VIJAY KUMAR SAPPATTI
DISCLAIMER: इस कहानी में उपयुक्त हुए नाम, संस्थाए, जगह, घटनाएं इत्यादि का उपयोग सिर्फ और सिर्फ कहानी को मनोरंजक बनाने के लिए किया गया है। किसी भी व्यक्ति या संस्था से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है, कृपया इस कथा को मुक्त हास्य में ले; पर/और दिल पर न ले !!! कथा में निहित व्यंग्य को समझिये ! धन्यवाद !
हिंदी साहित्य का अखाड़ा
::: भाग एक:::
बहुत समय पहले की बात है। मुझे एक पागल कुत्ते ने काटा और मैंने हिंदी
साहित्यकार बनने का फैसला कर लिया। ये दूसरी बार था कि मुझे किसी पागल
कुत्ते ने काटा था और मैं अपनी ज़िन्दगी से जुड़ा हुआ कोई महत्वपूर्ण फैसला
कर रहा था। पहली बार जब एक महादुष्ट पागल कुत्ते ने काटा था तो मैंने शादी
करने का फैसला किया था, उस फैसले पर आज भी अफ़सोस है; खैर वो कहानी फिर कभी
!
तो हुआ यूँ कि उस कुत्ते ने मुझे काटा और जब मुझे हॉस्पिटल में इंजेक्शन
लगाए जा रहे थे तो मैंने सोचा कि इस घटना पर कुछ लिखना चाहिए [ दरअसल मुझे
दर्द बहुत हो रहा था,इसलिए नर्स को देखने की भी इच्छा नहीं हो रही थी और
मेरे मन में उस कुत्ते को ढूंढकर उसे पत्थरों से मारने की बड़ी इच्छा हो रही
थी ]; तो गुस्से में मैंने एक फैसला लिया कि मैं इस घटना पर एक कविता जरुर
लिखूंगा।
तो यारो मुझे इंजेक्शन लग गए, दर्द थोडा कम हुआ, नर्स थोड़ी खुबसूरत लगी और
डॉक्टर का बिल थोडा ज्यादा लगा। बहुत गुस्से में मैं बाहर निकला, सड़क के
किनारे से कुछ पत्थर अपनी जेब में डाले और उस कुत्ते की खोज में निकल पड़ा।
सोच लिया आज या तो वो कुत्ता नहीं या मैं नहीं !
बहुत देर तक उसे खोजा, वो कहीं नहीं मिला। गुस्से में बडबडाते हुए मैं अपने
घर पहुंचा। बीबी ने पुछा, “क्या हुआ, कहाँ थे, फिर दोस्तों के साथ मटरगश्ती
कर रहे थे क्या?” बस फिर क्या था। मेरा गुस्सा फूट पड़ा, मैंने कहा, “बेकार
की बाते मत करो, मुझे कुत्ते ने काट दिया था, इंजेक्शन लेकर आ रहा हूँ।
हमेशा मेरे पीछे मत पड़ा करो।”
बीबी ने मेरी बात काटकर कहा, “लो और सुन लो, कौन कह रहा है ये बात। अरे भूल
गए, तुम मेरे पीछे घूमते थे, शादी कर लो। शादी कर लो। नहीं तो मैं मर
जाऊँगा। कुछ याद आया? कभी भी ये बात नहीं भूलना कि तुम मेरे पीछे पड़े थे,
मैं नहीं ! समझे ! आईंदा ऐसी बात दोबारा की तो मुझसे बुरा कोई न होंगा,
समझे ?”
मैंने बैल की तरह समझ गए वाले अंदाज में अपना सर हिलाया।
वो गुर्रा कर बोली, “मेरी बला से और दो –तीन कुत्ते तुम्हे काट ले!”
