात कभी यदि नहीं भी मानती तो इनका
कहना मान लिया करती। यह सिलसिला छ साल की उम्र तक ही चला। एक दिन उन्होने मुझे
बतलाया कि उनको सरकार की अच्छी नोकरी मिली है इसलिए यह शहर छौङ कर जाना होगा। सुन
कर मेरा तो जैसे दिल ही टूट गया। उनकी विदाई वाले दिन मै एक कमरे मे बैठ कर सिसक
सिसक कर रोने लगी। उन्होने मुझे अपनी गोद मे लेकर पुचकारते हुए कहा था – पगली कहीं
की, इस तरह नही रोते। मै तुमसे मिलने तो आता ही रहूंगा। तुम खूब अच्छी बनना, मन लगा
कर पढना। एक दिन तुम खूब नाम कमाओगी और लोगबाग तुम्हारी जब चर्चा करेंगे तो मै
कहूंगा- देखो, यह मेरी लाडो है। इसको मैने अपनी गोद मे ले कर पढाया था। भला, यह
अच्छी क्यों नही होगी।
इसके बाद तो एक लंबा अरसा गुजर गया। मै कभी कोई बदमाशी कर बैठती तो मां कहा करती-
तुम्हारे कौशिक मामा को आने दो। तुम जितनी नाजायज हरकत करती हो उन सबके बारे मे मै
उन्हे सब कुछ बतला दूंगी। यह सुन कर तो मै जैसे सहम सी जाती। क्योकि मै कम से कम
कौशिक मामा की नजरों से गिरना नही चाहती थी। कोई काम करने के पहले ही सोच लेती कि
कहीं मामा को इसमे कोई बुराई तो नजर नहीं आजायेगी अथवा मुझसे नाराज तो नहीं हो
जायेगे। कुल मिला कर मै कौशिक मामा के रुप मे ही अपने आपको ढालने की कोशिश करती
रहती।
एक दिन मामा का खत आया। शादी है कौशिक मामा की। सोचने लगी क्या मामा की नव वधु उनके
समान ही सुन्दर होगी। क्या उतनी भली होगी जितने भले मामा हैं ? क्या मुझे इतना
प्यार करेगी जितना मामा करते थे ? शादी मे जाने की इच्छा होते हुए भी नही जा सकी।
एक दिन मामा स्वयं अपनी नववधु के साथ आ पहूंचे। स्वभाव मे कोई परिवर्तन नहीं। बस
आते ही शुरु करदी अपनी वही पुरानी मटरगस्ती। मेरी उम्र कुछ बढ गई थी, वही कोई लगभग
सात साल। पर मामा को क्या फरक पङने वाला था। दोनो बाजू पकङ कर लगे मझे घुमाने। बङे
प्यार से मेरा चुमा और अपनी नववधु की ओर मुङ कर कहा- “यह है मेरी लाडो। हैरत है
सिर्फ डेढ साल भर मे इतनी लम्बी हो गई और यह चपटी नाक वाली छोकरी देख रहा हूं कुछ
शर्मीली भी हो गई है”। यह कहते हुए मामा ने मेरा नाक भी खींच डाला। मामी अपने साथ
मेरे लिए एक नई फ्रॉक लेकर आई थी। मझे बङे प्यार से पहनाया। मुझे बङी प्यारी लगी
मामी। मेरे प्रति मामी के इतने प्यार को महसूस कर मझे लगा, कौशिक मामा की नववधु
मेरी मामी बहुत अच्छी है और सुन्दर भी। इस खुशनुमा वातारण के बीच चार पांच घंटे
कैसे बीत गये कुछ पता ही नहीं चला। कुछ देर बाद मामी को ले कर कौशिक मामा चले गये।
लेकिन जाते जाते अपनी अंग्रेजी झाङना नही भूले और कहा- बी अ ओनेस्ट, बी अ गुड गर्ल,
राईट। अंग्रजी भाषा के प्रति कौशिक बरुआ की दुर्बलता हमेशा से रही है। जो बात अपनी
मातृभाषा मे वे जितनी अच्छी तरह से कह देते उसी को उतनी ही अच्छी तरह से वे
अंग्रेजी मे कह सकते थे। उसी मे उनको एक जैसे सुकून मिलता था।
इसके बाद तो लगभग पांच साल तक कौशिक बरुआ से कोई मुलाकात ही नहीं हुई। पत्राचार भी
थोङे दिनो तक पिताजी के साथ होते रहे। उन पत्रों मे मेरे लिए महान पुरुषो की वाणी
या कोई सुभाषित के अलावा और कुछ नही रहता था। मै अब कैशोर्य़ से यौवन की देहलीज तक
पहूंच चुकी थी। लेकिन फिर भी कौशिक मामा के आदर्शपूर्ण जीवन से मुझे प्रेरणा हमेशा
मिलती रही। जिस सदभाव के साथ वे मुझे जो नैतिक शिक्षा दिया करते थे मै उन्हे कभी
भूल नही सकी। कौशिक बरुआ के प्रति सदभावो और विचारों के साथ और कुछ साल गुजरते गये।
उसके बाद तो पत्राचार भी बंद हो गया। फिर एक अरसे के बाद यह खबर भी आई कि कौशिक
बरुआ का अपना एक बेटा और एक बेटी है। खबर पाकर एक बार यह ख्याल भी आया कि अपना
बेटा-बेटी पा कर कौशिक मामा मुझे एक दम से भुला बैठे। थोङी ईर्षा थोङी जलन भी हुई।
लेकिन यह ईर्षा भाव मुझे उचित नहीं लगा और अपने आप ही मुझे अपराधबोध होने लगा। सोचा
कौशिक मामा के बेटे बेटी के लिए मेरे मन मे ईर्षा का भाव जागना सरासर गलत है। य़दि
कौशिक मामा को यह मालुम हो जाये तो वे मेरे बारे मे क्या सोचेगे। एक दिन न जाने
किसने कहा—अरे ! कौशिक बरुआ ? उसका तो एक बहुत बङा ‘स्कैण्डल’ हाल ही मे सामने आया
है। मुझे थाङी सी हैरानी तो जरुर हुई। ‘स्कैण्डल’ और वह भी कौशिक बरुआ को ले कर।
नहीं नहीं ऐसा नही हो सकता। हजार हजार मुखों से भी यह बात निकले तो भी मै यकीन नहीं
कर सकती। कौशिश बरुआ के प्रति मेरे दृढ विश्वाश के सामने वह चुप हो गया।
एक बार किसी एक विवाह के मौके पर अकस्मात कौशिक बरुआ से मुलाकात हो गई। अचानक मुझे
वहां देख कर उन्हे यकीन ही नही हो रहा था। आँखे फैला कर बङी हैरत के साथ बोले—अरे !
