-डाॅ. दिवाकर गरवा
भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में रूपक के अन्तर्गत नाटक का उल्लेख किया है
जिसकी रचना शास्त्रीय विधि से होती है। रूपक के अन्तर्गत उप-रूपक पर भी
विचार किया है जिसके अनेक भेद बतलाए हैं। इसमें लौकिक रचनाओं के अन्तर्गत
रास, चर्चरी और फागु आदि को नाट्य-रचनाएँ ही माना है जो मध्यकालीन साहित्य
में ’ख्याल‘ अथवा लोक नाटक का मूल स्रोत बनी। लोक साहित्य में प्रबन्ध के
लिए लोकगाथा और लोक नाटक के लिए ’ख्याल‘ अथवा लोक नाटक का विकास हुआ। लोक
नाटक (ख्याल) की उत्पत्ति लोक विश्वास, लोक परम्परा, लोक देवता की पूजा,
मनोरंजन तथा उत्सव आदि के माध्यम से हुई। मांगलिक पर्व पर उत्सव के माध्यम
से मनोरंजन की परम्परा भारतीय समाज में प्रचलित रही है। कुछ विद्वान नाटकों
की उत्पत्ति लोक नाट्य से ही मानते हैं। डाॅ.नगेन्द्र के अनुसार जीवन की
सामूहिक आवश्यकताओं एवं प्रेरणाओं के बीच इसका जन्म हुआ होगा। उत्सवों के
अवसरों पर गीतों के साथ सामूहिक नृत्य की परम्परा भी हमारे समाज में
प्रचलित रही है जिसमें और कथात्मक संवाद के साथ आगे चलकर परम्परागत रूप से
सामान्य अभिनय भी जुड़ गया और मनोरंजन के कारण लोक नाटकों का विकास हुआ।
संस्कृत में अनेक उप रूपक तथा रूपकों के अन्तर्गत प्रहसन, रासक, रास, लास्य
व भाण के रुप मिलते हैं जो वस्तुतः साम्यता के अन्तर्गत लोक नाटकों के ही
रुप है। लोक से सम्बन्धित अनेक मांगलिक पर्वों और उत्सवों में इनका अभिनय
आवश्यक माना जाता रहा है। इनके लिए उच्च कोटि के रंगमंच तथा साज-सज्जा की
आवश्यकता नहीं पड़ती। नृत्य-परक लोक नाट्य और प्रहसनात्मक लोक नाट्य लोक
जीवन में प्रचलित रहे हैं। लोक नाट्य संपूर्ण भारत में किसी न किसी रूप में
प्रचलित रहे हैं। उत्तरप्रदेश में रास-लीला, नौटंकी, भाण, मध्यप्रदेश में
मांच और गुजरात में भवाई आज भी प्रचलित है। इसी कारण महाराष्ट्र में तमाशा,
दशावतार की परम्परा लोक नाट्य का ही एक रूप कहा जा सकता है। दक्षिण भारत
में भी लोक नाटकों की परम्परा आज भी प्रचलित हैं।
राजस्थान में लोक नाटकों की परम्परा बहुत प्राचीन है। कहीं उसे रम्मत तो
कहीं तमाशा भी कहा जाता है किन्तु इनमें विशेष ख्याति ’ख्याल‘संज्ञा की ही
है जिसे शेखावाटी क्षेत्र में विशेष लोकप्रियता प्राप्त है। लोक नाट्य
परम्परा के जो रूप प्रचलित हैं उनमें कहीं न कहीं किसी नाट्य-तत्त्व का
अभाव रहता है किन्तु शेखावाटी का ’ख्याल‘ नाटक के सभी तत्त्वों से युक्त
होता है। विशेष बात यह है कि ’ख्याल‘ के रचनाकार की पूरी अथवा आंशिक
जानकारी जनता को होती है। नाटक और ’ख्याल‘ में अन्तर यह है कि नाटक में
देखना और सुनना दोनों प्रधान है जबकि ’ख्याल‘ में सुनना प्रधान है और देखना
गौण। क्योंकि ख्याल संगीतात्मक संवाद में अभिनीत होता है। ख्याल-रचयिता को
कविता की जानकारी साधारण होती है किन्तु संगीत का अभ्यास अधिक होता है।
प्रायः लेखक भी अभिनय करता है और वह संगीत-प्रेमी होता है। हिन्दू और
