ले.अनराधा शर्मा पुजारी अनुवादकः नागेन्द्र शर्मा
असमीया साहित्यकार अनुराधा शर्मा पुजारी के संस्मरण कहानी का सा
साहित्यिक रसास्वादन कराते हैं। ‘ओटोग्राफ ’नाम से संकलित संस्मरणो मे यहां
उल्लेखित संस्मरण मे आपने संवाद सेवा से जुङे ऐसे सवालों को उठाया है जिनके
चलते राज्य के आम पाठकों के बीच समाचार जगत की विश्वशनीयता समाप्त होती जा
रही है। इसके कारणो पर प्रकाश डालते हुए अनुराधा लिखती है :- “संवाद सेवा
को जीविका का एक साधन मान कर इससे जुङने वाले युवक-युवतियो मे अधिकांश वे
लोग हैं जिनको किसी भी क्षेत्र मे रोजगार नहीं मिलता। इसलिए वे इस सेवा के
प्रति अपेक्षित रुप से गंभीर नहीं हो सकते। संसार के किसी अन्य स्थान के
संवाद माध्यम की तुलना असम के संवाद माध्यम के साथ नही की जा सकती। क्योंकि
असम के संवाद माध्यम ने अपनी एक अलग स्टाइल बना ली है। खास कर असम आन्दोलन
के बाद जो स्टाइल बनी वह आज भी बरकरार है। इसीलिए शायद एक बार कवि नवकुमार
भरुआ ने कहा था कि आज कल के ‘अखबार’’ केवल निंदा साहित्य बन कर रह गये हैं।
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शिवसागर जिले के उपायुक्त लक्ष्मीराम तामूली ने एक बार एक स्थानीय
संवाददाता की लात घूस्सों से सरे आम पिटाई कर थर्ड डिगरी की अश्लील गालियां
देते हुए जलील किया था। दूसरे दिन ही यह खबर राज्य के लगभग सभी अखबारों मे
बङी बङी सूर्खियों के साथ पहले पेज पर छापी गई। इस घटना को ले कर समाचार
जगत मे ब्यापक प्रतिक्रियाएं हुई। बहुतों ने इस घटना पर आश्चर्य ब्यक्त
किया तो कइयों ने उपायुक्त जैसे उच्चाधिकारी की इस तरह की गई गैर कानूनी
हरकत की निंदा की तो कुछ लोगों ने यह भी कहा कि आजकल के तथाकथित
संवादसेवियों और पत्रकारों का उत्पात् कुछ ज्यादा ही होने लगा है। इसलिए जो
भी हुआ वह ठीक ही है। कम से कम ऐसे लोगों को कोई पाठ पढाने वाला तो मिला।
कुल मिला कर अखबारों के पाठकों को घर बैठे चटकारे लेने का मौका मिल गया। उस
समय हर घर मे यही चर्चा गर्म रही। एक उपायुक्त की इस हरकत को कम से कम मै
किसी भी तरह उचित नहीं मान सकती। बल्कि मै तो यह कहना चाहूंगी कि अली-गली
और चौराहों पर हुङदंग मचाने और राहगीरों के साथ बदसलूकी करने वाले बिगङैल
युवकों की तरह एक जिले के उपायुक्त जैसे उच्च पदस्थ अधिकारी की ऐसी हरकत
कङी निंदा करने लायक और बहुत ही दुर्भाग्य और लज्जा जनक है। लेकिन इसके साथ
साथ एक सवाल भी मेरे मन मे उठता है। क्या आज पत्रकारिता और संवाददाताओं की
छवि इतनी गिर चुकी है कि कोई भी उन पर हाथ उठाने और सरे आम गाली गलौज करने
की हिमाकत कर सके ? आज से दस-पंद्रह साल पहले तक पत्रकारिता की वृति से
