(1)
मेरी ज़िन्दगी भी क्या है
अश्कों का सिलसिला है, ग़मों का हुजूम है।
(2)
अफसुर्दा मेरी ज़िन्दगी में कुछ भला तो है
मेरी कोई नहीं न सही आपका तो है।
(3)
हमने तो आँधियो में भी रोशन किये चिराग़,
खू़नेजिगर जला के चरागा़ँ किया तो है।
(4)
ऐसा नहीें कि कश्ती को साहिल नहीं मिला,
कश्ती मेरी डूबी सदा, साहिल के आस-पास।
(5)
जिसको तलाशते रहे हम उम्रभर ‘कसक‘,
अबजाँ बलबह में वहीे मंज़िल दिखाई दी।
(6)
आँखें खुली हुई हैं, बीमार की ‘कसक‘,
साँसें भी थम चुकी हैं, अब किसका इन्तिज़ार।
(7)
दिल के किसी गोशे में छुपा बैठा है अबतक,
वह जिसकी भूल पाने में सदियाँ गुज़रगई।
(8)
माना कि मंज़िलों को पाना था ज़रूरी,
आसाँ नहीें था मुश्किल ‘ए‘ हालात झेलना।
(9)
क्या पता थाकभी ऐसा भी वक़्त आयेगा।
अपनी ही ख़ता पर हम ताउम्र पशेमा होंगे।
(10)
शिफ़ा माँगो न तुम उस चारागर से,
चाहत ने जिसकी तुमको बीमार कर दिया।
मिथिलेश शर्मा ‘कसक‘