तुम और यहाँ। फिर वही मटरगस्ती। महसूस हुआ मेरे शिशुकाल के कौशिक मामा मेरे सामने
फिर उपस्थित हो गये। अपने स्कूली बेटे, बेटी का मेरे साथ परिचय कराया। मामी भी वहीं
आ गई। आपकी दी गई फ्रॉक मेरे पास अभी तक संभाल कर रखी हुई है।
अच्छा ! आज यदि तुमसे नही मिलती तो मेरे दिल मे वह फ्रॉक पहने छोटी सी लङकी की छवि
ही बनी रहती।
आप काफी कमजोर हो गई हैं। रंग भी सांवला पङ गया।
अरे, पूछो मत बस। फिलहाल जहां रह रहे हैं वहां न कोई संग और न कोई साथ। इस बीच मेरे
दो दो ऑपरेशन भी तो हो गये। गेलब्लाडर और ऐपेन्डाइसिस दोनो रिमूव कर दिया। इन सबके
ऊपर बच्चों को संभालना व देखभाल करना। इनके अलावा घर के ढेर सारे काम। इन सबके चलते
ही तो आज मेरी यह हालत हो गई है।
मैने जानबूझ कर बात आगे नही बढाई। लेकिन कहने को जी चाह रहा था कि मामा की दुल्हन
के रुप मे जो आपका सुन्दर चेहरा था उसकी याद आज भी ताजा है। तुम्हारे शरीर से रह रह
कर आने वाली केतकी फूल की खुशबू आज भी मेरे नाक के पास महसूस हो रही है। मामा ने
सबके सामने तुम्हारे दोनो बाजुओं को थाम कर तुम्हारा परिचय कराते हुए जब यह कहा-
‘माई ओनली वाइफ’ तो उस समय आपके दोनो गालों पर आसमान मे उगते सूरज के प्रभात की
लाली छा गई थी। मामा के हाथों को अपने बाजुओं से हटाते समय आपकी चूङियों की खनखनाहट
मुझे आज भी सुनाई पङती है। मै मंत्र मुग्ध सी तुम्हे देखती रही और देखती भी भला
क्यों नहीं। आप कौशिक मामा की नव नवेली दुल्हन जो थी। इस तरह इधर उधर की बाते करते
कराते कौशिक मामा और मामी चले गये। पर मेरे मन पर जैसे कुछ उदासी सी छा गई थी।
सोचने लगी कि समय सबसे पहले आदमी के शरीर पर ही अपना असर क्यों डालने लगता है।
कौशिक मामा यौवनावृत मस्त युवक लग रहे थे। वक्त का साया उनके शरीर के किसी भी अंग
पर दिखलाई नही पङ रहा था। वक्त भी पुरुषों से जैसे डरता है। यह तो अच्छा हुआ मामी
उनके आसपास नहीं थी वरना उसे देख कर कोई भी यह यकीन नहीं करता कि वह कौशिक बरुआ की
पत्नी है। शायद उनका छोटा भाई ही समझता। कौशिक मामा ने उस थोङे से समय मे मेरे पढने
लिखने की पूरी जानकारी लेली। मामा ने मेरे सामने कई विदेशी उपन्यासों का उल्लेख
किया और समझाया कि ब्यापक अध्ययन के लिए यही सही समय है। मामा की मेधावी स्मरण
शक्ति की चर्चा उनके मित्रों के बीच अकसर हुआ करती थी। शायद उन्ही मित्रों मे से
किसी एक ने मामा के किसी स्कैण्डल की बात कही थी। पर आज इस खुशी के मौके पर इस तरह
की चर्चा मैने जानबूझ कर नहीं की। याद नही आ रहा। एक बार किसी ने कहा था कि शत्रु
और मित्र दोनो ही कभी कभी मन को दर्द दे जाते हैं। मै उनकी मित्र हूं और इस खुशनुमा
परिवेश मे यह चर्चा करने पर वे मुझसे सवाल करेगे ‘क्या तुम इस बात पर यकीन कर सकती
हो ? ना, नहीं कर सकती। तो फिर तुम्हारे मन मे यह सवाल उठा ही कैसे ? नहीं यह सवाल
ही नहीं करुगी। लेकिन फिर भी न जाने क्यों पूछने को जी कर रहा था--- “कौशिक मामा,
शायद आप यकीन न भी करें, लेकिन आपका ही एक दोस्त कह रहा था कि.........लेकिन नहीं,
जी चाहने मात्र से ही ऐसा कहना या पूछना अनुचित होगा। कौशिक मामा के साथ हुई इस
मुलाकात के बाद मालुम हुआ कि उनका तबादला होगा। इस बार कछार जायेंगें। अर्थात् बहुत
दूर चले जायेंगे। फिर मुझसे मुलाकात शायद ही हो और वही हुआ। उसके बाद तो किसी कौशिक
बरुआ नाम के किसी आदमी की कोई जानकारी सामने नहीं आई।
इस बीच मेरी औपचारिक शिक्षा भी समाप्त हो चुकी थी और इस बीच मेरे जीवन मे भी एक
पुरुष का भी आगमन हो चुका था और मेरा भी अपना एक संसार हो गया। स्भावत: परिवार भी
बढना ही था। कौशिक मामा की बात एक तरह से मै भूल ही चुकी थी। सिर्फ उनके आचरण और
ब्यवहार का असर मेरे जीवन पर अब भी मौजूद था। जीवन मे अपनी इच्छा-अनिच्छा पर
नियंत्रण बनाये रखना एक तरह से स्वभाव सा बन चुका था।
पंद्रह साल के एक लम्बे अरसे के बाद हमारा भी तबादला अन्य एक शहर मे हो गया। इस शहर
मे नया क्या क्या है इसकी जानकारी लेते समय मेरी एक बांधवी ले मालुम हुआ कि मेरे
सबसे अधिक पसंददीदा एक अभिनेता का घर भी इसी शहर मे है। मेरे लिए यह एक बङा सुखद
आश्चर्य़ था कि अभिनेता ऐशानुव्रत इसी शहर मे रहता है। इतनी छोटी सी उम्र मे ही सिने
जगत मे अपने जीवंत अभिनय से इतनी लोकप्रियता और अभिनय प्रतिभा की मिशाल बहुत कम ही
मिलती है। मात्र एक दो सिनेमा देख कर ही मै उसके अभिनय से अभिभूत हो गई थी और उसका
अभिनय देख कर उसके प्रति मेरी जो आश्चर्यजनक धारणा बनी उसको शब्दो मे बयान नही किया