जुङे लोगों का समाज मे एक सम्मान था, इज्जत थी। आम आदमी से लेकर सरकार
मंत्री,विधायक और सरकारी उच्चाधिकारी तक पत्रकारों को एक प्रकार के भय
मिश्रित सम्मान की नजर से देखा करते थे। जब संवाद माध्यम से जुङे संवाद
प्रेषकों और पत्रकारों की ऐसी सामाजिक मर्यादा है या थी तो फिर शिवसागर के
उल्लेखित संवाददाता के साथ इस तरह की बदसलूकी से पेश आकर फजीहत करने का
साहस एक प्रशाशनिक अधिकारी को क्या हठात् मिल गया ? मेरा मानना है कि ऐसी
घटना हठात् नहीं हो सकती। फिर क्या कारण है कि जिले का एक उच्च पदस्थ
प्रशाशनिक अधिकारी कोई एक खबर पढ कर अपनी पद-मर्यादा को तिलांजलि देते हुए
क्रोधवश अपना विवेक खो बैठा। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि आदमी को क्रोध
आने के दो कारण हैः- (1). जब किसी को नितांत और सफेद झूट से उत्तेजित किया
जाता है और (2) जब सच्चाई को छुपाने के लिए झूट का सहारा ले कर बेअसर और
बेमानी दलील देनी पङती है। मनोविज्ञान के इन दो सूत्रों के परिप्रेक्ष्य मे
शिवसागर की घटना के संदर्भ मे कौन सही और कौन गलत यह फैसला तत्काल नहीं
दिया जा सकता। हाँ, इस तरह की हरकत न करके उपायुक्त को कानूनी कार्रवाई
करनी चाहिए थी। यहां मेरे विमर्ष का विषय उपायुक्त का अनपेक्षित क्रोध नहीं
है। मेरा चिंतन है कि पत्रकारिता से जुङे संवाद माध्यम के लोगों के प्रति
जनमानस मे पहले जैसी श्रद्धा क्यों नहीं रही।
आज से कुछ साल पहले कलकत्ते के एक पत्रकारिता प्रशिक्षण केन्द्र मे मैने
एदत् विषयक शिक्षा लेने के मकसद से दाखिला लिया। यहां मैने कोई उच्च शिक्षा
तो ग्रहण नहीं की लेकिन इस दौरान मुझे अपने शिक्षक के ऱुप मे अनेक विख्यात,
प्रवीण और अनुभवशील पत्रकारों के संपर्क मे आने का मौका मिला। उनमे से कुछ
तो आज भी समाचार जगत के स्तम्भ हैं। अन्य एक बात जो मै पहले भी लिख चुकी
हूं कि पत्रकारिता की जो शिक्षा मैने ग्रहण की थी वह आज मुझे अपने वर्तमान
जीवन की एक जटिलता सी महसूस हो रही है। क्योंकि पत्रकारिता के क्षेत्र मे
एक इतिहास की रचना करने वाले संपादकों, संवाद प्रेषकों, समाचार पत्रों की
जिस छवी के बारे मे मैने पढा था वह छवि आज मौजूद नहीं रही। संवादाताओं की
निष्ठा,नैतिकता और ईमानदारी के किस्से पढ कर मै जिस तरह रोमांचित हो जाया
करती थी और राजनैतिक व सामाजिक आन्दोलनों के प्रति समाचार पत्रों की
निष्पक्ष भूमिका के बारे मे पढ कर जैसा श्रद्धाभाव जाग्रत हुआ करता था वैसी
स्थिति आज नहीं रही बल्कि आज तो कहना यह पङेगा कि इन सारे परिप्रेक्ष्य मे
स्थितियां बिल्कुल प्रतिकूल ही नजर आ रही है।
एक बार पत्रकारिता शिक्षण केन्द्र के अध्यापक श्यामल रॉय मुझे ढूंढते हुए
