लेखक- - नन्दलाल भारती
समीक्षक- - डाँ श्रीमती तारा सिंह
प्रकाशक-मनोरमा साहित्य सेवा, आजाद दीप-15-एम वीणा नगर
इंदौर-452010। (मध्य प्रदेश ) ।
मूल्य- रू 225.00 पृष्ठ- 224
चांदी की हंसुली भारतीय लोक जीवन की गाथा
श्री नन्दलाल भारती सामाजिक सरोकारों और अपने लेखकीय दायित्व के प्रति भी वे सचेत हैं । इसी का प्रतिफल है, इनका उपन्यास ‘चाँदी की हँसुली’। दरअसल यह लोक जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज है। मनुष्य का सम्बंध संस्कारों से है और समाज का संस्कृति से। जहाँ मनुष्य होंगे, वहाँ समाज होगा। अकेले मनु्ष्य से समाज का निर्माण नहीं होता। गाँव,ग्रामीणजन,प्रकृति और परम्पराओं से निर्मित होती है संस्कृति । समाज के आचार-विचार,तीज-त्यौहार,जीवन-षैली संस्कृति के लिये जिम्मेवार हैं। 51 कड़ी के उपन्यास चाँदी की हँसुली की कथा के जीन पक्ष हैं - पहले में गरीब खेतिहर मजदूर गुदरीराम एवं उसकी पत्नी मंगरी है । दूसरे में मुख्यतः प्रेमनाथ और पत्नी सोनरी का प्रेमालाप है तो उनका जीवन संघर्ष भी है । तीसरे में नई पीढ़ी के राजू-रूपमती हैं । कथा के केन्द्र में चाँदी की हँसुली है,यह केवल चाँदी की हँसुली की कथा नहीं है, यह औरतों के आभूषण-प्रेम की कहानी भी है । गहनें औरत की बड़ी कमजोरी हैं । हर औरत को चाहे गरीब हो अमीर,गहनों की चाह होती है। गहने स्त्री के श्रृंगार का मुख्य साधन हैं । लेकिन सभी की चाह कहां पूरी होती है ! गरीब के सपने कहाँ पूरे होते हैं । निर्धन स्त्री गहनों के लिये तरसती रह जाती है । बचपन से उसे हँसुली का बड़ा शौक था, पर वह कभी चाँदी की हँसुली से आगे नहीं बढ़ सकी । वैवाहिक जीवन में, यहां तक की जिन्दगी के आखिर दिनों तक, असली हँसुली के लिये तरसती रह गयी । कर्ज चुकाने के लिये उसे अपनी चाँदी की हँसुली को साहूकार को लौटा देने या गिरवी रख देने तक का विचार करना पड़ा ।लेखक के अनुसार ‘गोदनें’ भी हमारे स्थायी गहने हैं ।
उपन्यास में जातिवाद,आर्थिक-सामाजिक विषमता-विसंगति,निर्धनता,मजूदरों की हाड़-तोड़ मेहनत तथा जमींदारों -साहूकारों द्वारा किये जा रहे षोषण का हृदयस्पर्षी चित्रण है । कई बार कृ्षक की भूमि को जमींदार धोखे से हड़प लेता है । कृ्षक जीवन भर तरसता रह जाता है । छोटी जाति के प्रेमनाथ का यह दर्द देखिये- ‘ हम मूलनिवासियों को स्वार्थ-सत्ता के मोह ने हाशिये पर लाकर पटक दिया है । पता नहीं हमें हमारी जमीन कभी वापस मिलेगी भी या नहीं ?’ आज भी स्थिति भिन्न नहीं है। ऋण के बोझ-तले दबे किसान आत्म हत्याएँ कर रहे हैं । अर्थाभाव के कारण खेतिहर श्रमिक को किन-किन कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है, यह उपन्यास,’चाँदी की हँसुली’ उसका आईना है । इन लोगों के सपने पूरे नहीं हो पाते । यहाँ तक कि संतान को उच्च शिक्षा के लिये षहर भेजने के मार्ग में भी बहुत सी बाधाएँ मुंह फाड़े खड़ी हो जाती हैं ।दलित का जमकर शोषण होता है । चाहे वह गाँव में हो या शिक्षित होकर शहर में नौकरी कर रहा हो, उसका मान-सम्मान नहीं होता । छोटी जाति वालों के प्रति नफरत है । परीक्षा हो या साक्षात्कार,उनके साथ भेदभाव किया जाता है । नारी-मुक्ति के नाम पर स्त्री में आ रहे बदलावों के प्रति भी लेखक ने चिन्ता व्यक्त की है । बूढ़ी हो चुकी सोनरी जब उपचार हेतु बेटे-बहू के पास शहर जाती है तो वहां तथाकथित आधुनिक नारियों को देख दुःखी और अचंभित होती है । उसे आज की नारी का अति आधुनिकतापन अच्छा नहीं लगता है । उसकी पीड़ा यह है कि नारी-मुक्ति के नाम पर आज महिला , मुक्त नारी होती जा रही है । ऐसी बात नहीं है कि सोनरी को स्त्री को आगे बढ़ने पर आपत्ति है । स्त्री तरक्की करे, पढे-लिखे, उसका समाज में बराबरी का दर्जा हो,उसका सम्मान हो, इस पर सोनरी को एतराज नहीं है, पर एक सम्मान के दायरे में हो, यही चाहती है ।
