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रवीन्द्र कुमार गोयल

 

 

 

 

 

 

जिस राह पे बिखरी हो नफरत , लो उससे बहुत दूर चला,
क़त्ल बेगुनाहों का है ग़र इबादत, तो मैं काफ़िर ही भला.

 

खुश हूँ बहुत छोटी सी दुनिया में , वफ़ा तेरी अगर मेरे साथ है,
मुबारक औरों को रोशनी जन्नत की, मुझे तो अंधेरों की प्यास है ।

 

 

 

 

मंजूर है लड़खड़ाना मगर, कुछ कदम चलने के बाद,
फिसलना लाज़मी है तूरे वफ़ा पे, मगर चढ़ने के बाद.

 

मैं जिन्दा हूँ भी कि नहीं , कर सकते हो जिरह,
मुझे दिखते हैं मगर, कुछ मुर्दे जिन्दों कि तरह.

 

दिल फरोश हैं वो मुहब्बत नहीं करते,
नफरत नहीं तो अलग चीज़ नहीं होती.

 

 

सफ़र जिंदगी का हिस्सों से बना होता है,
हर हिस्से का मगर किस्सा अलग होता है,
जो हो कर शुरू फिर ख़तम कहीं होता है,
सफ़र का ये हिस्सा भी लो ख़तम होता है.

 

कोई कह दे , इन हाकिमों से,
ना पियें लहू आवामे -जिगर का,
नादाँ नहीं पर क्यों नहीं समझते,
है भरा ज़हर इसमें सदियों का.

 

शराब मैं पीता नहीं, जाहिर है कि पिलाता भी नहीं,
फिर ना जाने आखिर क्यूँ , पैमाना भर जाते हैं लोग.

 

 

ज़ख्म जब सीने में कसमसायेगें,
दर्द बन के आसूँ बिखर जायेंगें ।
न पूछो किसने, ज़ख्म दिए इतने,
नक़ाब कई अपनों के उतर जायेंगें ।

 

इस इंतज़ार-ए-ज़वाब ने, कर दी है ज़िन्दगी तबाह,
ख़ता एक ख़त लिखने की, और इतनी बड़ी सज़ा ।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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