गुवाहाटी मे मेरे घर पहूंचे। रॉय अमृत बाजार पत्रिका और युगांतर से जुङे
हुए थे। बाद मे बी. बी. सी. आदि से लेकर उन्होने कई समाचार ऐजेंसियों के
साथ कार्य किया। उन्होने पुस्तकों मे अनुल्लेखित सच्चे संवाद प्रसंगो की
ब्यापक चर्चा की। कुछ सालों पूर्व तक इकोनोमिक टाइम्स से जुङी पत्रकार और
फ्रीलेंसर नीना लाजिमी भी रॉय के साथ थी। मैने पूछ लिया कि कल्पना लाजिमी
से क्या उसके साथ कोई संपर्क है। उसने कोई संपर्क न होने की बात कही। किसी
स्वीस युवक से प्रेम कर शादी की और बाद मे उससे तलाक ले कर वह विदेश मे
पिछले दो साल वर्षों से रह रही है। उससे बातचीत करने के बाद लगा वह एक
दिलचस्प महिला थी। उन दोनो के साथ अपने परिवार सहित संवाद माध्यम पर बातचीत
करते हुए छ सात घंटे कैसे बीत गये पता ही नहीं चला। बातचीत के बाद उन्होने
विदा ली और जिस मकसद से असम आये थे उसके अनुसार अपने गंतब्य काजीरंगा और
जातिंगां चले गये। लौटते वक्त गुवाहाटी मे न रहने के कारण उनसे मुलाकात
नहीं हो सकी। लेकिन मेरे साथ बिताए उन 6-7 घंटों के दौरान सामाचार जगत और
इससे जुङे अनेक मुद्दो पर हमारे बीच ब्यापक चर्चा हुई। चर्चा के दौरान लीना
लाजिमी से मैने एक सवाल किया कि समाचार-लेखन और विज्ञापन के बीच क्या अंतर
है। उसने कहा-‘ असम के बारे मे तो मुझे कुछ नहीं कहना लेकिन बंगाली भाषा के
समाचार पत्रों ने तो ‘समाचार-विज्ञापन ’ की अपनी एक स्टाइल ही बना ली है।
इनके संवाददाता कोई समाचार पेश करते समय अपनी निजी विचारधारा को
घटना-स्टोरी पर इस तरह थोप देते हैं कि घटनाक्रम के बारे मे पाठक के पास
अपनी राय कायम करने की कोई सुविधा ही नहीं रहती। असम के संवाद माध्यमों पर
मै भी अपनी राय ब्यक्त करना चाहती थी लेकिन जान बूझ कर टाल गई। क्योंकि असम
मे समाज सेवा से जुङी महत् वृत्तियों की शुचिता की चर्चा करते समय सिर्फ
संवाद माध्यमों का ही उल्लेख करना काफी नहीं होगा बल्कि इसके साथ साथ
चिकित्सा सेवा जैसी समाज सेवा और मानव जीवन से जुङी अन्यान्य वृत्तियों की
शुचिता और निरपेक्ष भूमिका का भी उल्लेख करना होगा।
किसी समाचार पत्र का कोई एक संवाददाता सिर्फ एक प्रेस-कार्ड के बल पर
अल्फा, सल्फा, दुर्नीति व भ्रष्टाचार मे लिप्त सरकारी अधिकारियों, असाधु
ब्यवसाइयों और माफिया समुहों के साथ किस तरह मुलाई करते हैं इसकी जानकारी
आज किसी से छुपी नहीं है। लेकिन इसके पीछे कई कारण भी है। अन्यान्य कारणों
मे प्रमुख है राज्य मे समाचार पत्र पत्रिकाओं की संख्या। जनसंख्या के
अनुपात मे पत्र पत्रिकाओं की संख्या के जो आंकङें हैं वे वस्तुतः हैरत मे
डालने वाले हैं। अतः इनके बाजार को नियंत्रण मे रखना और पत्र पत्रिकाओं की