मैं चुप ही रहा, गलत जगह गुस्सा दिखाने का नतीजा सामने था। हालांकि मैं
बोलना चाह रहा था कि, “अरे जिस दिन से तुमसे शादी की है, मेरा जीना हराम हो
गया है, मैं जीते जी मर गया हूँ। तुम रोज अपनी कडवी जुबान से जितनी और जो
जो बाते मुझसे कहती हो, वो कुते के काटे जाने से ज्यादा ही होते है। तुमसे
बुरा कोई और क्या होंगा” ऐसे ही कई बाते मैं कहना चाहता था, पर you know, I
am a gentleman सो ऐसी बाते नहीं कहूँगा [ आप लोग समझदार हो, पानी में रहकर
मगरमच्छ से आज तक किसी ने बैर किया है, जो मैं करूँगा ! ही ही ही ( typical
खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे अवतार ) और क्या मैं पागल हूँ, जो ऐसी भयानक
गलती करूँगा ]
तो थोड़ी देर तक घर में अखाडे का माहौल रहा। नतीजा ये हुआ कि बीबी ने आज
ऑफिस के लिए लंच का डब्बा नहीं दिया !
मैं अपने दफ्तर के लिए निकल पड़ा। रास्ते में मेरे दोस्त बाबू से मुलाकात
हुई, हमने अपनी-अपनी स्कूटर सड़क के किनारे लगाई और फिर अपनी मनपसंद चाय के
ठेले से दो कट चाय लेकर पीने लगे, इधर उधर की बातो के बाद, जब मैंने पैसे
देने के लिए जेब में हाथ डाला तो वो पत्थर हाथ में आये, मुझे फिर गुस्सा आ
गया। मैंने वो सारे पत्थर निकाल कर फेंक दिए, बाबू ने ये देखा तो हँसते हुए
कहने लगा, “अबे मुरारी, पागल हो गया है क्या, जो पत्थर जेब मे लेकर घूम रहा
है। या फिर भाभी से मार पड़ी है ! हा हा हा !”
मेरा दिमाग तो गरम था ही, मैंने उसका कालर पकड़ कर उसे एक झापड़ मारा, उसने
ने भी काफी दिनों से शायद किसी को पीटा नहीं था, सो, उसने भी मुझे एक घूँसा
मारा। बस फिर क्या था। चाय के ठेले के पास अखाडा बन गया, हम दोनों ने एक
दुसरे को खूब मारा। आस पास के लोगो ने पहले तो तमाशा देखा, फिर हमें बचाने
के लिए आये। हम दोनों ने गुस्से से एक दुसरे को देखते हुआ कहा, “साले आज तो
बच गया, बाद में देखूंगा “और अपनी अपनी स्कूटर उठायी और ऑफिस की ओर चल दिए,
दोनों एक ही जगह पर काम करते थे।
थोड़ी दूर जाने के बाद ऑफिस के पहले एक तालाब आता था, मैं उसके पास रुक गया।
स्कूटर पार्क किया और पानी के पास जाकर बैठ गया। थोड़ी देर में बाबू भी मेरे
पास आकर बैठ गया। उसने मेरी तरफ हाथ बढ़ाया, मैंने देखा, कुछ मूंगफली थी,
मैंने चुपचाप ले लिए, आखिरकार वो १५ साल पुराना दोस्त था। उसने मुझे सॉरी
कहा और मैंने उसे।
फिर मैंने उसे कुत्ते के काटने की कहानी बतायी, वो जोर जोर से हंसने लगा,
“साले ! तुझे काटने के कारण वो कुत्ता जरुर पागल हो गया होंगा“ मैंने
गुस्से में उसे देखा और उसे एक घूँसा मारा। उसने मुझे एक घूँसा मारा, हम
फिर लड़ने के लिए तैयार हो गए। फिर हम रुक गए और जोर जोर से हंसने लगे।
मैंने कहा, “यार बाबू, दिल बहुत दुखी है, सोचता हूँ अपने दुःख पर एक कविता
लिखूं।”
उसने कहा, “अबे तो लिखना, कौन रोक रहा है। जिसे रोकना है वो घर में बैठी
है, हा हा हा“
हम दोनों ने फिर ठहाका लगाया।
मैंने कहा, “सुन अर्ज किया है”
उसने कहा, “हां बोल”
मैंने कहा, “अर्ज किया है”
उसने कहा “अबे अब आगे तो बोल सही। ऑफिस भी तो जाना है “
मैंने कहा, “हां यार; ये तो अच्छी लाइन हो गयी। सुन“
“पागल कुत्ते ने मुझे काटा है
मुझे उससे बदला लेना है
पर क्या करे यारो,
मुझे ऑफिस भी तो जाना है !”
