‘मोहन सतसई’ काव्यविधा के अन्तर्गत राष्ट्रीय और सांस्कृतिक ओज मेे
खोजपूर्ण तथ्यों एवं प्रयोगधर्मी रचनाओं के प्रतिपादक, उत्कृट
चिन्तन-चरित्र केे धनी और वस्तुतः अग्निधर्मा कवि सारस्वत मोहन ‘मनीषी’ की
बारहवीं कृति और तीसरी सतसई है जिसमें कवि की विराट् मनीषा के बहुआयामी
फलकों का उद्दाम प्राकट्य परिलक्षित होता है। चौबीस शीर्षकों में विभक्त
सभी 777 दोहे भाषा और शिल्प की दृष्टि से सामान्य होते हुए भी अपने में
असामान्य शिष्ट वैशिष्ट्य लिए हृए हैं।
गीता के सारतत्व के निरूपण के पश्चात् उसके उपदेष्टा के बारे में कवि का मत
‘धर्म स्थापना हित तपे, तुम जीवन पर्यन्त। कृष्ण! न तुम-सा दूसरा, राजनीति
में सन्त।’, ‘मोहन मोहन सब रटें, मोहन बनता कौन। मोहन बन खुद तोड़ दे, युग
का बोझिल मौन।’ के साथ-साथ गोबध सम्बन्धी ‘जो गैया को मारते, नीच बहाते
खून। उनकी सन्तति बेचती, ठिठुर-ठिठुर कर ऊन।’और ‘सुख विशेष ही स्वर्ग है,
दुख विशेष ही नर्क। रक्त सभी का लाल है, तासीरों में फर्क।’ में कवि के
कथ्य की विचक्षणता और विलक्षणता दोनो का ही स्पष्ट दिग्दर्शन होता है।
चिन्ता और चिता की डाँडामेड़ी में ‘चिता’ यदि कवि को ‘ज़रा सी छाँव’ प्रतीत
होती है तो उसके सापेक्ष ‘चिन्ता’ कभी तो उसे ‘जलती धूप’ तो कभी ‘बिफरी
गाय’, कभी ‘भूखी शेरनी’ तो कभी ‘घायल नागिन’ और कभी-कभी ‘उड़ता हुआ नाग’ भी
प्रतीत होती है।दूसरी ओर चिन्ता व चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में कवि केा
‘चिन्तन’ कभी ‘कवच-कुण्डल सरिस सच्चा यार’ और कभी ‘बिगड़े काम बनाने वाला
जुगाड़़’ लगता हैै। कभी चिन्ता उसे ‘पागल पूतना’ तो चिन्तन उसकी छाती पर
चढ़कर उसके विष को चूसने वाला ‘गोपाल’ इृष्टिगत होता है। चिन्ता मंे यदि कभी
उसे दशशीश वाला रावण दिखायी देता है तो चिन्तन में कवि को श्रीराम दीखते
हैं।
कवि सोच के वैराट्य में यदि दहेज के दावानल में दहती दुहिताओं की दीनता और
उनके परिजनों की पीड़ा समाहित है तो पर्यावरणीय संतुलन बनाये रखने में
महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले जटायु-सरीखे सन्त-वृक्षों के कटान को लेकर
उसकी जागृत संवेदनाएँ भी सन्निहित हैं। समग्र मानव-समाज को जाति-पाँति में
बाँटकर अपना साम्राज्य बढ़ाने वाले काले अंग्रेजों के राजनैतिक कौट्य के
वक्ष भी कवि ने मसिधार वाली अपनी लेखनी की नोंक से विदारे हें। उसने ‘छप्पर
फाड़कर देने’ और ‘थप्पड़ मारकर छीन लेने’ वाली प्रकृति की असंख्य्रबाहुता और
शाश्वत विधान की चिरन्तनता का आभास भी लुंज-पुंज-से बैठे ‘अशरफुलमख़लूकात’
को कराया है। जन-सेवा और अध्यात्म के क्षेत्र में बढ़ती विद्रूपताओं के दंश
और क्षेाभ प्रकट करने का कवि का अपना एक अलग ही प्रकार, अलग ही शैली है।
कैसे, इसके लिए दृष्टव्य है एक झलक-‘नेता अभिनेता हुए, साँपों के भी बाप।
पढ़े-लिखों को हाँकते, निपट अँगूठा छाप।’,‘मठ आश्रम बनने लगे, पंजीकृत नव