निरंतरता बनाये रखने के लिए विज्ञापनों का जुगाङ करना कठिन होता चला जा रहा
है। द्वितीयतः अखबारों मे नियुक्त उच्च पदों पर दो चार लोगों के अतिरिक्त
स्थानीय संवाददाताओं, रिपोर्टर्स, डेस्क पर कार्यरत कर्मचारियों को प्राप्त
सुविधाएँ और वेतन उनके जीवन-यापन के लिए पर्याप्त नही होता। इसके अलावा एक
कारण और भी है। संवाद सेवा को जीविका का एक साधन मान कर इससे जुङने वाले
युवक-युवतियो मे अधिकांश वे लोग हैं जिनको किसी भी क्षेत्र मे रोजगार नहीं
मिलता। इसलिए वे इस सेवा के प्रति अपेक्षित रुप से गंभीर नहीं हो सकते।
संसार के किसी अन्य स्थान के संवाद माध्यम की तुलना असम के संवाद माध्यम के
साथ नही की जा सकती। क्योंकि असम के संवाद माध्यम ने अपनी एक अलग स्टाइल
बना ली है। खास कर असम आन्दोलन के बाद जो स्टाइल बनी वह आज भी बरकरार है।
जो श्यामल राय कभी अपनी क्लास मे विश्व के खोजी पत्रकारों की मिसाल देकर
गर्व किया करते थे वही श्यामल रॉय उस दिन हमारे बीच जारी वार्तालाप के
दौरान आज के समाचार जगत के निम्नगामी स्तर पर चिंतित और हताश दिखलाई दे रहे
थे और मुझसे कहा था----अनुराधा, कभी कभी मै अपने आप से यह सवाल करता हूं कि
मैने तुम लोगों को पत्रकारिता के क्षेत्र की सही शिक्षा दी या नहीं। यह सुन
कर मेरी आंखें नम हो गई। क्योंकि इस पेशे मे आने के बाद मुझे भी कई बार
मानसिक द्वंद और पीङा का सामना करना पङा है। मैने श्यामल रॉय से कहा – आप
हमेशा यह कहा करते थे कि तुम लोगों के ब्यक्तिगत चरित्र की अनेक विविधताएं
हो सकती है लेकिन तुम्हारी कलम का एक ही चरित्र होना चाहिए और वह है सत्य,
और सदैव केवल सत्य। इस बात को मै आज भी नहीं भूली हूं। लेकिन कभी कभी एक
वेदना जरुर होती है। कभी कभी सोचती हूं कि यदि मै आप लोगों के संपर्क मे
यदि नहीं आती और पत्रकारिता का पाठ्यक्रम लेकर इस वृति का अध्ययन न करती तो
मै भी कुछ अन्य लोगों की तरह इस जीविका से भी अधिक और कहीं अच्छा खासा कमा
कर सुख पूर्वक अपना जीवन ब्यतीत कर सकती थी। हमारे बीच बंगाली भाषा मे चल
रहे वार्तालाप को नीना नहीं समझ पा रही थी। कहीं कहीं अंग्रेजी बोले जाने
के चलते पूरे वार्तालाप के सार को समझ कर नीना ने कहा था—‘दटी’ज व्हाई आई
प्रिफियर टू स्टडी अबाउट नेचर, फोरेस्ट एण्ड एनिमल’। श्यामल रॉय और नीना की
तरह कई लोगों ने मानव समाज की ‘रिपोर्टिंग’ और ‘स्टोरी’-लेखन का परित्याग
कर पशु-पक्षी और प्रकृति की गोद मे आकर शांति का अनुभव किया था। इन लोगों
ने ‘नेशनल जॉग्रॉफी’ के अतिरिक्त इसी तरह की अन्यान्य पत्र-पत्रिकाओं से
जुङ कर जीव-जगत और प्रकृति के बारे मे लिखना शुरु कर दिया। अतः नीना ने कहा