बाबू ये सुनकर जोर जोर से हंसने लगा और कहा, “हाँ यार ये सही है। इसे
पूरी लिख ले और कहीं पर छपने को भेज दे।”
मैंने सहमती में सर हिलाया और उससे कहा, “आज से मेरे भीतर में एक
साहित्यकार ने जन्म लिया है”
उसने मुझे दो मूंगफली और दी और कहा, “और साले तुझे अपने साहित्य के लिए ये
मूंगफली का इनाम मिल गया,ये समझ ले।” हम दोनों हँसते हुए ऑफिस चले।
ऑफिस में सब मेरी अस्त-व्यस्त हालत देखकर खूब हंस रहे थे।
बॉस ने मुझे देखा और सहानुभूति के स्वर में कहा, “देखो यार घर में चाहे
जितना भी झगडा हो, ऑफिस में उसका प्रदर्शन नहीं करना चाहिए।”
मुझे बहुत गुस्सा आया, पर मेरे लिए मेरी बीबी और मेरे बॉस, दोनों ही बहुत
अहम थे। मैं खून के घूँट पीकर रह गया।
लंच के वक़्त बाबू आया। मुझे भूखा बैठा देखकर वो मुझे कैंटीन लेकर गया और
वहां पर रोटी सब्जी खिलाया। खाने के बाद उसने मुझे पुछा, “अबे कुछ और लिखा
है, या वही पर रुक गया है।”
मैंने उसे देखकर मुस्कराते हुए कहा, “लिखा है न यार, सुन, अर्ज किया है,”
उसने मुझे रोका और अपनी शर्ट के बटन खोलते हुए कहा, “साले एक बार और अर्ज
बोलेंगा तो मैं तुझे पीट दूंगा। यहीं पर। सच में।“
मैं खिसिया गया, मैंने कहा, “अच्छा सुन !”
“पागल कुत्ते ने मुझे काटा है
मुझे उससे बदला लेना है
पर क्या करे यारो,
मुझे ऑफिस भी तो जाना है
बॉस पर गुस्सा बहुत आता है
पर क्या करे, तनख्वाह तो उसी से लेना है
दुनिया की ऐसी की तैसी हो जाये
अब मुझे लिखकर जवाब देना है
मुझे साहित्यकार बन जाना है।”
मैं चुप हुआ, देखा तो बाबू भी चुप था। उसने कहा, “यार कुछ ज्यादा मज़ा
नहीं आ रहा है। खैर अभी तो शुरुवात है। तू लिखते रह। और इसे कहीं छपने को
भेज दे।“
मैंने उस कविता को शहर के कुछ अखबार और पत्रिकाओ में भेज दिया। सभी ने उसे
वापस कर दिया। और मुझे नेक सलाह दी कि मैंने लिखना छोड़ देना चाहिए। एक
बन्दे ने यह तक कह दिया कि मैं चाय की दूकान खोल लूं, लेकिन लिखूं नहीं !