मुसलमान समान रूप से ख्यालों के अभिनय में भाग लेते हैं। चिड़ावा (शेखावाटी)
के मुसलमान राणा नानूलाल ने इस क्षेत्र में विशेष ख्याति प्राप्त की है।
लोक नाट्य मूलतः किसी अंचल विशेष से संबंध रखते हैं। विवाह के समय लड़के की
बारात जाने पर पीछे से मोहल्ले की महिलाएँ मिलकर स्वाँग-प्रहसन करती है जो
पुरुष और बच्चों के लिए वर्जित रहते हैं। राजस्थान में होली के समय रात्रि
को गींदड़ का कार्यक्रम आयोजित किया जाता है जिसमें मनोरंजन के लिए स्वाँग
भी निकाले जाते हैं यह परम्परा शेखावाटी में अब भी प्रचलित है। शेखावाटी के
लोक नाटकों को ’ख्याल‘ कहा जाता है जो वस्तुतः खेल का परिचायक है। शेखावाटी
के ख्यालों का इतिहास लगभग 200 वर्ष पुराना है। सबसे पहले फतेहपुर के
प्रहलादी राम पुरोहित तथा झाली राम निर्मल ने अनेक ख्याल लिखे थे तथा अपनी
मंडली बनाकर मारवाड़ी रंगत पर उनका अभिनय भी किया था। पेशेवर मंडली का रूप
उन्होंने अपनी मंडली का नहीं दिया। उनके ख्यालों का प्रभाव शेखावाटी के
तत्कालीन जागीरदार, सेठ साहूकार तथा जनमानस पर पड़ा और उन्हें लोकप्रियता
प्राप्त हुई। चिड़ावा का नानूराम राणा इस ख्याल मंडली का सदस्य था किन्तु
आगे चलकर उसने एक अलग मंडली बना ली थी। नानूराम राणा को संगीत के प्रति
प्रारम्भ से ही लगाव था। गुरु की कृपा से वे संगीतज्ञ, अभिनेता, नर्तक गायक
और ख्यालों के रचनाकार बन गए। इनकी रचनाएँ ईश, सरस्वती और गणेश वन्दना से
प्राप्त होती थी। अपने ख्यालों में गुरुजनों को स्थान-स्थान पर याद किया
है-
श्री पंडित हरिदत्त जी मुजकूं काव्य का तंत पढ़ाया है।
गुरु कर कर किरपा मेरा अज्ञान काम छुटवाया है।
विप्र गुरु स्योबक्श राय मुकझूं गाना बतलाया है।
गुरु गोमंदराय जी मुझे नृतकारी भेद बताया है।
गुन गुन का मुरसद करना ये वेदों में फरमाया है।‘‘ सुल्तान बादशाह को ख्याल।
नानूलाल राणा चिड़ावा के ख्याल
नानूलाल राणा ने लगभग 50 से अधिक ख्यालों की रचना की थी जिनमें प्रमुख
ख्याल इस प्रकार हैं -
खीमजी आभलदे, नकवै बैठा राजा, जगदेव कंकाली, ढोला मरवण, नल राजा, लैला
मजनूं, पाक मोहब्बत, हीर रांझा, सभा पर्व, विराट पर्व (चार-भाग), रिसालू
बेलादे, पठाण सहजादी, सुल्तान बादशाह, इन्द्र सभा, सोदागर, वजीरजादी,
पृथ्वीराज चैहान, हमीर हठ, सेठ मुनीम, भगत पूरणमल, ढुल्लो घाड़ी, इन्द्र
कंवर, नणद भौजायी, मालदे हाड़ी राणी, पद्मावती, राजा रिसालू, कीचक वध,
सेठ-सेठाणी को ख्याल, डूँगजी-जवाहरजी, विणजास को ख्याल, सुलतान निहालदे,
हरिश्चन्द्र, छोटा कंत, मोरधज, अमरसिंह को ख्याल व वीरमदे सौदागर।
श्री नानूलाल राणा के शिष्य:
उजीरा तेली - मूलतःचिड़ावा के रहने वाले थे जो नानूराम राणा के समकालीन थे।
नानूलाल राणा और उजीरा तेली के युग को ख्याल लेखन और अभिनय के क्षेत्र में
शेखावाटी का स्वर्ण युग कहा जाता है। नानूलाल राणा ने अपने ख्यालों में
दूहा, लावणी, शेर, झड, कवित्त, छप्पय, दुबोला, चैबोला, झेला आदि का प्रयोग