था—‘वी कैन सरवाइव्ह विदाउट न्यूज’। नीना का मंतब्य सुन कर मुझे लगा शायद
वह ठीक कह रही हो। मैने भी एक बार तीन चार दिनो तक खबरें न पढने और न सुनने
का एक परीक्षण किया था। उस परीक्षण का जब भी मैने स्मरण किया तो मुझे लगा
कि वैसे सुख की अनुभूति मुझे कई वर्षों तक नहीं हुई। लेकिन पत्रकारिता भी
एक तरह का नशा होता है। जैसे मै इस पेशे को नहीं छोङ पाई उसी तरह श्यामल
रॉय और नीना जैसे लोगों ने अपना कार्य क्षेत्र भले ही बदल लिया हो लेकिन इस
नशे से मुक्त नहीं हो सके। आप लोगों ने क्लास मे पत्रकारिता जगत से जुङी जो
कहानियां सुनाई थी मुझे आज भी याद है और मुझे अब तक वे सारी बातें आज भी
उद्वेतिल करती हैं। श्यामल रॉय ने कहा - तुम उन्ही बातों क्यों याद करती
रही जो तुम्हे उद्वेलित करती रही। मैने टील(Teel) और टैलर(Taylor) नामक दो
पत्रकारों द्वारा लिखी एक पुस्तक भी तो प्रेस्क्राइब की थी और तुम लोगों ने
उसे खरीदा भी था। उसमे लिखा था “पत्रकार के लिए एक सज्जन ब्यक्ति होना
लाजिमी नही है। इस क्षेत्र मे ऐसे ‘रसकल्स’ बहुत हैं जो दुनिया तक खबरें
पहूंचाने का काम बङी योग्यता और तत्परता के साथ करते हैं पर ऐसा करने पर
उनके सहकर्मियों को कभी कभी बङी मुशीबतों का सामना करना पङ जाता है”। यह
खास कर उन लोगों के लिए लिखा गया था जो अपार खुशियां और अपनी जीविका का
दिवा-स्वप्न देख कर इस क्षेत्र मे आये हैं। मै नहीं जानती कि ‘रसकल्स’ शब्द
का प्रयोग किस अर्थ मे किया गया है लेकिन इतना मै जानती हूं कि संवाद
माध्यम पर लोगों की नजर कुछ अधिक रहती है। चतुर्दिक दुषित वातावरण की ओर
ध्यान न देकर यदि अच्छी बातें लिख कर पत्रकारिता की जाती तो संवाद माध्यम
इतना बदनाम नहीं होता। एक बार कवि नवकांत बरुआ ने कहा था कि आजकल के
‘अखबार’ केवल निंदा- साहित्य बन कर रह गये हैं। आजकल के समाचार जगत के
परिप्रेक्ष्य मे कवि बरुआ के इस कथन का औचित्य काफी हद तक है । इसकी वजह यह
है कि असम के लोग निंदा साहित्य ही पढना पसंद करते हैं। निंदा साहित्य की
बढती मांग इस बात का संकेत है कि समाज मे भी ‘रसकल्स’ की संख्या बढती जा
रही है। अतः समाज मे मौजूद ‘रसकल्स’ के परिप्रेक्ष्य मे ही संवाद माध्यम की
शुचिता का आकलन करना होगा। इसके साथ साथ तामूली की अशालीन प्रतिक्रिया के
संदर्भ मे भी नये सिरे से चिंतन की आवश्यकता है। अब संवाद माध्यम को निंदा
साहित्य के स्तर तक गिरने से बचा कर इसको सम्मान जनक स्थिति तक पहूंचाने के
दायित्व का निर्वाह इससे जुङे लोगों को करना होगा। वरना लक्षीराम तामूली की
तरह और लोग भी संवाद माध्यम के प्रति इसी तरह अपमानजनक प्रतिक्रिया ब्यक्त
करते रहेंगे।