आदमी थे हम — राहुल उपाध्याय


आदमी थे हम, संग होने लगे हैं
खून को रंग मान, रंग धोने लगे हैं
वारदातें होती हैं, होती रहेंगी
कह के ज़मीर अपना खोने लगे हैं
अब क्या किसी से कोई कुछ कहेगा
सब अपनी ही लाश खुद ढोने लगे हैं
पढ़-लिख के इतने सयाने हुए हम
कि स्याही में खुद को डुबोने लगे हैं
बाहों में किसी की जब बिलखता है कोई
बंद कर के टी-वी हम सोने लगे हैं

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