उसके बाद मैंने कई कविताएं और कहानियाँ लिखी, और कई जगहों पर छपने के लिए
भेजी, पर कहीं से कोई जवाब नहीं आया। एक दो बार कुछ संपादको से बात हुई तो
उन्होंने बताया कि मेरी कविताएं और कहानियाँ पढना तो छोड़ो, देखने के भी
लायक नहीं रहती है। मैं बहुत निराश था। बहुत दुखी था। बाबू भी मेरे दुःख से
परेशान था, उसे मुफ्त की चाय और समोसे जो नहीं मिल पाते थे। उसने कुछ लोगो
से बाते की और साहित्य जगत के बारे में कुछ जानकारी इकठ्ठा की।
फिर एक दिन रविवार की छुट्ठी थी, वो सुबह सुबह मेरे घर आया, मेरी पत्नी से
कहा कि भाभी आपके हाथ का स्वादिष्ट नाश्ता खाए हुए बहुत दिन हो गए है। कुछ
बना कर खिलाईए न, भाभी उसकी चापलूसी पर खुश हो गयी और पकोड़े और चाय बनाकर
ला दिए, मैंने भी उसकी लगी थाली में हाथ मार लिया। थोड़ी देर बाद बाबू ने
धीरे से कहा, “चल तुझे एक महान इंसान से मिलाता हूँ।“
हम दोनों निकल पड़े, वो मुझे शहर के पुराने मोहल्ले के एक पुराने से घर में
ले गया, घर के दरवाजे के बाहर लिखा था। “बाबा की कुटिया“। मैंने बाबू से
कहा, “अबे ये, इतना बड़ा घर कुटिया है? तो फिर हमारे घर क्या है!” बाबू ने
हँसते हुए कहा, “अबे मुरारी, हमारे घर चिड़िया का घोंसला है।” मैं भी हंसने
लगा।
इतने में घर का दरवाजा खुला और एक उम्रदराज बूढ़े आदमी ने बाहर कदम रखा।
उन्होंने बाबू को देखा और मुस्कराया और फिर मेरी ओर देखकर पुछा, “तो ये है
वो बकरा”
“बकरा” शब्द सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आया, फिर भी वो उम्रदराज थे और बाबू पर
मुझे पूरा भरोसा था, इसलिए उन्हें प्रणाम किया और पैर छुए।
उन्होंने भीतर आने का इशारा किया।
हमें सामने के कमरे में बिठाया और फिर भीतर गए, थोड़ी देर बाद उन्होंने
हमारे लिए कुछ नाश्ता लाया। उन्होंने इशारा किया और बाबू भूखो की तरह
नाश्ते पर टूट पड़ा, मैंने कहा, “अबे अभी तो घर पर इतना खा कर आया है। इतनी
जल्दी भूख लग गयी?”
बाबू ने कहा, “अबे भूख का क्या है,कभी तो कहीं भी लग सकती है और कुछ भूख तो
आदिम होती है, वो ख़त्म ही नहीं होती।“
ये सुनकर बूढ़े बाबा ने कहा, “जैसे तुम्हारे साहित्यकार बनने की भूख !”
मैंने उनकी ओर गौर से देखा, उनकी उम्र काफी थी, उनका अनुभव भी बहुत ज्यादा
था। मुझे उन्होंने अपने पास बिठाया और कहा, “देखो बेटा, मेरा असली नाम तो
कुछ और था लेकिन अब सब मुझे लिटरेचर बाबा के नाम से ही जानते है। और मैं
तुम जैसे साहित्य के भूखे दुखियारो की मदद करता हूँ इसलिए मेरा नाम लिटरेचर
बाबा पड़ गया।”
मैंने उन्हें फिर से प्रणाम किया और कहा, “बाबा मेरी मदद करिए, मेरे लिखे
को कोई नहीं पढता है, सभी मेरी कविता और कहानी को रिजेक्ट कर देते है। कुछ
करिए।”
लिटरेचर बाबा ने एक गहरी सांस ली और कहा, “बेटा; तुम क्यों अपना सुन्दर सा
जीवन इस साहित्य के चक्कर में व्यर्थ करना चाहते हो, यहाँ तुम्हे कोई घास
नहीं डालेगा, तुम इस भीड़ में कहीं खोकर रह जाओगे और अपने मन की शान्ति खो
दोगे। यहाँ रोज नए झंझट होते है, फसाद होते है, लड़ाई –झगडा तो सुबह शाम
होते है, कोई किसी को पसंद नहीं करता है, पुराने साहित्यकार नए साहित्यकार
को आगे बढ़ने नहीं देता। तुम्हे आलोचक मार कर ही दम लेंगे। प्रकाशक उन्ही को
छापता है, जिनके नाम से कुछ किताबे बिक सके। तुम्हे कोई भी संपादक भाव नहीं
देंगा। तुम खुद को साहित्यकार बना कर जी का झंझाल मोल ले रहे हो।”
इतना कहकर वो हांफने लगे। मैंने उठकर उन्हें पानी पिलाया। उन्होंने मेरा
हाथ पकड़ा और कहा, “बेटा साहित्य की दुनिया कुछ अच्छी नहीं है, ये तुम्हारे
भीतर के इंसान को मारकर उसे झूठा, दोगला, चालाक, चतुर, एक दुसरे की टांग
खींचने वाला, दुसरो के प्रति बुरा सोचने वाला और सबसे बुरी बात, खुद को
श्रेष्ठ साबित करने की दौड़ में शामिल करा देगा”
मैंने कुछ रूककर कहा, ”सारे साहित्यकार तो ऐसे नहीं होते है न”
उन्होंने हंसकर मुझे पुछा, “कितने साहित्यकारों को जानते हो ?”