किया जबकि उजीरा ने विशेष रूप से शेर, लावणी, दोहा, छप्पय आदि छंदों का
प्रयोग किया था। नानू राणा केवल रस सिद्ध कवि ही नहीं थे अपितु उच्च कोटि
के गायक भी थे। उन्होंने अपने ख्यालों में सोरठ, भैरवी, असावरी, कलिंगड़ा,
धनाश्री, केदार, पीलू, खमाच आदि राग-रागिनियों का प्रयोग किया था।
उजीरा तेली ने लगभग 24 ख्यालों की रचना की थी जिनमें प्रमुख हैं - वीरमदे
शहजादी, माल दै हाड़ी रानी, माधवानल काम कंदला, पन्ना वीरमदे, नरसी जी रो
भात, निहालदे सुलतान, राजा हरिश्चन्द्र, इन्द्रपुरी अमरसिंह मालदे, हाड़ी
रानी अमरसिंह राठौर, सुल्तान मरवण भात सीलो सतवंती आदि। गोविन्दरामजी से
प्रेरणा पाकर ’तुर्रा कलंगी‘ ख्याल परम्परा का शुभारम्भ नानूलाल ने किया
था। उन्होंने लिखा है-’गोविन्दराम के चरण बिच नानूलाल चित लागा।‘ ’राजा नल
को ख्याल‘ इसी परम्परा का ख्याल है। नानूलाल को शास्त्रों, संस्कृति और
राजस्थान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का अच्छा ज्ञान था। नानू राणा के शिष्य
उजीरा (वजीरा) तेली ने उनसे शिक्षा प्राप्त कर अपनी पृथक् मंडली बना ली थी।
नानूलाल के दो पुत्र महादेव और विद्वदूलाल थे जिनमें विद्वदूलाल कवि तथा
ख्याल लेखक थे। नानूलाल के बाद उनके भतीजे दुलीचन्द (दलूजी) ने सर्वाधिक
ख्याति अर्जित की जो खंडेला में रहकर ख्यालों की रचना और अभिनय करता था।
खेतड़ी नरेश श्री अजीतसिंह जी ने नानूलाल राणा का सम्मान किया था। तथा उनके
भतीजे दुलीचन्द का सम्मान राष्ट्रपति ने किया था। उनकी उत्कृष्ट सेवाओं के
लिए राजस्थान संगीत नाटक अकादमी, जोधपुर ने सन् 1968-69 में सम्मानित किया
था। शेखावाटी में नानूलाल राणा के बाद सर्वाधिक प्रसिद्धि दुलीचन्द राणा को
प्राप्त हुई जिन्हें लोग आत्मीय भाव से दुलिया कहते थे। चिड़ावा के
अस्वादत्त इसी समय के अच्छे ख्याल लेखक थे। गुरु परम्परा में धन्त्धन्न
उस्ताद (पं. घनश्याम दास) पं. हरदत्त राय, गोविन्दराम दर्जी (नर्तक) तथा
शिवबक्श इस अंचल के चार महान स्तम्भ थे जिन्होंने शेखावाटी की ख्याल
परम्परा को उच्च शिखर तक पहुँचाया था।
ख्यालों के अभिनय के क्षेत्र में बिसाऊ का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है
क्योंकि नानूलाल राणा अपने ख्यालों का प्रथम मंचन इसी स्थान पर करता था।
यहाँ के विद्वानों एवं ख्याल प्रेमियों से आज्ञा लेकर ही अपने द्वारा रचित
ख्यालों का मंचन दूसरे स्थानों पर करता था। गुरु सदारामजी बिसाऊ के
प्रसिद्ध ख्याल लेखक थे जो गायक एवं अभिनेता भी थे। शेखावाटी के प्रमुख
कलाकार इनसे निर्देशन प्राप्त करते थे। संगीत, साज-सज्जा एवं अभिनय के
क्षेत्र में उनकी कोई बराबरी नहीं कर सका। प्रेम, धर्म एवं ऐतिहासिक
पृष्ठभूमि से सम्बद्ध अनेक ख्याल लिखे जिनमें ’नसरुद्दीन हसन फरोस‘ का
प्रकाशन भी हुआ था। बिसाऊ में ’रााणा‘ (मुसलमान) जाति के अनेक लोक गायक हुए
हैं जिन्होंने ख्याल परम्परा को अभिनय के माध्यम से आगे बढ़ाया है। गजानन्द