जा सकता।. ऐशानुव्रत इसी शहर मे रहता है यह जान कर मझे जितना आश्चर्य हुआ उससे भी
कहीं अधिक आश्चर्य़ तो तब हुआ जब मझे यह बतलाया गया कि ऐशानुव्रत कौशिक बरुआ का बेटा
है। हाँ, हाँ मेरे मामा कौशिक बरुआ का लङका और तब मुझे यह समझने मे कोई समय नहीं
लगा कि ऐशानुव्रत इतना प्रतिभावान क्यों है। मैने इसको जीन का चमत्कार ही माना। ऐसे
एक सुखद संयोग के मौके पर कौशिक मामा को एकाएक चमत्कृत करने की जी करने लगा। किसी
तरह उनके फोन नंबर जुटाये और सोचा मामा को एक सरप्राइज दिया जाये।
दिसंबर माह की रात का नो बजे का समय। बाहर रिमझिम रिमझिम बारिश हो रही थी। खाने
पीने के काम से फारिग हो कर ठंडी रात का लुत्फ उठाने का मन बना कर पलंग पर पङी लेप
के अंदर घुसी और पास ही रखे सर्द रात्री के समय शीतल हो चुके फोन का रिसीवर उठा कर
नंबर डायल किया। सोच रही थी कि मामा से बात कहां से और कैसे शुरु करना ठीक होगा।
काफी देर रिंग होने के बाद दूसरी करफ से एक कर्कश सी लगने वाली आवाज आई – हलौ !
जरा मजाक के लहजे मे कहा--- कौन, कौशिक बरुआ ?
यस, एनी डाउट ?
नो डाउट-------- लेकिन क्या आप बता सकते हैं मै कौन हूं ?
तुम--- तुम--- पर तुम्हारी आवाज तो मिलि की आवाज से बिल्कुल नहीं मिलती। मिलि की
आवाज मे थोङी तल्खी रहती है--- बट यू हैव अ सेक्सी वॉयस...प्लीज बतलाओ न कौन हो ?
मै जरा सहम सी गई। न मालुम यह कौशिक बरुआ है या और कोई ?
दूसरी ओर से आने वाली आवाज से शक हुआ और लगा कि यह तो किसी शराबी की आवाज सी लगती
है। क्योंकि कौशिक बरुआ इस बेहूदे ढंग से बात कर ही नही सकते। इस बार डायल किये
नंबर बतला कर मैने सीधा सवाल किया--- क्या आप ऐशानुव्रत के पिता कौशिक बरुआ हैं ?
हाँ, लेकिन तुम ?
क्या गीता मामी आपकी पत्नी नहीं ?
अस.... डेम गीता, हाँ, लेकिन तुम ?
मै--- लाडो..... लेकिन क्या आप कौशिक मामा नही ?
ओह! माई गुड गोड। तुम जहां से बोल रही हो, मुझे मालुम है और मै यह भी जानता हूं कि
तुम इसी शहर मे हो। फोन पर तुम्हारी आवाज मुझे अच्छी लगी। कौशिक मामा की बातें मुझे
कुछ अटपटी सी लगी। दरअसल मैने यों ही खवर करली। ठीक है बाद मे बात करती हूं---
प्लीज,प्लीज फोन मत रखना। जानती हो आज मै कितना अकेला हूं ? प्लीज फोन नहीं रखना।
जानती हो, मैने इस घर मे दस पैग व्हीस्की अकेले ही अब तक पी डाली।
क्यों, मामी ?
ओफ! डेम मामी। जानती हो ? उसी ने मेरा जीवन चौपट कर डाला। आइ’म रुइण्ड, टोटली
रुइण्ड।
पन्द्रह पूर्व देखा मामी का चेहरा एकाएक मेरे सामने आ गया। कुंदनवर्णी चेहरा उस समय
काफी दिनो से बिना साफ किये पीतल के बर्तन जैसा प्रतीत हो रहा था। लेकिन फिर भी
चेहरे पर एक मुस्कान की झलक दिखलाई पङ रही थी। सीधी सरल सी दिखने वाली मामी अचानक
इतनी निर्मम होकर कौशिक मामा जैसे एक ब्यक्ति के जीवन को इस तरह नष्ट कैसे कर सकती
है। मन मे एक उत्सुकता जगी। ऐसा क्या,कुछ और कैसे हो सकता है ? गीता मामी के प्रति
मामा ने फोन पर डायन, विच आदि शब्दों का प्रयोग कर इस तरह क्षोभ ब्यक्त करना शुरु
किया जिसकी कौशिक मामा जैसे ब्यक्ति से कभी अपेक्षा नहीं की जा सकती। क्योंकि
बातचीत और ब्यवहार कुशलता उनके स्वभाव मे हमेशा रही है। कौशिक मामा गीता मामी के
प्रति जिन शब्दों का प्रयोग कर रहे थे उन्हे सुन कर मेरे कानो को विश्वास ही नही हो
रहा था। मामा के इस बदलाव के चलते एकाएक विचार उठा कि कितनी बङी चोट उन्हे लगी
होगी। इस हादसे की वास्तविकता तक गये बिना ही मामी पर बङा गुस्सा आने लगा। आदमी
बाहर से जैसा दिखता है अन्दर से वह वैसा नही भी हो सकता है। मैने फोन पर मामा से
कहा—
मामा, सुनो – आपने कोई बङी चोट झेली है इसको मै समझ सकती हूं और आपको इस तरह शराब
मे डूबा जान कर मझे काफी दुख हुआ है।
मै जानता हूं एक तुम ही हो जो मुझे समझ सकती हो क्योंकि तुम पहले वाली बच्ची नही
रही, काफी मेच्योर हो चुकी हो। तुम्हारे सिवा मेरे मानसिक द्वन्द को समझने वाला
मुझे आज तक कोई मिला ही नही। इस समय फोन कर के तुमने बहुत अच्छा किया ---- आइ’म
ग्रेटफुल टू यू..... क्या भयावह जीवन जी रहा हूं। गीता और बेटी के लिए डिबरुगढ मे
एक घर बनवा दिया। वे दोनो वहीं रहती हैं। मेरा लङका....सिम्पली ही इज जिनियस माई
फर्स्ट चाइल्ड......मेरे नितांत प्रथम यौवन जनित आवेग की सृष्टि। उस रात मेरे मन मे
एक ही भाव था...’आज की रात एक ऐसी संतान का बीज अंकुरित होना चाहिए जो सुन्दरता मे
गीता के जैसा और मेरी तरह मेधाशक्ति सम्पन्न हो। क्या तुमने ‘एलोकिन’ की किताब पढी
है ?