मैंने कहा, “प्रेमचंद, बाबा नागार्जुन, रांगेय राघव इत्यादि।”
उन्होंने फिर हंसकर कहा, “बेटा मुरारी, ये सब अच्छे लोग तो अब इस धरती पर
नहीं है न, इनकी जगह पर दुसरे so called साहित्यकारों ने कब्ज़ा किया हुआ है
जो कि अपने आपको इनसे बढकर बतलाते है”
मैं गहरी सोच में पड़ गया !
लिटरेचर बाबा फिर भीतर गए और अपने लिए ड्रिंक्स लेकर आ गए, बाबू ने बड़ी आशा
से उन्हें देखा, बाबा ने उसे भी एक पैग बना कर दिया, फिर मुझसे पुछा, “तुम
लोंगे?“ मैंने कहा, “मैं पीता नहीं।“ बाबा बड़ी जोर से हँसे, और कहा, “अरे
पियेगा नहीं तो साहित्य की दुनिया में जियेगा कैसे? गोष्टियो में जब शामिल
होंगा,तो थोडा पीकर “सेट” होना पड़ेंगा न, तब ही कहीं जाकर तो मुंह से आवाज
निकलेंगी, दुसरो को नीचे दिखाकर आगे जो बढ़ना होता है न“
मैंने नकारात्मक ढंग से सर हिलाया और कहा, “नहीं जी, नहीं। मैं बिना पिए ही
साहित्य की दुनिया में अपना नाम बनाना चाहता हूँ ! और दुसरो को बिना नीचा
दिखाए अपने लिखे के बलबूते पर अपना नाम कमाना चाहता हूँ।”
बाबा ये सुनकर थोड़े शांत हो गए, गंभीर हो गए। फिर उन्होंने कहा, “ठीक है
मुरारी, तुम एक भले आदमी हो, मैं तुम्हारा गुरु बनने के लिए तैयार हूँ!”
मैंने उनके चरण छु लिए, उन्होंने आशीर्वाद दिया और कहा, “अब सामने बैठो और
मैं जो जो कहता हूँ वैसे वैसे करते जाओ !”
उन्होंने कहा, “सबसे पहले तो भैया; अपना नाम बदलो, ये मुरारी नाम नहीं
चलेंगा। कुछ और रख लो !”
मैंने कहा “बाबा, अब नाम क्यों बदलू, इसी नाम से पढाई किया है और इसी नाम
से शादी भी हुई और अब तो बच्चो के बाप का नाम भी यही है और आप कहते है कि
नाम बदल डालो ! बात कुछ जमी नहीं बाबा।”
बाबा ने हँसते हुए कहा, “साहित्य की दुनिया में कुछ फैंसी नाम चाहिए कुछ
नया, जो मन को अच्छा लगे। सुनने- पढने में अच्छा लगे।” फिर उन्होंने कुछ
सोचा और कहा, “अच्छा मुरारी के बदले में कृष्ण रख लो, एक ही तो बात है, कोई
पूछे तो कह देना कि उपनाम है। ठीक है?”
मैंने थोड़ी देर सोचा और कहा, ‘ठीक है जी।”
फिर बाबा ने एक घूँट और लिया, बाबू ने एक और पैग ले लिया था और बारबार हर
बात पर हंस देता था और मेरी ओर इशारे करके ठहाका लगाकर और जोर से हंसता था,
मैं उसे घूर कर देखता था।
बाबा ने कहा, “मुझे अपनी कविताये या कहानी दिखलाओ”
मैंने निकाल कर दिया, मेरा कागजो से भरा झोला तो हमेशा साथ में ही रहता था।
बाबा ने पढ़ा और कहा, “ये क्या लिखा है यार, कुछ ढंग का तो लिखो। ये कोई
कविता है? कहानी ऐसे लिखते है? बोलो? ये कुत्ते वाली कविता।।।।।।।ये कोई
कविता है बोलो? कचरा लिख कर रखे हो।”
मैं रोने लगा। बाबा थोड़े विचलित हो गए, बाबू भी रोने लगा [ वो नशे में ही
रो रहा था, पर मेरा साथ तो दे रहा था ] बाबा ने कहा, “अरे तुम दोनों चुप हो
जाओ रे।”
मैं सुबक रहा था, उन्होंने मुझे चुप कराया। फिर उन्होंने कहा, “क्या तुम इन
सब से बेहतर लिख सकते हो?”
