दीप समय का रहा नहीं संभव मैं किंचित और जलाऊँ
दीप समय का रहा नहीं संभव मैं किंचित और जलाऊँ
बुझती लौ को स्नेह चढ़ा कर फिर से आलोकित कर जाऊँ
क्यों न मानूँ अब तो बस इस दीपक का अवसान निकट है
बेहतर है इस सच्चाई को मन में हृदयंगम कर पाऊँ
सपने देखूँ आँखें मूँदे, इससे कुछ हासिल न होगा
सच्चाई का वरण करूँ मैं, उसकी लौ में ध्यान लगाऊँ
एक अभी झौंका आयेगा दीप फफक कर बुझ जायेगा
बुझने का प्रतिकार करूँ क्यों, त्याग सराय निज घर जाऊँ
“यथा विहाय वासांसि जीर्णानि....” मन में धारण करके
गीता का संदेश ख़लिश मैं मन ही मन में नित दोहराऊँ.
* वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥२- २२॥
महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’
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(Ex)Prof. M C Gupta
MD (Medicine), MPH, LL.M.,
Advocate & Medico-legal Consultant