ना, नही पढी।
तब तो बेकार ही इतनी पढाई लिखाई की। सुनो, एलोकिन की पुस्तक ‘द आस्ट्रेलियन
एवोरिजिनस’ पढना। उसमे ‘प्रेमी’ नाम की एक उपजाति के बारे मे लिखा है। अपनी जातीय
प्रथा के अनुसार नारी-पुरुष अपने प्रथम सहवास की रात अपने उपास्य देवता के सामने
सुरापान करते हैं। उसके बाद दीपक की मंद मंद रोशनी मे देवता से अपनी मनचाही संतान
के लिए प्रार्थना करते हैं। फिर देवता की संतुष्टी के लिए ही रति क्रीङा करते हैं।
उस रात दीया जलते जलते यदि अपने आप बुझ जाता है तो मान लिया जाता है कि उनके मनचाही
संतान ही होगी। मैने भी ठीक ऐसा ही किया था।
कुछ अच्छा तो नहीं लगा इन सारी बातों को सुन कर लेकिन कौशिक बरुआ के बारे मे और
अधिक जानने का एक प्रबल कौतुहल जाग उठा। मैने शांत भाव से कहा—
आपको तो मनचाही संतान ही मिली फिर मामी के साथ आज वेदनामयी दूरी क्यों ?
तुम समझ नहीं पा रही हो। शादी के छ साल तक तो सब कुछ ठीक ठाक चला। उसके बाद वह
बराबर बीमार रहने लगी। तीन तीन ऑपरेशन कराये। उसकी तीमारदारी मे मैने कोई कसर नहीं
छोङी। लेकिन इसके बावजूद भी मेरे स्वभाव और चरित्र के प्रति उसे हमेशा शक बना रहता
था। यह सच है कि मुझे नारी का सामिप्य अच्छा लगता है। यह गीता को पसंद नहीं था और
मेरे इस स्वभाव से वह जल भुन जाती और मुझे घर से निकलने तक को मना कर दिया करती। मै
रात को किसी नारी की खोज मे निकल न जाउँ इस शक के मारे वह सारी सारी रात जगी रहती।
पति-पत्नी का सम्पर्क केवल यौन-संबन्धो तक ही सीमित नही रहता, यह बात आप मामी को
समझाने मे शायद असमर्थ रहे अथवा तो आपने मामी को दिली मानसिकता से स्वीकार नही किया
होगा।
अरे, दिल तो उसके पास है ही नही। यदि होता तो वह मुझे समझ नहीं पाती ।
इस बीच काफी पुरानी जान पहचान वाली एक लङकी मिलि से मेरी मुलाकात हो गई। उसका बङा
भाई मेरा सहपाठी था। एक लम्बे अरसे के बाद मिलि से मिलने के बाद मुझे ऐसे लगा जैसे
मैने उसका नये सिरे से आविष्कार किया है। मुझे जैसी नारी की तलाश थी मिलि बिल्कुल
वैसी ही है। हम बराबर मिलते जुलते रहे। इस मिलने जुलने मे एक अनोखे आनंद की अनुभूति
हो रही थी। मिलि की दो बङी लङकी और बिल्कुल निरस और क्षमताहीन पति के साथ था उसका
जीवन संसार। उसने बिना किसी लाग लपट के बेझिझक हो कर अपनी अपेक्षित कल्पनाओं को
मेरे सामने परत दर परत खोल कर रख दिया। मेरी तरह ही वह भी अपने आप मे सिमटे एक अलग
थलग समाज मे निवास कर रही थी। धीरे धीरे हम दोनो अपने अपने दुख-दर्द, कल्पना और
आनंद को शारीरिक सम्पर्क के माध्यम से ब्यक्त करने लगे। मिलि के प्रेम ने मुझे पागल
बना दिया। मिलि तुम्हारे उपन्यास और कहानियों की नायिकाओं की तरह रोमांटिक थी। वह
हमारे तथाकथित समाज के लायक थी ही नहीं। मुझे लगा जैसे मै उसे ‘रोजर वाक’ के ‘लव
जंगल’ मे ले कर चला जाउँ। क्या तुमने कभी ‘लव जंगल’ पढा है।
ना, नही पढा। कभी नाम भी नहीं सुना।
फिर तुमने क्या पढा है ? जिसके बारे मे भी पूछता हूँ, कह देती हो नही पढा। आजकल
बिना कोई किताब पढे ही लोग लेखक लेखिका बन जाते हैं। सुनो, ‘लव जंगल’ मे सब कोई
नंगा रह सकता है। हमारा शरीर ईश्वर का दिया एक दान है। पृथ्वीलोक की श्रेष्ठत्तम
शिल्पकला। इसको ढक कर रखना उचित नहीं। माइकेल एँजल ने ‘डेविड’ को नंगा क्यों किया
था ? --- वेनस नंगा क्यों था ? रेमोब्राँ, सेजान आदि क्या पागल थे ? क्या पीकासो भी
पागल था ? दरअसल एक आदमी ही तो है जो संवेदनशील होता है। आदमी को नग्न करके उसकी
सुन्दरता को देखना हर कोई जानता है। कम से कम मै तो नारी को इसी तरह देखना चाहता
हूँ। तुम्हे जान कर हैरानी होगी कि मिलि की सोच भी यही है.....सो सेनसिटिव,सो
रोमांटिक कि तुम कल्पना भी नही कर सकती। वह अकसर कहा करती....चलो, किसी जनसुन्य
द्वीप पर जहां निःवस्त्र वक्त बिताया जा सके। उसके बारे मे और भी बहुत कुछ बतला