न्यास। सँाप बन गये नेवले, ले नकली सन्यास।’,‘अपनी-अपनी चाँदनी, अपने-अपने
चाँद।सबके अपने शेर हैं, अपनी-अपनी माँद।’
विसंगतियों से भरी समस्याओं के आलोडन-विलोडन तथा असकृद्मंथन से उत्पन्न विष
को कवि, शिवत्व भाव रखते हुए भी, शिव की भाँति पचाता नहीं, प्रत्युत
पुनर्मन्थन करके चेतनामृत प्राप्त करने के प्रयोजन से उसे अपनी लेखनी की
तीक्ष्ण धार से संवेदनशील लोक-मानस के बीच उँड़ेल देता है।कवि का स्वयं का
परिवेश्
ा वैदिक ऋचाओं से अनुस्यूत वैचारिक खादी से वेष्टित हैं। त्रेतायी
मर्यादा-पुरुषोत्तम राम को अपनी हृदय-पीठिका पर अधिष्ठित रखते हुए भी
द्वापरी लीला-पुरुषोत्तम कृष्ण केा अपने मन-मानस में बिठाकर कवि कलियुगी
वर्तमान से निबटने की सीख इस भोले-भालेे समाज को देना चाहता है। वह योग के
महिम्न महात्म्य को समझते, समझाते हुए भोग ओर रोग के कारण-निवारण की सहज,
सार्थक चर्चा के साथ उनका व्यावहारिक समाधान भी देता है। कवि अपनी प्रखर
मनीषा से विश्व-वरेण्य भारती की आरती उतारता है, तो विकृतियांे पर कटाक्ष व
कशघात भी करता है। शिशुपालांे पर बरसते आशीषों को देखकर जहाँ उसका आक्रोश
धधकता है , वहीं दूसरी ओर उदय के भाल को अपने चन्दनी रक्त से तिलकित करने
वाली अनिर्वचनीय यशोरूपा पन्ना पर भी कवि अपनी श्रद्धासिक्त अक्षौहिणाी
भावनाओं का अर्घ्य चढ़ाता है। पाश्चात्य संस्कृति की खोट पर उसने चोट की है,
तो अपनी भारतीय संस्कृति की सोंधी अमराइयों में भी उसकी मनीषा अविकलरूप से
लोटी-पोटी, गुनगुनाई और थिरकी है।
सतसई का सम्यगनुशीलन करने पर ही कोेर्इ्र समझ सकेगा कि कवि के चिन्तन-चैत्य
का वैराट्य अन्तरिक्ष से भी अधिक अनन्त, अनुभूति की गहनता किसी महार्णव से
भी अधिक अतल, अभिव्यक्ति की स्पष्टता सूर्य से भी अधिक मुखर तथा प्रखर
व्यंजना-शक्ति अम्ल से भी अधिक तीखी है। क्रमशः- - -
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प्रस्तुत सतसई के सारतत्व-रूप में उद्धृत कवि के तीन दोहों यथा-‘रखो काम
निज काम से, चलो नाक की सीध। धरती पर अजगर बड़े, अम्बर में हैं गीध।’,
’सुरभि बनो, चन्दन बनो, कभी-कभी तेज़ाब। काँटों बिन होते नहीं, रक्षित कभी
गुलाब।’ और ‘जाते-जाते कह गया, सूरज अपनी बात। लाऊँगा फिर भोर में, किरणों
की बारात।’ ने समीक्षाकार की पंक्तियों:-
‘जब से भू पर शिखण्डियों के नये-नये अवतार हो गये।
तब से अपने प्रण के कारण भीष्म बहुत लाचार हो गये।
देते नहीं विचार सात्विक, स्वाद तामसी बाँट रहे हैं,
युग-दृष्टा कवि अब मंचों पर डिब्बाबन्द अचार हो गये।’
मे समाहित वेदनाओं को बर्फीले फाहों से सहलाया है।
अस्तु, सिद्धान्त व व्यवहार, कथनी और करनी के बीच सुनिष्ठित मूल्यों के
सीमेन्ट से पटी हुई परिखा वाले और अपनी ओजस्विनी उपस्थिति से जगन्माता
शारदा को ‘सुतिनी’ होने के गर्व और गौरव की अनुभूति कराने वाले इस कवि
मनीषी से सुधी समाज बहुत कुछ आशाएँ कर सकता है।