हिंदुत्व बनाम भाजपा वाया कांग्रेस की परतें


-कौशलेंद्र प्रपन्न
वेदप्रताप वैदिक यानी वह नाम जो महज ज्ञान विद्या का ही पर्याय मात्र नहीं हंै बल्कि वैदिक जी का राजनैतिक-चिंतन प्रकारांतर से भाजपा एवं कांग्रेस दो प्रमुख राजनैतिक दलों की अंदरुनी बुनावट कमजोरियों भूलों एवं मजबूतियों आदि को समेटती हैं जिसकी व्यापक झलक भाजपा हिंदुत्व और मुसलमान नाम से प्रकाशित पुस्तक में मिलती हैं। इस पुस्तक की विशेषता यह है कि वैदिक जी ने भारत की दो प्रमुख राजनैतिक पार्टियों भाजपा एवं कांग्रेस की एक लंबी राजनैतिक यात्रा तो प्रस्तुत की ही है। साथ ही इस पुस्तक में हिंदु हिंदुत्व और हिंदुस्तान के साथ ही मुस्लिम मानस आदि से जुड़े अहम सवाल भी उठाए हंै। इस लिहाज से वैदिक जी के विश्लेषण की परिधि में हिंदुत्व और मुस्लिम विमर्श एक अलग विमर्श की मांग करती है। जो समय समय पर राजनैतिक विवादों के घेरे में आते रहे हैं। भाजपा के गठन में जहां सावरकर की भूमिका की ओर विमर्श मुड़ती है वहीं कांग्रेस की चर्चा में नेहरु आदि से लेकर समसामयिक राजीव नरसिंहराव मोदी प्रमोद महाजन आदि राजनेताओं के प्रभावों विशेषताओं आदि पर व्यापक दृष्टि एवं अनुभव का स्वाद मिलता है। यह किताब तीन मुख्य अवधारणाओं पर टिका है भाजपा हिंदुत्व और मुसलमान।
पहला खंड़ जो 170 पृष्ठों में फैला है खासकर भाजपा की संपूर्ण पृष्ठभूमि से शुरू होकर वर्तमान की राजनैतिक पार्टियों में उठने वाले उतार-चढ़ाव की पड़ताल करती है। खुले तौर पर वैदिक जी इस खंड़ में लिखते हैं आज भी कांग्रेस के बाद वह ही भाजपा एकमात्र अखिल भारतीय पार्टी है। उसके पास कर्मठ कार्यकर्ता हैं कुशल संगठन है और यदि उसको दृष्टिसंपन्न नेतृत्व मिल जाए तो वह भारतीय राजनीति के रथ का दूसरा पहिया बन सकती है। भारत में द्विदलीय लोकतंत्र की स्थापना नितांत आवश्यक है। एक सौ सत्तर पृष्ठों में फैला भाजपा विमर्श कई आयामों पर चिंतन प्रस्तुत करता है। एक ओर भाजपा की संगठनात्मक शक्ति की चर्चा है तो वहीं दूसरी ओर भाजपा का 2004 के लोक सभा चुनाव में हार की भी व्यापक पड़ताल की गई है। वैदिक जी भाजपा और हिंदुत्व के मसले पर सवाल उठाते हैं कि क्या हिंदुत्व के बिना भारत की कल्पना की जा सकती है? जैसे कांग्रेस भारत की अजर अमर पार्टी है वैसे ही भाजपा भी रहेगी। पार्टी की खासियत को वैदिक जी रेखांकित करते हैं कि भाजपा की खूबी यही है कि इसके पास विचारधारा भी है और तपस्वी कार्यकर्ताओं की फौज भी। इसमें नेता नहीं हैं। जो नेता दिखाई पड़ते हैं वे भी कार्यकर्ता ही हैं। यदि इस पार्टी में सचमुच नेता होते तो यह कभी की टूट जाती। इसका टूटना मुश्किल है और इसका खत्म होना लगभग असंभव! वहीं कांग्रेस की बुनियाद पर नजर डालते हुए वैदिक लिखते हैं कि हिंदू-मुस्लिम एकता के अलमबदार नेहरू को द्विराष्टवाद के आगे घुटने टेकने पड़े और मुस्लिम सांप्रदायिकता के सिरमौर जिन्ना को पाकिस्तान बनने के बाद शीर्षासन करना पड़ा। सत्ता में आने और उसमें बने रहने के लिए क्या-क्या पापड़ नहीं बेलने पड़े? जरा कांग्रेस का इतिहास देखें। 1885 से अब तक उसने इतने पलटे खाए हैं कि वह किसी बहरूपिए से कम नहीं रह गई है। पहले अंग्रेज का समर्थन फिर आंशिक और बाद में पूर्ण आजादी की मांग पहले गांधीवाद फिर नेहरू का समाजवाद और फिर राजीव और नरसिंहराव का उदारवाद और अब वंशवाद! यदि कांग्रेस में इतना लचीलापन नहीं होता तो वह कब की ही इतिहास के खंड़हरों में समा जाती। यदि समग्रता में देखें तो यह खंड़ भाजपा की मजबूत संगठनात्मक जड़ और कमियों कांग्रेस की पैतरेबाजी सत्ताग्राही चालों के विश्लेषण से अटा हुआ है।
व्यापक एवं सम्यक विश्लेषण के बीच में शुरू के चार पांच लेखों में एक ही अवधारणा एवं स्थापना का दुहराव मिलता है। यदि सावधानी बरती जाती तो इस भूल व बारंबारता से बचा जा सकता था। हालांकि यह उतनी बड़ी चूक नहीं जो इस पुस्तक की पठनीयता एवं महत्ता को जरा भी कमतर कर सके। क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा को जिस तरह हार का मुंह देखना पड़ा यदि इन विश्लेषणों से कुछ रणनीति बनाने में मदद ली जाए तो उनका कल सुधर सकता है। हिंदुत्व और मुस्लिम खंड़ में हिंदु शंब्द की न केवल व्युत्पत्ति बताई गई है बल्कि इस शब्द के व्यापक संदर्भ भी प्रस्तुत किए गए हैं। यदि इस पुस्तक को समग्रता में देखें तो अपने आप में एक अनूठा संग्रह है जिसमें पाठक को हिंदु हिंदुत्व और मुस्लिम के साथ ही देश की दो प्रमुख राजनैतिक दलों की बुनियाद एवं आज के बारे में प्रमाणिक विकास यात्रा का संगम दिखाई देगा।
कौशलेंद्र प्रपन्न

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