सकता हूँ.....एबाउट हर सेक्स फेन्टासी, एबाउट हर ड्रीम, एबाउट हर लव।
नही....मुझे तो गीता मामी के बारे मे बतलाओ।
ओह---- डेम, तुमने तो मुझे स्वर्ग से एक सङांद वाले गंदे नाले मे ढकेल दिया--- तुम
बात करने का तरीका नही जानती। सोचा था उच्च शिक्षा पा कर तुम मानसिक रुप एक दूसरी
ही दुनिया मे विचरण करोगी.....लेकिन तुम तो प्राचीन दुनिया की निवासी और मोस्ट
बेकवार्ड हो।
एनी वे, सब कुछ जान जाने के बाद गीता एक साधारण औरत की तरह ‘जेलस’ हो उठी। मेरे साथ
झगङा भी किया। मैने कहा—जरा मिलि को देखो, उसके मन मे तो तुमको लेकर कोई जेलस भाव
नही है। यही एक वजह है कि तुम एक साधारण औरत हो और मिलि असाधारण। तुम मुझे जो नही
दे सकती उसको मै किसी अन्य से यदि लेता हूं तो तुम्हे एतराज क्यो है। लेकिन वह
समझती ही नहीं। दोनो बच्चों को ले कर मेरे पुराने घर चली गई। मेरी मां और पिताजी का
भी ‘ब्रेन वास’ कर दिया उसने और अब हाल यह है कि पूरे घर भर मे कोई भी मुझे नही
चाहता। तुम ही बताओ मै गलत कहाँ हूं। मै मिलि के बिना जिंदा नही रह सकता। मुझे हर
तरफ मिली और सिर्फ मिलि ही दिखलाई पङती है। यदि किसी को छूता हूं तो मिलि को।
क्या दोनो बच्चे सब कुछ जानते हैं ?
जानते हैं, मेरा लङका भी जानता है। लेकिन वह अपनी मां की तरह दकियानुसी नहीं,
जिनीयस है। जानती हो वह क्या कहता है..... आप आंटी के साथ शादी कर लें और अलग रहने
लग जायें।
लेकिन मै जहां तक जानती हूं ऐशानुव्रत बहुत छोटी उम्र से ही बहुत ज्यादा शराब पीने
लगा है लङकियो के साथ संसर्ग की बात नही करती लेकिन वह एक उश्रृंखल जीवन जीने लगा
है। एक प्रतिभावान हो कर भी वह इतना नीचे गिरने लगा है, क्या इसके लिए आप अपने आप
को जिम्मेवार नहीं मानते ?
नो, नोट एट ऑल। वह मुझसे हर तरह की बात खुल कर करता है। हम दोनो के बीच तो दोस्ती
का सा रिश्ता है।
अपनी मां के साथ उसके संबन्ध कैसे हैं ?
नोरमल, जैसे मां बेटे के साथ होने चाहिए।
क्या गीता मामी के साथ फिर कभी बातचीत की ?
गीता को तुम क्या समझती हो। मिलि के बारे मे सब कुछ जानने के बाद रोई, चिल्लाई और
बच्चों को ले कर चली गई। उसने और क्या किया मालुम है ? मैने बीच बीच मे जितना
कहानियाँ और कविताएँ लिखी थी उनको फाङ-फूङ कर नाले मे डालते हुए कहा कि ये सब लिख
कर तुम समाज को धोखा दे रहे हो। भले और अच्छे लोगों को एक भुलावे मे डाल रहे हो।
लेकिन मै उसे कैसे समझाता कि वह जिस समाज की बात कर रही है उसे मै कब का छोङ कर
बाहर निकल आया। मै अब सही माने मे कवि हूं जिसके पास आज अपनी कोई कविता नहीं। क्या
कविता लिख कर कोई कवि होने का प्रमाण दे सकता है ? हाउ स्टुपिड !
गीता मामी जब आपके पास है नही तो फिर मिलि के साथ इस तरह का सम्पर्क बनाये रखने का
कोई अर्थ नही है। इसलिए अच्छा होगा कि आप मिलि के साथ एक सार्थक सम्पर्क बना कर
रहो। उसके भाग्यहीन पति को भी मुक्ति मिल जायेगी। हाँ, यह सोच कर दुख जरुर होता है
कि मां होते हुए भी उसकी दोनो बेटियाँ मातृहीना हो जायेगी।
मूल समस्या तो यही है। शुरु शुरु मे मिलि दोनो लङकियों को ही साथ लेकर आ जाने को
तैयार थी। बङी वाली लङकी को कोई एतराज नहीं था पर छोटी लङकी ने मना कर दिया क्योंकि
वह अपने पिता को अकेले छोङना नहीं चाहती थी। लेकिन मिलि को जब मैने बतलाया कि मै
उसकी बङी लङकी के प्रति धीरे धीरे आसक्त होता जा रहा हूं तो वह एका एक डर सी गई। एक
स्वाधीन समाज मे नारी-पुरुष के एक साथ उनमुक्त भाव से रहने की कल्पना करने वाली
मिलि चिल्ला उठी.......यह कैसे संभव है ?
यह सुन कर मै खुद जैसे सांस लेना भूल गई। कौशिक बरुआ के रहस्यमय जीवन की इस विचित्र
धारणा से कुछ समय के लिए मै स्तब्ध रह गई। मै खुद विस्मित हो कर सोचने लगी......
क्या यह संभव है ? क्या ऐसा कभी हो सकता है ?
