मैं उड़ी पतंग—-बिजेंद्र एस. ‘मनु’


मैं उड़ी पतंग, तू डोर है मेरी,
मेरे सीने से चिपकी है I
तुझे सहारा दो का है,
मेरी सांस जो तुझमे अटकी है I
बैठा तुझे पकडे, मांझा मालिक,
तुझसे मन चाहे खेले है I
मेरा क्या, आखिर वो आदि,
बेमतलब देता रेले है I
तेरे बिन मै उड़ न पाऊँ,
मेरे बिन तुम उठ न पाओ I
कितने सारे, और पतंग है,
उन्हें देख ना, जी ललचाओ I
जब चाहे तुझसे, आ टकराए,
जल्दी ही तुम, घुल मिल जाओ I
प्रहार तीव्र से, तुम टूटो तो,
सीमा उनकी में, तुम गिर जाओ I
दिशाहीन है, दशा मेरी,
ना जानूं कहाँ, कब मै गिर जाऊं I
तेरा सहारा मिल, ना पाए,
कभी ना, कैसे, मै उठ पाऊँ I
भू आसान हो, भाग मेरा,
नभ-घर मेरा, छिन्न जाए I
तू चक्री लिपटी, मुझसे दूरी,
ऐसे जीवन से, घिन्न आए I
तेज हवा है, शक्ति बन जा,
गाँठ हमारी, टूटे ना I
बंधी मेरे संग, उड़ती रहना,
दुश्मन हमको, कोई लूटे ना I
तेरा बिछुड़ना, निश्चित है तो,
मान्झाधारी से, हाथ छुड़ा I
असंभव सा जीवन है ‘मनु’ अब,
मेरी गाठी को, और कसा I

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