घोड़ीवाला के लिखे हुए अनेक ख्यालों का मंचन श्री नानूलाल राणा और उनके
सहयोगियों ने किया था।
लक्ष्मणगढ़ के कालूराम बालूराम ने शेखावाटी की ख्याल- लेखन परम्परा को आगे
बढ़ाते हुए अनेक ख्याल लिखे थे। शेखावाटी के चिड़ावा क्षेत्र के समानान्तर
फतेहपुर क्षेत्र भी लोकनाट्य के लिए सुविख्यात रहा है। यहाँ की ख्याल
परम्परा किशनगढ़ी ख्याल, कुचामणी ख्याल तथा बीकानेरी रम्मतों से भिन्न रही
है। हाथरस की नौटंकी व मध्यप्रदेश में प्रचलित ’माच‘ परम्परा से भी वह
सर्वथा भिन्न है। अठाहरवीं शती के अन्त तक आगरा और हाथरस के आस-पास ख्याल
परम्परा के रूप में नौटंकी की लोकनाट्य परम्परा विकसित हो चुकी थी जबकि
फतेहपुर शेखावाटी में उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में ख्याल परम्परा का
विकास हुआ। नवाबी काल में यहाँ के सेठ व्यापार के लिए बंगाल, आसाम और
महाराष्ट्र चले गये किन्तु 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जब प्रवासी
लोग धन लेकर लौटे तो उन्होंने कलात्मक हवेलियों का निर्माण करवाया जिनके
भित्ति चित्र विश्व प्रसिद्ध हैं। मनोरंजन के लिए धनाढ्य सेठों ने
उत्तरप्रदेश की नौटंकी कला के लोक कलाकारों को आमंत्रित किया जिनसे प्रेरणा
पाकर यहाँ के स्थानीय कलाकारों ने अपनी पहचान बनाते हुए अनेक
ख्याल-मंडलियों की स्थापना की। परिणामतः शेखावाटी में इन ख्यालों के माध्यम
से नृत्य, संगीत और अभिनय का शुभारम्भ हुआ। परम्परागत वाद्य यंत्रों का
पुनः प्रचलन बढ़ा। फतेहपुर में सर्वश्री प्रहलादी राम पुरोहित, झालीराम
निर्मल, प्रेमसुख भोजक उच्च कोटि के ख्याल लेखक एवं अभिनेता हुए है।
उन्होंने अपनी पहचान बनाए रखने के लिए अलग-अलग मंडलियों का गठन किया। इनके
द्वारा खेले गए ख्याल अत्यन्त लोकप्रिय रहे हैं।
श्री प्रहलादीराम पुरोहित द्वारा रचित ख्याल
निहालदे सुल्तान का ख्याल, बारहमासा, कलकत्ते की गजल, दूल्हे धाडवी को
ख्याल, शहजादे का ख्याल, बिणजारे को ख्याल, मोरध्वज को ख्याल, राजा नल को
ख्याल, दानलीला ख्याल, मणिहारी लीला ख्याल, राजा रिसालू रो ख्याल, छोटे कंथ
का ख्याल और गोपीचन्द का ख्याल आदि।
प्रहलादीराम पुरोहित के ख्याल गायकी और कथानक की दृष्टि से अत्यन्त
महत्त्वपूर्ण है जिनमें शेखावाटी अंचल की लोक संस्कृति भावनाओं और समाज की
पीड़ाओं से जुड़ी हुई है। चिड़ावा के नानूराम राणा का उनसे घनिष्ठ सम्बन्ध था।
श्री झालीराम निर्मल
श्री झालीराम निर्मल अपने समय के प्रसिद्ध लेखक थे जो प्रहलादीराम के
समकालीन थे किन्तु उनकी पृथक मंडली थे। वे अच्छे कलाकार भी थे। उनके द्वारा
लिखे गये निम्नलिखित ख्याल प्रकाशित हो चुके हैं - ख्याल जोहरी का, रिसालू
राजा को ख्याल, निहालदे सुलतान, शहजादे को ख्याल, बिणजारे को ख्याल आदि।
उनकी गायकी की एक अलग शैली थी जिसमें दूहों का प्रयोग अधिक होता था।
राजस्थान के अनेक स्थानों पर अपने ख्यालों का अभिनय किया था दूसरे कलाकारों
से सम्पर्क कर नवीन शैलियाँ सीखकर उनका प्रयोग किया था।