उपन्यासकार का आधुनिकता बोध इसी मुद्दे तक सीमित नहीं रहा । तन्त्र में
मौजूद भ्रष्टाचार पर भी लेखक ने कड़ा प्रहार किया है । सरकारी कारिन्दे और
बिचौलिये की मिलीभगत साधनहीनों को मिलने वाली सहायता या अनुदान राशि का बड़ा
हिस्सा बीच में ही किस तरह हड़प जाते हैं, लेखक ने उसका कच्चा चिट्ठा खोलकर
रख दिया है । प्रेमनाथ को शामियाने के धंधे के लिये पच्चीस हजार का ऋण
स्वीकृत होता है,लेकिन उसके पल्ले मात्र दस हजार पड़ते हैं । शेष दूसरे डकार
जाते हैं। यही नहीं,षामियाने का जो सामान उसको उपलब्ध कराया जाता है,वह भी
आधा-अधूरा और कटा-फटा होता है । प्र्रेमनाथ-पच्चीस हजार के सूद का देनदार
हो जाता है सो अलग । वह सब ओर से ठगा जाता है । वस्तुतः जब लोकतन्त्र अपने
धर्म का निर्वाह नहीं करता है तो शोषित-पीड़ित व्यक्ति हृदयहीन,अमानवीय और
असंवेदनशील हो जाता है और तब नक्सली जैसा मूवमेंट स्तित्व में आता है। जो
लोकतांत्रिक तरीके से हासिल नहीं हुआ, उसे वह हिंसा द्वारा प्राप्त करना
चाहता है । हिंसा में ही उसे त्वरित उपाय नजर आता है ।
भारती के इतिहास -बोध की झलक भी उपन्यास में देखने को मिलती है । वह
कहते हैं कि जमींदारों और पूंजीपतियों ने अंग्र्रेजो की भांति लोगों में
फूट डालो और राज करो की नीति को अपनाया। उसी प्रकार जैसे अ्रग्रेजों ने
चालाकी से हमारे देश को हड़प लिया वैसे ही जमींदारों-साहूकारों ने
षोशित-वंचित, गरीब किसानों की जमीन को हड़प लिया । गाँवों में जमीन-जायदाद
को लेकर परिवारजनों के बीच विवाद और वैमनस्य तब भी होता था आज भी होता है ।
यहाँ तक कि भाई-भाई की हत्या कर देता है । अलग होकर शहर में रह
रहा,स्वार्थी और आत्म-केन्द्रित भीखानाथ अपने भाई दीनानाथ की हत्या कर जमीन
हथिया लेता है । इतना सब होते हुए भी गाँव कई मायनों में शहर से भिन्न है ।
वहाँ लोगों के बीच आत्मीयता है,अपनत्व की भावना है । एक परिवार की बेटी
पूरे गाँव की बेटी होती है । कृतिकार यहां सामाजिक जागरूकता का परिचय देते
हुए सोनरी से कहलवाता है कि होली पर हुड़दंग,गाली-गलौज तथा कीचड़ और हानिकारक
मिलावटी रंग पोतने जैसी कुप्रवृत्तियों से बचना चाहिये । होली के त्यौहार
को शालीनता से मनाना चाहिये । सोनरी और उसके पति प्रेमनाथ के बीच प्रेम और
विश्वास की जो डोर है,प्यार भरी नोंक-झोंक है,उलाहने और प्रेम -प्रसंग है,
वे लेखक के अभिव्यक्ति कौशल के प्रमाण हैं ।
उपन्यास की भाषा चुस्त और शैली सरस है । रचना को अनावश्यक रूप ये अमूर्त
बनाने में लेखक की रूचि नहीं है । अतः सम्प्रेषणीयता का संकट नहीं है। कृति
‘चाँदी की हँसुली’ में यथार्थ और कला के बीच संतुलन मौजूद है ।
हँसुली माध्यम से लेखक ने निम्न वर्ग की लाचारी,बेरोजगारी,शोषण और जीवन-संघर्ष को रेखांकित करने का प्रयास किया है। यह सर्वहारा के सपनों के टूटने-बिखरने के कारणों की तला्श की करूण कथा है हँसुली निम्न वर्ग की आशा-आकांक्षा है और पूंजीवादी शोषण के कारण उसे हासिल न कर पाना उसकी विवशता । लेखक को विषमतावादी समाज के गले में एक सुन्दर हँसुली की अपेक्षा है। आशा है साहित्य जगत में भारतीय लोक जीवन पर आधारित इस उपन्यास का स्वागत होगा और पाठक लेखक के इस प्रयास का स्वागत करेंगे ।
डां.तारा सिंह,मुम्बई