ये दिल जानता है , पर कहाँ मानता है, सचो-हक़ की नसीहत, ये ज़ुल्म मानता है, दबा हुआ अन्धेरा, कईं जन्मों का इसमें, उफ़कते उजाले से , ये कफ़स मांगता है ।
' रवीन्द्र '