नशे मे डूबे कौशिक बरुआ धीरे धीरे फिर कहने लगे---- क्या तुम भी मुझे बुरा समझती हो
? यदि सचमुच बुरा समझती हो तो मुझे कुछ नही कहना। हमेशा सोचता हूं अपने दिल की बात
किसी के सामने रख कर अपना जी हल्का करलूं। लकिन यह सोच कर डर जाता हूं कि मेरी
बातें सुन कर मुझे चरित्रहीन समझकर मेरा मजाक बना कर मेरी उपेक्षा न करने लग जायें।
मै तुम्हे भी आगाहा करता हूं कि तुम मुझे भले मार डालना लेकिन मुझे बुरा और
चरित्रहीन न समझ बैठना।
मै यह आज तक नही जान पाया कि मिलि इतनी गैरतमंद कैसे हो सकती है। मेरे एक सुन्दर
संसार की रचना कर और उसमे मुझे एक मकङे की तरह कैद कर आखिर चली क्यो गई। तुम्ही
बतलाओ इसमे मै दोषी कहाँ हूं। पंद्रह साल के एक लम्बे अरसे के बाद इस बीच एक थोङे
समय के लिए दो नारियाँ और भी आई थी। लेकिन मिलि ने कोई आपति नही की। क्योकि मिलि
वैसी थी ही नहीं। हम दोनो का समाज कुछ अलग ही था। एक जाति, धर्म निर्विशेष
नारी-पुरुष वाला समाज। सिर्फ एक ही धर्म था जहां किसी पर किसी प्रकार के दबाव के
लिए कोई स्थान नही था। सबकी तीब्र आकांक्षा मे दोनो की सम्मति से सब कुछ संभव था।
लेकिन इसके बावजूद भी मिलि मेरे जीवन से क्यों चली गई। तुम्ही बतलाओ कि क्या मै कभी
इतना बुरा रहा हूं। मेरी अपनी धारणा है कि मेरी इच्छा-अनिच्छा के साथ तुम्हारी
सहमति नही भी हो सकती है लेकिन इसका यह अर्थ यह तो नही कि तुम अपने आपको तो अच्छी
समझो और मुझे बुरा। मुझे बुरा समझने वाले लोगों के बारे मे यदि यह कहूं कि वे बुरे
और अति नष्ट चरित्र वाले हैं तो ? क्या तुम मुझे बुरा आदमी समझ सकती हो ?
आप ऑनेष्ट हो इसलिए सारी बाते मुझे खुल कर बतला पा रहे हैं।
तुम यकीन करो, मै बहुत सी पत्र पत्रिकओं मे नर-नारी के यौन जीवन की आधुनिक समस्याओं
के विषयों पर लिखना चाहता हूं --- लेकिन उन्हे अश्लील समझ कर कोई छापना ही नही
चाहता। जानती हो, नवोकेव को छद्म नाम से ही बहुत कुछ लिखना पङा था। ‘दी सिरीन’ नाम
से उसने ऐसा कुछ लिखा कि पाठकों ने केवल चाव से पढा ही नही बल्कि उनको निगलना कहा
भी जाये तो शायद अतिशयोक्ति नही होगी। क्योकि पाठकों को जीवन की सच्चाई के बारे मे
कोई ज्ञान ही नही था। नवोकेव के ‘बैड सिनिस्टर’ और ‘निन’ दो उपन्यास बहुत लोकप्रिय
हुए हैँ। क्या इनको तुमने पढा है ?
ना, नही पढा।
और ललिता ‘ललिता’ ?
हाँ, उसे पढा है.।
यह मै जानता हूँ तुमने ललिता को अवश्य पढा होगा। जिस उपन्यास ललिता पर अश्लीलता का
दोषारोपण कर फांस ने उस पर प्रतिबंध लगा दिया था उसी ललिता को ‘सिसागो ट्रब्युन’ ने
इतनी मर्यादा और सुयोग्यता के साथ छापा कि उसके खिलाफ लिखी जाने वाली कटु समाचोलना
को अपने प्रकाशन मे कोई स्थान ही नही दिया। लेकिन याद रखना सजीव और वस्तुनिष्ठ पाठक
जो होते हैं वे सत्य को ग्रहण करते हैं। हमवर्ट नामक मध्यवर्षीय लेखक के पुरुष
पात्र कैशौरी उम्र के पात्रो के बीच ही सीमावद्ध रहे और नवकेव ने स्वयं इसका अनुभव
भी किया और इस तरह के अनेक पुरुषों के साथ वे मिले भी। उसने अपने पूरे मन प्राण ढाल
कर हमहर्ट के प्रेम और वेदना का सजीव चित्र पेश करते हुए एक पुस्तक लिख कर बङे दुख
के साथ कहा था – “मै अपनी मातृभाषा रसिया मे यह नही लिख पाता और इसीलिए अंग्रेजी मे
लिखा। इसके लिए मझे बङा दुख भी है जिसको मै ब्यक्त नहीं कर सकता”।
हर आदमी की एक गोपनीय इच्छा रहती है। पापात्मा का एक प्रकाश भी उसे प्रकाशित करता
रहता है। इस प्रकाश को पहचानने मे जो असफल होता है उसे ही चरित्रहीन की संज्ञा दी
जाती है। इसलिए मै तुम्हे भी यही कहना चाहूंगी कि अपने गोपनीय प्रकाश को जहां तहां
ब्यक्त मत किया करो—यदि ऐसा करोगे तो रातों रात चरित्रहीन बन जाओगे।
तुम केवल पुरुष के बारे मे ही क्यों सोच रही हो ? तुम्हारी गीता मामी की भी कभी ऐसी
इच्छा रही है, क्या कभी तुमने कभी उससे पूछा है ?
यह कह कर वह बङे विकृत और एक ब्यंग जनित हंसी हंसने लगे और कहा......
क्या तम यह भी नही जानती कि साधारण नारी की कोई गोपनीयता नहीं रहती ? वह सिर्फ और
सिर्फ पतिव्रता ही बना रहना चाहती है। उसके सामने अपना स्वामी ही सब कुछ है।
लेकिन गीता मामी का दोष क्या था ?
