' याद '
तेरे आने से पहले सुना है, कि तेरी याद आती है,
तेरी तो ये फ़ितरत नहीं, पर तेरी याद सताती है ।
' हस्ती दिल की '
मुहब्बत के नूर से , हस्ती दिल की हसीन होती है,
ख़त्म नफ़रत -ए- ज़हर, जहाँ ये बस्ती शुरु होती है ।
' दीवानगी '
अब तू भी नहीं, ख़त्म ये तन्हाई भी नहीं,
शब कोई फिर चाँदनी में, नहाई भी नहीं,
बिसरे पल सभी, जो गुजरे थे पहलू में तेरे,
कैसी थी दीवानगी जो मुझे रास आई नहीं ।
' कमी '
है तयक्कुन की कमी जो, तड़प को तरसती है जुस्तजूं,
मिले मंज़िल तो किस तरह, हदे - जिद तक ना आरज़ू ।
' पुख्ता '
जब भी टूटा है तो, इस दिल की मरम्मत की है,
ना कभी कोई गिला, पुख्ता और मुहब्बत की है ।
' जुस्तजूं '
यही तो है इश्क़ की जुस्तजूं
मैं रहूँ न मैं और तू रहे न तू ।
सदके बे-ख़बर की, इस बे-ख़ता अदा के,
खफ़ा उनसे, कायल थे जिनकी वफ़ा के ।
' आहट '
आहट से बदनसीबी तेरी, सीरत पहचान लेते हैं,
समेट लेते हैं ख़्वाब, जब हकीक़त को जान लेते हैं ।
' इबादत '
ज़बरन हुकूमत की जो तबीयत नहीं होती,
शवों के व्यापार की भी जरुरत नहीं होती,
समझ लें काश ये , सियासत के सितमगर,
ज़माने में मुहब्बत सी इबादत नहीं होती ।
' प्रतिशोध '
ठुकरा दिया हम सबने, ये नफ़रत फिर कहाँ जाती,
बैठी गोद सियासत, आया वक़्त अब बदले चुकाती ।
आगाज़
खुद एक ख्वाब हूँ, सच को मोहताज़ हूँ,
हकीकत को तरसे , वो झूठा आगाज़ हूँ ।
' ऐतबार '
फिर से है बही, मुश्किल की बयार,
दर पे है तेरे, कायम मेरा ऐतबार ।
' मजबूर '
रसूख़वालों ने अपना, वजूद मुकम्मल रखा,
मिट गए हम भी, मगर ख़ुलूस कायम रखा ।
' ईद मुबारक '
ना कोई गमजदा, रहे न कोई खफ़ा,
रकीबन ख़ुशी मुहब्बत में हो सजदा ।
' ईद का चाँद '
रेशम का धागा निकला, घटा की चिलमन से,
शाद-ए-दिल ने कहा, कल 'ईद' होगी, कसम से ।
' सस्ती '
कितनी सस्ती दिन के खाने के साथ मिलती है,
कोई तो फिरदौस यहाँ , माँगे बिना मिलती है.
' परवरिश '
कौन जीता है दमे - नाखुदा पर,
जिन्दगी अपनी गम से जुदा है,
महकती उसकी ज़ुल्फ़ के साये में,
परवरिश अपनी करता खुदा है ।
' प्यार '
तुम्हें, इस दिल में छुपा रक्खा है,
यकीं करना, खुदा बना रक्खा है ।
' नाम '
नाम तो गुम जाना है, ख्याल में खोने दो,
मुझे उस शायर के नये कलाम में खोने दो ।
' बाँसुरी '
मेरे होने से मिली ज़माने को तेरे आने की खबर,
फूँक तेरी जो रूह बन के इस जिस्म से गुज़र गयी ।
' परेशान '
हुआ है महफ़िल से बदर,
उसपे कोई इलज़ाम होगा,
आया है, तेरे दर तक,
किया सच ने परेशां होगा।
' अंतस '
कुदरत तेरी बिखर रही,
हर शख्स यहाँ बिखरा है,
कौन संवारे अब इसको,
किसका अंतस उजरा है ।
सरहद
इश्क़ सर आँखों पर, फिर कोई सरहद न हो,
कौन मुसाफ़िर यहाँ, प्यार जिससे बेहद न हो ।
' सच '
मैं जो हूँ बस वही हूँ,
सच ये है कि मैं नहीं हूँ ।
' खुशबु '
बयारे-सच बहने लगी है, दर सभी के जाएगी,
खुशबु गुले- चमन की, सारा जहां महकाएगी ।
जीवन मेरा वखरा नहीं , ये दस्ताने - आम है,
लाख समझे कोई गाफ़िल मुझे खुद से काम है ।
' इल्तज़ा '
छोटी सी इल्तज़ा है, साथ इसरार भी है,
हँस के कह दो इक बार कि प्यार भी है ।
' मुख्तलिक '
मुख्तलिक है सोच उसकी, अलग है उसका अंदाज़े-बयाँ,
छुप के रहता है दिल में, ज़ाहिर उसके कदमों के निशां ।
' बगावत '
मिले तू तो कर भी लूँ , बगावत इस ज़माने से,
बगावत शर्त है मगर, उलफ़त की इस ज़माने में ।
' जल्दबाज़ '
जो मिल गया उसी का इस्तेमाल कर लिया,
ख्याल जल्दी में था लफ़्ज़-ए-मुन्तज़िर न हुआ ।
श्रद्धा और सियासत की दुकानें मिटाना मुनासिब न था,
सैलाब पुख्ता काबिल था, बाकी सारा शहर मिटा दिया ।
श्रद्धा और सियासत की दुकानें न मिटा सका,
सैलाब समझदार था, बाकी सारा मिटा दिया ।