किशोरमन


                      तप्त रेत के बीच पड़ा है, मरुथल में तपता गागर है,
                      लवणयुक्त जल से प्लावित, अतृप्त तृषामय सागर है.
                      
                      बोझिल वारिद की उपलवृष्टि, क्या यह प्यास बुझायेगी?
                      शत-शत नदियों की धारा, क्या यह लावण्य मिटाएगी?

                      स्वांति नक्षत्र सीपी को, मुक्ता का लोभ दिखाता है,
                      चंदा को लखकर चकोर, प्रिय-सुधि मे खो जाता है.

                      ना सीपी ना चकोर यह, ना रूप-गर्विता का याचक है,
                      स्वयं स्वांति है, स्वयं चंद्र है, निजस्वप्नों का चातक है.

                      हरहर कर सागर की लहरें, प्रिय तट को छूने आतीं हैं,
                      पर पल भर के स्पर्श मात्र से, सब चूर चूर हो जातीं हैं.

                      सागर-तट सम मन सोचे, कब ऐसी जीवंत लहर आयेगी,
                      जो चूर चूर हो फिर लिपटेगी, संतृप्ति-सुधा बरसा जायेगी.

                      छिन-छिन है शिखा छीजती, क्या कभी शलभ की तपन घटी?
                      मर मिटीं गोपियां कान्हां पर, क्या कभी कृष्ण की तृषा बुझी?

                     वारिद का है विद्युत्प्रकम्प यह, इसको क्या कोई जले मरे?
                     उद्दाम काम का मूर्तरूप है, कैसे कोई रति इसको शांत करे?    
 

 
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