दोष ? अरे, वह बिलकुल साधारण नारी मात्र थी। उसने सोचा था कि मै किसी असाध्य यौनरोग
से ग्रस्त हो कर रास्ते का भिखारी हो जाउँगा और तब वह लोगो को मेरी तरफ इशारा करके
मेरी हंसी उङाते हुए कह पायेगी ..... वह देखो एक भंड और लम्पट उच्च पदस्त अधिकारी
कवि। लकिन मै इस तरह कहीं बदनाम नहीं हूं। हाँ, शराब जरुर पीता हूं और नशे के कारण
कभी कभी ऑफिस भी नहीं जा पाता हूं तथा नशे मे कभी कभई रास्ते मे भी गिरा रहता हूं।
एक शराबी के रुप मे मेरी बदनामी जरुर है। इसके अलावा कहीं भी किसी तरह बदनाम नहीं
हूं। मिलि के चले जाने के बाद मै अकेला हो गया। दरअसल मेरे अठ्ठावन वर्षीय
सुस्वास्थ को देख कर पचास वर्षीय मिलि को भी जलन होने लगी थी। मेरे पन्द्रह वर्षीय
जीवन सम्पर्क को वह सिर्फ अपनी बङी लङकी की सुरक्षा के खातिर मुझे अकेला छोङ कर एक
झटके मे एक साधारण नारी मे ऱुपान्तरित हो कर मेरे जीवन से चली गई। लेकिन मैने अपने
बच्चों को कोई सुरक्षा देने की कोई कोशिश नही की। कितना अकेला हो गयाहूं मै। मेरे
बच्चे आजकल मेर पास क्यों नहं आते ? मेरा इसमे दोष क्या था ? बतलाओ मेरा दोष कहां
है ? इतना कह कर वह फूट फूट कर रोने लगा। बाहर हो रही वर्षा की बूंदे उसके आंसू रुप
मे जैसे मै फोन पर साफ महसूस कर रही थी। कभी कभी पुरुष का रोना पाषाण हृदया नारी को
भी विचलित कर देता है।
कितना विष्मयकारी समय था वह। कहां खो गया वह लम्बा पर दुबला पतला और मोटी फ्रेम का
चश्मा पहने और हमेशा मधुर मुस्कान से खिले चेहरे वाला मेधावी कौशिक बरुआ। आज वह
कितने भयानक जीवन भंवर मे फंसा पङा है। एक उँचे ओहदे वाली नोकरी, कोई आर्थिक अभाव
नही, एक प्रतिभा सम्पन्न पुत्र का भाग्यवान पिता और रुप गुण से सम्पन्न मेधावी
पुत्री और मामी। क्या वह अपने प्रछन्न विषाद को लिए विचरण करता रहा। अपने कान पर
रीसिवर लगाये अठ्ठावन-उनसठ वर्षीय कौशिक नाम के एक पुरुष का करुण रौदन। क्या ऐसा भी
होता है।
तुम बताओ, क्या तुम भी मझे बुरा समझती हो ? मेरे बारे मे तुम्हारे कुछ भी विचार हों
लेकिन मुझे कम से कम तुम बुरा आदमी नही समझना। मै बुरा नही हूं। मुझे उस समय बङा डर
लगता है जब लगता है कि कोई मुझे बुरा आदमी मान रहा है। मै चाहता तो वैश्यालय भी जा
सकता था पर नहीं गया--- बिना सोचे समझे ऱुपैये पैसे का लेन देन सब कुछ....... लेकिन
नही किया क्योकि मुझे यह पसंद ही नही था। क्या मै तुम्हे ठीक ठीक समझा पा रहा हूं
या नहीं। शरीर सुन्दर सुगढ है या नही इसका कोई महत्व नहीं। लेकिन उसमे एक स्पन्दन
होना जरुरी है। मेरे कहने का अर्थ है शरीर से एक कविता निर्गत होनी चाहिए। यकीन
करो, मिलि ठीक वैसी ही थी। छौटे से कद की, थोङी मोटी औऱ नाक सहज नाक की साइज से
थोङा लम्बा। मिलि को देख कर शायद तुम यह सोच सकती हो कि इसी मिलि के लिए मै इतना
पागल हो गया ? लेकिन मै तुम्हे कैसे समझाउँ........ सी इज वण्डरफुल--- और उसकी लडकी
बातचीत, ब्यवहार आदि सब तरह से जैसे छोटी मिलि। ऐसे मे यदि मिलि की लङकी से यदि
मुझे प्यार हो जाता है तो मै गलत कहां हूं। मिलि मेरे जीवन से चली गई और मै कितने
दिन शराब पीता रहूंगा। इनसोमेनिया के कारण मेरी आंखो के नीचे कालिख जम गई। आज कल
मेरे हाथ पैर कांपने लगे हैं। क्या मै बुढा हो गया हूं ? क्या मै क्षमताहीन हो
जाउँगा। तुम्हे तो अच्छी तरह मालुम है कि मै शैक्सपीयर, वाइरन, टैनिसन आदि मे जीवन
भर आकंठ डूबा रहा। मेरे से कब और किन लङकों ने अंग्रेजी पढ कर प्रथम श्रेणी प्राप्त
की है। इन लङकों की मेरे प्रति श्रद्धा मात्र है। इनको मेरे जीवन की गुत्थियों की
भयावता के बारे मे शायद जानकारी है और इस डर से मै इन्हे अपने घर आने नही देता।
लङकियों के लिए तो बिल्कुल ही आने की अनुमति नही देता। डरता हूं मेरी दुर्बलता कहीं
ब्यक्त न हो जाये। लङकियाँ वास्तव मे सुन्दर होती है.... पृथ्वी पर यदि नारी न होती
तो यह संसार ही एक मरुस्थल बन जाता। तुम भी तो एक नारी हो.... इसीलिए शायद मेने
अपने जीवन की वासना का एक एक पृष्ठ को पढ कर सुना दिया। तुम मुझे गलत न समझना, मैने
अपनी स्त्री, लङकी और लङके को भी यह सारी अपनी ब्यथा कथा सुनाई है..... टेलीफोन के
तार के माध्यम से एक अब्यक्त भावानुभूति जैसे मेरा स्पर्ष कर गई। प्रसंग बदलने के
मकसद से मैने कहा---
गीता भी तो एक नारी है, इसे क्यों भूल जाते हैं।
यह सुन कर कौशिक बरुआ क्रोध से जैसे पागल हो उठे। लगभग चिल्लाते हुए कहा---
वह नारी है ही नही। कृपया उसे नारी कह कर मत पुकारो। वह एक डायन है—जानती हो वह
मेरा क्या कह कर तिरस्कार करती है--- भ्रष्ट चरित्र वाला पुरुष, महापापी,
परकिति(परस्त्रीगामी), लम्पट बुढ्ढा इत्यादि। ऐसा कोई भी नारी नहीं कह सकती। इसी
तिरस्कार के कारण मै मिलि के साथ रहने लगा। लेकिन मिलि क्यों चली गई ? क्यों मेरे
साथ उसने एक स्वर्गमय आनंद की कल्पना की थी ? वह कहा करती थी--- हम एक ऐसा सांसारिक
जीवन निर्वाह करेंगे जहां हर नारी-पुरुष को पूर्ण स्वाधीनता हो। हमारे पारस्परिक
पारिवारिक संगी अलग अलग होते हुए भी हमारे बीच ईर्षा का कोई स्थान नहीं होगा। हमारे
होने वाले बच्चे सबके बच्चे होंगे और हम सब उनके माता पिता। जरा सोचो, मिलि की तरह
अन्य कोई कर सकता है ऐसी मुक्त कल्पना ? ना, नहीं कर सकता। इसीलिए मिलि को मेरे
जीवन से नहीं निकाल पाया।.
