दिल्ली में एक पुल के नीचे पटड़ियों पर एक ओर ११ और दूसरी ओर १० व्यक्ति जीवन- यातना भुगत रहे हैं। शयनागार, रसोई, कारोबारालय, चौपाल - सभी कुछ इसी में समाये हुए हैं। ना दरवाज़े हैं, ना खिड़की हैं, ताले का तो प्रश्न ही नहीं होता।
इन में कुछ पुरुष और कुछ स्त्रियां हैं और एक स्त्री की गोद में एक बच्चा भी है। इन लोगों की जाति क्या है? ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रीय,शूद्र या दलित वर्ग में तो यह लोग आ नहीं सकते। जाति-वर्गित लोगों को तो लड़ाई झगड़ा करने का, ऊंच और नीच दिखाने का, आरक्षण का, फूट डलवा कर देश में दंगा फ़साद करवाने का और फिर अवैध युक्तियों से अपने बैंक बैलेंस को फुलाने का, अनेक सामाजिक, असामाजिक, वैध या अवैध अधिकार हैं। इन २१ व्यक्तियों को तो ऐसा एक भी अधिकार नहीं है तो इनकी जाति कैसे हो सकती है!
तो फिर ये लोग कौन हैं? इनके नाम हैं - भिखारी, कोढ़ी, लंगड़ा, अंधा, भूखा-नंगा, अपंग, भुखमरा, कंगला, और गरीब होने के कारण इनके तीन नाम और भी हैं क्योंकि कहते हैं,
“गरीबी तेरे तीन नाम; लुच्चा, गुंडा, बेईमान!!”
हां, वह जो बीच में बैठी हुई जवान सी औरत है, उसका नाम है ‘झबिया’। उसकी गोद में जो नन्हा सा बालक है, उसे ये लोग ‘ललुआ’ कह कर पुकारते हैं। पिता का नाम ना ही पूछा जाए तो उचित होगा क्योंकि कभी कभी कुछ विषम स्थिति में असली नाम बताना किसी गोपनीय मृत्यु-दण्ड जैसे अंजाम तक भी पहुंचा सकता है।
झबिया की क्या मजाल है कि कह सके कि उसकी गोद में इस हड्डियों के ढांचे पर पतली सी खाल का आवरण लिए हुए नन्हे से बच्चे का पिता नगर के प्रतिष्ठित नेता का जवान सुपुत्र है।
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उस दिन अमावस्या की रात थी जब वह अपनी चमचमाती कार खड़ी करके बाहर निकला था तो झबिया ने केवल इतना ही कहा था,
“साब, भूकी हूं, कुछ पैसे दे दो। भगवान आपका भला करें!”
शराब का हलका सा नशा, अंधी जवानी का जोश और नेतागीरी के आगे गिड़गिड़ाता हुआ कानून -बस उसने झबिया को घसीट कर कार में खींच लिया। झबिया ने तो केवल भूखे पेट भरने को दो रोटी के लिए कुछ पैसे मांगे थे, ना कि यह मांगा था कि अपने उदर में उसका बच्चा लेकर उसको भी भूख से मरता देखती रहे!
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गर्मियों की चिलचिलाती हुई धूप, बरसात की तूफानी बौछारें और कंपकंपा देने वाली सर्दियां इन पुलों के नीचे रहने वाले बिन वोटों के नागरिकों के जीवन को अगले मौसम को सौंप कर चल देती हैं।
इस बार तो ठण्ड ने कई वर्षों का रिकार्ड तोड़ डाला। ये कंपकंपाते हुए अभागे बिजली के खम्बों की रोशनी पर टकटकी लगाए हुए हैं। शायद इतनी दूर से बिजली के बल्ब से ही कुछ गर्मी उन तक पहुंच जाए!
हिमालय की पर्वत-शृंखलाओं से शिशिर ऋतु की डसने वाली बर्फीली शीत लहर गगनचुम्बी अट्टालिकाओं से टक्कर खाती हुई हार मानकर खिसियाई बिल्ली की तरह इन जीवित लाशों पर टूट पड़ी। इन निरीह निःस्सहाय अभागों ने बचाव के लिए कुछ यत्न करने का प्रयास किया जैसे कंपकंपी, चिथड़े, कोई फटी पुरानी गुदड़ी या फिर एक दूसरे से सटकर बैठ जाना। इससे अधिक वे कर भी क्या सकते थे? सभी के दांत ठण्ड से कटकटा रहे थे जैसे सर्दी ध्वनि का रूप लेकर अपने प्रकोप की घोषणा कर रही हो। कुछ शोहदे बिगड़ैल छोकरे राह चलते हुए छींटाकशी से अपना ओछापन दिखाने से नहीं मानते-
“ऐसा लगता है जैसे मृदंग या पखावज पर कोई ताल चगुन पर बज रही है।” इन ठिठुरे हुए बेचारों के कानों के पर्दे सर्दी के कारण जम चुके हैं, कुछ सुन नहीं पाते कि ये छोकरे क्या कुछ कहकर हंसते हुए चले गए। यदि सुन भी लेते तो क्या करते? बस अपने भाग्य को कोस कर मन मसोस कर रह जाते!
झबिया की गोद में ललुआ ठिठुर कर अकड़ सा गया है, ना ठीक तरह से रो पाता है, ना ही ज्यादा हिल-डुल पाता है। माँ उसे सर्दी से बचाने के लिए अपने वक्ष का कवच देकर जोर से चिपका लेती है। ललुआ माँ के दूध-रहित स्तनों को काटे जारहा है। बड़ी बड़ी बिल्डिंगों से हार कर बड़े आवेग से एक बार फिर यह बर्फानी हवा का झोंका इन पराजित निहत्थों पर भीषण प्रहार कर अपनी खीज उतार रहा है।
एक गाड़ी इस हवा के झोंके की तीव्र गति को पछाड़ती हुई सड़क पर पड़े हुए बर्फीली पानी पर से सरसराती हुई चली जाती है। कार के पहियों से उछलती हुई छुरी की तरह बर्फीली पानी की बौछारों से इन लोगों के दातों की कटकटाहट भयंकर नाद का रूप लेलेती हैं। ललुआ ने अकस्मात ही झबिया के वक्ष को काटना, चूसना बंद कर दिया, आंखें खुली पड़ी हैं, माँ की ओर टिकी हुई हैं जैसे पूछ रहा हो,
“माँ, मुझे क्यों पैदा किया था?”
झबिया उसे हिलाती-डुलाती है किंतु ललुआ के शरीर में कोई हरकत नहीं है। वह दहाड़ कर चीख़ उठती है। सभी की आंखें उसकी ओर घूम जाती हैं, बोलना चाहते हैं पर बोलने की शक्ति तो शीत-लहर ने छीन ली है!!
महावीर शर्मा

 

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