मैंने कहा, “हां ! जी हां।”
बाबा ने कहा, “तो फिर लिखो और पत्रिकाओ को भेजो, फिर देखते है।”
मैंने उन्हें प्रणाम किया और बाबू को लेकर बाहर आया।
अब मुझमे एक नया जोश था, मैंने लिख कर भेजना शुरू किया, किसी ने नहीं छापा,
सबने वापस कर दी।
मैंने दो हफ्ते बाद बाबू के साथ फिर बाबा की शरण में पहुंचा।
बाबा ने ड्रिंक्स पीते हुए पूरे बात सुनी। और कहा, “एक काम करो मुरारी, तुम
किसी अच्छे विद्वान् साहित्यकार को अपनी कविता दिखाओ, और देखो कि इनमे क्या
बेहतरी उनमे बन सकती है।
मैंने और बाबू ने एक महान साहित्यकार को ढूँढा और उनके पास पहुंचे। उन्हें
अपनी कविता दिखाई और कहा, “सर, आप तो साहित्य में अच्छी पैठ रखते है, मैंने
कुछ लिखा हुआ है। आप अगर उनमे मौजूद गलतियों को ठीक कर देंगे तो मुझे बुहत
ख़ुशी होंगी, आपका आशीर्वाद मिल जायेंगा।“
उन्होंने मेरी कविताएं मेरे हाथ से ली और हम दोनों को बैठने को कहा। फिर
उन्होंने पूरी कविताएं मन ही मन में पढ़ी और कहा, “सुनो मुरारी, अभी मुझे
कुछ दिन दो, मैं कोशिश करूँगा कि, इसमें मैं कुछ सुधार कर सकू।”
हम दोनों ने उन्हें प्रणाम किया और बाहर की ओर प्रस्थान किया। इसी ख़ुशी में
बाबू ने समोसे मांगे, जो मैंने ख़ुशी ख़ुशी में दे दिए।
एक हफ्ते के बाद उन्होंने हमें बुलाया और कहा,” भाई मुरारी इसमें कुछ नहीं
हो सकता है, ये सब कविताएं; साहित्यिक स्तर की नहीं है, इनका कुछ नहीं हो
सकता है”
हम दोनों मुंह लटका कर बाहर निकले, बाबू ने मेरी उदासी को भांपते हुए मुझे
चाय वाले के ठेले से चाय और नमकीन बिस्किट खिलाये।
मैं अब उदास हो चला था। कुछ दिन मैंने कुछ नहीं लिखा। फिर एक महीने के बाद
मैंने अपनी ही कई कविताओ को कुछ बदले हुए अंदाज में बहुत सारी पत्रिकाओ में
छपा हुआ देखा, कवि/लेखक के नाम पर मैंने उस महान साहित्यकार का नाम लिखा
देखा। मेरा दिल जल गया, मैं और बाबू गुस्से में उस महान साहित्यकार के घर
पर पहुंचे। उन्होंने हमें कोल्ड ड्रिंक्स पिलाया और बिना हमारे पूछे हमसे
ये कहा, “ये दुनिया का दस्तूर है भाई, कल तुम भी यही करोंगे, जो मैंने आज
किया है, इसलिए गुस्से को नाली में थूक दो और आगे से बेहतर लिखो। मेरी
शुभकामनाये तुम्हारे साथ है।“
हम दोनों बहुत गुस्से में उबलते हुए लिटरेचर बाबा के घर पर पहुंचे।
बाबा ने सारी बात सुनी और कहा, “अब इस साहित्यिक दुनिया का यही दस्तूर है,
कोई क्या करे। छोडो, अब सुनो, अब तुम अपनी कविताएं लड़की के नाम से लिख कर
सभी को भेजो।”
मैं हडबडाया, मैंने कहा, “लड़की बनकर, ये क्या बात हुई?”