श्री प्रेमसुख भोजक
प्रेमसुख भोजक कवि, अभिनेता, गायक और स्वाँगधारी थे। नुक्कड़ नाटकों की शैली
में शहर की गलियों में मंच बनाकर ख्यालों का मंचन करते थे। भोजक जी पर सन्
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का गहरा प्रभाव पड़ा था। अंग्रेज विरोधी
भावना उनके ह्यदय में कूट-कूट कर भरी थी। वे परम देश भक्त एवं परोपकारी
कलाकार थे। शोषण और अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाकर उन्होंने
’डूंगजी-जवाहरजी ख्याल‘ की रचनाकर सशक्त अभिनय किया था। उनकी वाणी में ओज
था। उनका यह प्रभावशाली ख्याल इतना प्रसिद्ध था कि उसे देखने के लिए जन
समुदाय उमड़ पड़ता था। ख्यालों के माध्यम से उन्होंने इस अंचल में अंग्रेजों
के विरुद्ध लोक चेतना जाग्रत की थी। फतेहपुर में उन्हें लोक देवता के रूप
में याद किया जाता है।
’राजा मोरधज‘ उनका दूसरा प्रभावशाली ख्याल था। राजा मोरधज और उनकी रानी
द्वारा अपने राजकुमार रत्नकुंवर के सिर को करोत द्वारा चीरने के दृश्य को
देखकर सीकर के राव राजा माधवसिंह दर्शकों के साथ रोने लग गये थे। करुणा से
विचलित होकर राव राजा ने श्री भोजक को यह निर्देश दिया कि भविष्य में ऐसा
दुखान्तः ख्याल मत खेलना। यद्यपि राव राजा भोजक जी के इस प्रदर्शन पर बहुत
खुश थे उन्होंने अनेक व्यंग्यात्मक कविताएँ भी लिखी थी। उन्होंने लगभग 20
ख्यालों की रचना की थी जिनमें डूंगजी जवाहरजी, राजा मोरधज, राजा भोज, राजा
करण, राजा विक्रमादित्य, सेठ-सेठानी, शिशुपाल-रूक्मणी और जाट को ख्याल
प्रमुख हैं। इनके सहयोगी श्री माला भोजक ने भी कुछ ख्यालों की रचना की थी।
शेखावाटी के प्रमुख ख्याल लेखकों में श्री भगवती प्रसाद दारुका (जसरापुर)
का नाम भी उल्लेखनीय है जिन्होंने लगभग 30 ख्याल लिखे थे किन्तु अभिनय के
क्षेत्र में उनका योगदान नहीं था। उनके प्रमुख ख्यालों का नाम प्रायः
’बारामासियो’ दिया गया है जो पूरे वर्ष खेले जा सकते हैं जैसे-
द्रौपदी को बारामासियों, रूक्मणी को बारामासियों, मीरांबाई को बारामासियों,
भरतजी को बारामासियों, गणेशजी को बारामासियों आदि। हरिश्चन्द्र को
बारामासियों, गोपियों को बारामासियों, मोरध्वज को बारामासियों आदि। अन्य
ख्यालों के लिए ’लीला‘ शब्द का प्रयोग किया है, जैसे भक्ति लीला, जानकी
लीला, सुदामा की लीला, श्रवण लीला आदि।
शेखावाटी के अन्य ख्याल लेखकों में कज्जू, भानजी, चुन्नीलाल, अकबर,
गोविन्दाराम, सदाराम, बलदेव ब्राह्मण (नवलगढ़) पं. मालीराम गौड़ (रामगढ़)व
फतेहपुर के मदनलाल बिडवाल, गलराज हरितवाल, आनन्दीलाल पुरोहित प्रमुख हैं।
यहाँ एक ही शीर्षक से सभी लेखकों ने ख्यालों की रचना की है किन्तु उनमें
कथानक सम्बन्धी परिवर्तन मिलता है तथा संवाद और गायकी में भी आंशिक अन्तर
है। शेखावाटी के ख्यालों में काव्य, अभिनय, संगीत और नृत्य सम्बन्धी
तत्त्वों में समानता भी मिलती है। ख्याल प्रारम्भ करने की भी एक निश्चित
परम्परा है, जिसमें खुले मंच का प्रयोग होता है। वादक और गायक निश्चित
