राजधानी दिल्ली में दीक्षांत समारोह का भव्य आयोजन किया गया था । पाण्डवों
को शिक्षा जगत की सर्वोच्च उपाधि से सम्मानित किया जाना था। सबसे पीछे की
कुर्सी पर बैठा एकलव्य सारी गतिविधियाँ बड़ी तन्मयता से देख रहा था। सहसा वह
अपनी कुर्सी से उठा और गुरु द्रोणाचार्य के सामने जाकर खड़ा हो गया। उसने
विनीत भाव से झुककर उन्हें सादर नमन किया। गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को
आशीर्वाद देते हुए पूछा, बालक तुम कौन हो और यहाँ किस लिए आए हो ?
एकलव्य ने विनीतता के साथ उत्तर दिया गुरूदेव, मैं अध्ययन में त्यंत रुचि
रखने वाला एक विद्यार्थी हूँ। मेरा नाम एकलव्य है। मैं आपके सान्निध्य में
रहकर उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहता हूँ। गुरु द्रोणाचार्य विचारों की
तरंगों में डूब उठे। कुछ क्षणों तक मन ही मन सोचते रहे, फिर बोले वैसे तो
मैं सिर्फ़ बड़े घरानों के बालकों को ही उच्च शिक्षा देता हूँ। किंतु
तुम्हारी लगन और श्रद्घा को देखकर मैं तुम्हें ¦ ाी उच्च शिक्षा दूँगा। तुम
हमारे विह्णाविद्यालय में आ सकते हो।
एकलव्य का माथा श्रद्घा से झुक गया मैं बड़ी आशा के साथ आपके पास आया था और
आपने मुझे आस्वासन दिया यह हमारे लिए बहुत बड़ी बात है। मैं तनमन लगाकर आपसे
शिक्षा प्राप्त करूँगा। आप श्रेष्ठ और पूज्य गुरु हैं। आपकी इस कृपाष्टि का
प्रसार युगों-युगों तक होता रहेगा। गुरु द्रोणाचार्य की कृपादृष्टि से
एकलव्य दिनदूनी-रातचौगुनी प्रगति करने लगा। अध्ययन के दौरान ही उसकी ख्याति
देश के कोने-कोने में फैलने लगी। उसका कार्यक्षेत्र विस्तृत होने लगा।
प्रत्येक संगोष्ठी और कार्यशालाओं में एकलव्य की भागीदारी आवश्यकता बन गई।
एकलव्य ने सोचा, वह इस संसार में यह चरितार्थ करेगा कि, एक उपेक्षित जाति
का बालक किस प्रकार अपनी लगन, दृढ़ता, विह्णावास और गुरु के आशीर्वाद से
विद्या प्राप्त कर अपने तथा अपने गुरु के नाम को भी परमोज्ज्वल बनाया। कुछ
ही दिनों में एकलव्य ने सर्वोच्च शिक्षा की उपाधि हेतु उस ग्रन्थ की रचना
कर डाली जिसकी आवश्यकता इस उपाधि के लिए करनी पड़ती है। वरिष्ठ छात्रों का
ग्रन्थ भी तैयार नहीं हुआ था। गुरु द्रोणाचार्य विस्मयपूर्ण नेत्रों से
एकलव्य के ग्रन्थ को देखने लगे। सचमुच ऐसा ग्रन्थ भी तक किसी छात्र ने नहीं
लिखा था। गुरु द्रोणाचार्य ग्रन्थ की ओर देखते हुए अपने आप ही बोल उठे
सचमुच, इस ग्रन्थ में अद्भुत कौशल है। फिर उन्होंने एकलव्य से कहा एकलव्य,
तुम्हारा कौशल बड़ा अद्भुत है, पर इतना सब तुमने कहाँ से लिखा ? तुमने लेखन
का कौशल किससे प्राप्त किया है ? एकलव्य बोल उठा आपसे ही गुरूदेव। इस लेखन
का कौशल आपके आशीर्वाद से ही मैंने प्राप्त किया है। मैंने आपको मन से गुरु
माना है। आपके स्मरणमात्र से ही मैं विद्यार्जन करता रहा हूँ।
गुरु द्रोणाचार्य एकलव्य की निष्ठा और लगन पर मुग्ध हो उठे, पर उनके मन में
विकार भी उत्पन्न हो उठा। उन्होंने अपने एक प्रिय शिष्य को लेखनविद्या में
-द्वितीय बनाने का वचन दिया था। वे सोचने लगे, कहीं ऐसा न हो कि एकलव्य
लेखनविद्या में मेरे प्रिय शिष्य से आगे निकल जाय। अत; उन्होंने एकलव्य की
लेखनविद्या को व्यर्थ बना देने का विचार किया।
गुरु द्रोणाचार्य मन ही मन सोचने लगे। कुछ क्षणों के पश्चात अपने आप ही
बोले एकलव्य तुमने मुझे अपना गुरु मानकर लेखनविद्या में कुशलता प्राप्त कर
ली है, पर मुझे गुरु दक्षिणा नहीं दिया। मुझे दक्षिणा देकर तुम अपने
विद्यार्थीधर्म का पालन करो।
एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य के सामने नतमस्तक हो कर बोला गुरूदेव, आदेश दीजिए,
आपको गुरु दक्षिणा में क्या दूँ ? आप जो भी माँगेंगे गुरूदेव, मैं उसे गुरु
दक्षिणा के रूप में आपको देकर मैं अपने जीवन को सार्थक बनाऊँगा।
गुरु द्रोणाचार्य ने कुछ सोचते हुए कहा मुझे गुरु दक्षिणा में यह ग्रन्थ
चाहिए एकलव्य। एकलव्य का स्वर लड़खड़ाया यह ग्रन्थ ?
गुरु द्रोणाचार्य ने सोचते हुए कहा हाँ, यह ग्रन्थ, क्या नहीं दे सकोगे ?
एकलव्य विचारों में खोया हुआ था। उसने सोचते-सोचते कहा गुरूदेव, एक बार
अपने राजकुमारों के मोह में पड़कर मुझे बाणविद्या की शिक्षा देने से स्वीकार
कर दिया था। दूसरी बार गुरु दक्षिणा में मुझसे दाहिने हाथ का अँगूठा माँग
लिया था। परंतु आज तीसरी बार मेरे जीवन की अनुपम उपलब्धि को माँग रहें हैं।
परंतु इस बार मैं आपकी बातों में नहीं आने वाला। इस ग्रन्थ पर भले आप मुझे
शिक्षा जगत की सर्वोच्च उपाधि देने की नुशंसा न करे मुझे कोई अंतर नहीं
पड़ता। इस ग्रन्थ को मैं आपके विह्णाविद्यालय के पुस्तकालय की शोभा न बढ़ाकर
इसे मैं प्रकाशित कराकर पूरे संसार में प्रसार करूँगा, ताकि संसार के सभी
लोग इस ग्रन्थ का लाभ उठा सकेंगे। गुरु द्रोणाचार्य एकलव्य का मुँह ताकते
रह गए और वह अपने ग्रन्थ को हृदय से लगाए विह्णाविद्यालय के प्रांगण से
बाहर निकल गया। फिर एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। ॥।