सुना है गीता आजकल एक मोन्टेसरी स्कूल मे मास्टरनी है और वह भी छोटे छोटे बच्चों
की। यह जान कर मुझे बङी हंसी आती है। पिछले दस साल से उसने मेरे साथ कोई सम्पर्क
नहीं रखा। एक मामूली सी साधारण स्त्री इतना गुमान। वह शायद मुझे इसी तरह मरते देखना
चाहती है। उसे शायद मालुम नहीं उसके समाज को मै कब का छोङ चुका। ऐसे समाज मे वह
रहना चाहती होगी मै नहीं। जानता हूं मेरे मरने से ही उसे चैन मिलेगी---- Now the
poet cannot die, nor leave his music as of old, but round him ere he scarce he
could begin the scandl and the cry ----क्या टेनीसन ने यह यों ही कहा था ? मै बीच
बीच मे अब भी कविता लिखता हूं। एक नये जीवन की खोज करने के कारण अपनी पत्नी से मुझे
एक पापी और चरित्रहीन की संज्ञा मिल गई। लेकिन कवि क्या कभी मरता है ? मै भी तो एक
शिल्पी हूं। क्या शिल्पी की कभी मौत होती है ?
एक काम करो। तुम मेरी एक ऑटोबायोग्राफी लिखो। लेकिन उसे एक स्वर दे कर गा सको तो
लिखना। रो रो कर और गा गा कर गुनगुनाते हुए लिखना और बार बार पढना। लेकिन पढोगी
कहाँ ? क्योंकि मै तो तुम्हारे समाज मे नही हूं।
अच्छा, तुम्हारा भी कोई प्रेमी है ?
मेरा, आप कहना क्या चाहते हैं।
यही तो, तुम भी उसी समाज मे रहती हो। तुम्हारा कोई प्रेमी हो सकता है शायद न भी हो।
लेकिन द्विधा मे हो। तुम्हारा समाज भय, द्विधा और संकोच के बीच जकङा समाज है। इसलिए
तुम भागती फिरती हो। इसलिए तुम्हे यह पूछना ब्यर्थ है कि तुम्हारा भी कोई प्रेमी
है। क्योंकि तुम सच नही बोल पाओगी।
अब आप सो जायें, रात बहुत हो चुकी है।
तो क्या हुआ ? इसका अर्थ यह हुआ कि तुम भी मुझसे भागना चाहती हो। तुम्हे भी शायद ‘
डिस्युलेश हो गया। एक अच्छा आदमी तुम्हारी नजर मे भी चरित्रहीन हो गया। ठीक है तुम
सब तोग मिल कर मुझे सजा दो। मेरी मौत के लिए तुम सब अधीर हो कर अपेक्षारत हो---you
kill me, kill me…
इसके बाद कौशिक बरुआ ने ‘किल मी’ शब्द को पहले कविता की तरह और उसके बाद सिसक सिसक
कर गाना शुरु कर दिया। फोन का रिसिवर रख कर मैने लाइन काट दी। बाहर वर्षा कम नही
हुई थी। लेकिन कौशिक बरुआ का सस्वर किल मी गाया जाना मेरे कानो मे अब भी बज रहा था।
गीता मामी की दीर्घकालीन निरवता कौशिक बरुआ के लिए एक बङी सजा बन कर रह गई। सब कुछ
सहन किया जा सकता है लेकिन अपनो के द्वारा की गई उपेक्षा सहन नहीं होती। मामी को यह
कहने का जी कर रहा था--- कौशिक बरुआ के लिए अब अन्य कोई सजा की आवश्यकता नहीं रही।
-------- परिशिष्ट--------
कौशिक बरुआ के बारे मे जितनी बार सोचती उतनी ही बार एक मूक क्रंदन से मेरा
कंठरुद्ध हो जाता। बचपन मे हमारे शहर से सरकारी नोकरी के लिए विदा करते समय जो
क्रंदन था आज भी कुछ वैसा ही क्रंदन हृदय मे आ जा रहा था। जीवन भर जिसके सुवाक्य
मुझे अपनी संकट्टापन्न और आवेगिक स्थिति मे सहारा देते रहे आज विपन्नता मे जल कर
राख हुआ उनका जीवन जैसे मुझे करुण अनुरोध कर रहा था----मेरी बायोग्राफी लिखो।
कौशिक बरुआ के पुराने और आज के जीवन मे मात्र एक ही समानता नजर आ रही है और वह है
उनकी सज्जनता और साफगोई। अपना कुछ भी छुपा कर नहीं रखा। अच्छा हो या बुरा उन्होने
जो भी किया वह सब कुछ अपनी स्त्री और बच्चों के सामने ज्यो का त्यों रख दिया। अन्य
सामाजिक लोगों की तरह वे भी बङी चतुराई के साथ एक सुखी स्वामी और पिता बने रह कर
साफ सुथरा सामाजिक जीवन आराम से बिता सकते थे। कौशिक बरुआ को सामाजिक वितृष्णा से
बचाने के लिए इस कथन के अतिरिक् मेरे पास दूसरी कोई दलील नही है। फिर भी कौशिक बरुआ
ने मुझसे जैसे बार बार पूछा था.... आज मै भी यह जानना चाहती हूं----- आखिर कौशिक
बरुआ का कसूर क्या था।
---समाप्त---