स्थान पर बैठते हैं तथा नारी पात्रों का अभिनय करने वाले पात्र भी पुरुष ही
होते हैं। सर्वप्रथम गणेश, सरस्वती पूजन तथा वन्दना की जाती है। गुरु के
नाम का स्मरण किया जाता है। खेल प्रारम्भ होने से पहले सफाई वाला, भिश्ती
और चोबदार आकर अपना कार्य संपादित करते हैं। ख्याल का परिचय भी दिया जाता
है। ख्याल में देश, काल और पात्र का पूरा ध्यान रखा जाता है। यहाँ के
साहित्यिक गौरव को बनाए रखने में इनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण हैं।
कथावस्तु की दृष्टि से शेखावाटी क्षेत्र में पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक,
धार्मिक, शौर्य प्रधान, प्रेम प्रधान एवं हास्य प्रधान विषयों पर ख्याल
लिखे गये हैं। ख्यालों की भाषा बोलचाल की मारवाड़ी बोली है जिसमें उर्दू एवं
कहीं-कहीं ब्रज हरियाणवी भाषा के शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। इन संगीत
प्रधान लोक नाटकों में दूहा, चैपाई, सोरठ, लावणभू, कवित्त, छप्पय, दुबोला,
चैबोला, झेला आदि छन्दों का प्रयोग हुआ है। भाव एवं रस दृष्टि से कहीं कोई
न्यूनता नहीं है तथा शब्द, छन्द, अलंकार नीति एवं प्रभावोत्पादकता की
दृष्टि से इनका साहित्यिक महत्त्व है। संगीत, नृत्य एवं अभिनय की त्रिवेणी
के रूप में शेखावाटी के ख्याल आज भी प्रचलित हैं। शेखावाटी से जुड़े हरियाणा
प्रदेश के लोक नाटकों का इन पर प्रभाव अवश्य पड़ा किन्तु अपनी परम्परागत मूल
शैली की यहाँ के लोक कलाकारों ने रक्षा की है। सीमावर्ती हरियाणा के
चन्दरवादी, धनपत, लख्मीचन्द और चन्द्रपाल जाट ने भी अपने लोक नाटकों
(ख्याल) का अभिनय किया है किन्तु कलात्मकता एवं लोक संगीत की दृष्टि से वे
काफी पीछे रहे हैं।
शेखावाटी के लोक नाटकों ने राजस्थानी संस्कृति की निरन्तर रक्षा की है एवं
विभिन्न सम्प्रदाय के लोगों में समरसता का भाव बनाए रखा है। इन ख्यालों के
लेखक एवं कलाकार हिन्दू तथा मुसलमान दोनों रहे हैं जिनमें सामाजिक एवं
धार्मिक दृष्टि से भेद नहीं किया जा सकता। इन ख्यालों के माध्यम से त्याग,
बलिदान, धार्मिक, सहिष्णुता, परजन हिताय की भावना उत्पन्न होती हैं।
राजस्थान के लोक संगीत को जीवित रखने में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
यहाँ के लोक नाटकों ने हास्य एवं व्यंग्य के माध्यम से लोकमानस की
प्रतिक्रियाओं को बड़े प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया है। लोकाचार और सदाचार
का संदेश देने में शेखावाटी के लोक नाटक राजस्थान में अपना महत्त्वपूर्ण
स्थान रखते हैं। मनोरंजन के आधुनिक साधनों ने हमारी परम्परागत लोक-शैली को
प्रभावित अवश्य किया है किन्तु राजस्थानी संस्कृति की रक्षा के लिए आज भी
लोक नाटक प्रासंगिक हैं। अंत में यही कहा जा सकता है कि शेखावाटी के लोक
नाटकों का पाठकों और दर्शकों के लिए यही संदेश है-
’’खाना पीना खेलना है कोई दो दिन की बात।
आखर कू मर जाना बन्दे, कछु ना चले है साथ।।