बाबा ने कहा, “छपना है तो जो कहता हूँ वो करो।”
मैंने वैसे ही किया। अब मैंने कृष्णा के नाम से अपनी रचनाओ को भेजा। उन
रचनाओ को सारी पत्रिकाओं ने छाप दिया। संपादको और आलोचकों ने बहुत तारीफ़
की। कुछ संपादको ने मिलने के लिए भी कहा।
और तो और, पाठको के पत्र आने लगे, बहुत पाठको ने तारीफ़ किया, कुछ ने प्रेम
प्रदर्शन भी कर दिया, कुछ ने शादी के लिए भी निमंत्रण दे दिया, इन सब बातो
से मेरा दिल जल गया।
जब भी कोई पाठक मुझे प्रेम निवेदन भेजता था, मैं गुस्से में अपने सर के बाल
नोच बैठता था, इसी बाल-नोचू प्रोग्राम के कारण मैं गंजा होने लगा।
और एक दिन तो हद ही हो गयी जब मेरे अपने दोस्त बाबु ने मुझे शादी का
निमंत्रण भेजा। मैंने ठान लिया कि अब हद हो गयी है, मैने बाबू को चाय की
दूकान पर ले गया और उसे उसका भेजा हुआ निमंत्रण दिखाया। बाबू ये देखकर खूब
हंसा, मुझे और गुस्सा आया और फिर मैंने उसे वहीँ पर दो चार घूंसे जमाये। वो
भी ताव में आ गया और मुझे पीटने लगा। चाय का ठेला फिर कुछ देर के लिए अखाडा
बन गया। लोगो ने तमाशा देखा और फिर तालियाँ बजाई।
बाबू उठकर खड़ा हुआ, और कहा, “साले अपने दम पर लिख, अपने नाम से लिख, क्या
लडकियों के नाम से लिखता है। shame on you साले।”
मैंने सहमती में सर हिलाया। उसने अनजाने में ही बहुत बड़ी बात कह दी थी। हम
दोनों थोड़ी देर के बाद लिटरेचर बाबा के घर पहुंचे। उन्हें अपनी दास्ताँ
सुनाई। उन्होंने कहा, “चलो अब एक काम करो। तुम अंग्रेजी और दुसरे भाषाओ की
कहानी और कविता की चोरी करो और उन्हें थोड़ी फेर बदल के साथ लिखकर भेजो।”
मैंने कहा, “बाबा ये तो चोरी हुई न, मैं नहीं करूँगा।“
बाबा ने सुना और फिर अपने लिए शराब का एक पैग तैयार किया। बाबू भी अपने लिए
एक गिलास लेकर आ गया। बाबा ने उसे भी शराब दी और फिर एक घूँट लेकर मुझसे
कहा, “बेटा मुरारी, जैसा कह रहा हूँ वैसा कर, मैं तुझे एक दिन तेरी कुत्ते
वाली कविता पर लिटरेचर अकादमी का अवार्ड दिलवाऊंगा।”
मैंने सर हिलाया, बाबू फिर जोर से ठहाका मारकर हंसा और मेरी पीठ पर एक धौल
जमाया।
मैंने अंग्रेजी और दूसरी भाषो की कहानियाँ और उपन्यास को पढ़ पढ़कर उनके
प्लाट चुराने शुरू किये और उनको थोडा फेर बदल कर लिखा और अपने नाम से
पत्रिकाओ को छपने भेजा। और फिर क्या था, मेरे अपने नाम से मेरी कहानियाँ
छपने लगी। अब मैं धीरे धीरे फेमस होने लगा था। कई पत्रिकाओ में छपने लगा
था।
हम लोग फिर लिटरेचर बाबा के पास पहुंचे, उन्होंने दो पैग लगाने के बाद कहा,
अब तुम पुरस्कारों के लिए अप्लाई करना शुरू करो।
मैंने कई जगह सम्मान के लिए आवेदन किया पर कहीं बात नहीं बनी, मैं थक गया।
मैं फिर रोते गाते लिटरेचर बाबा की शरण में पहुंचा, उन्होंने मेरी गाथा
सुनी और कहा, “इन सम्मान देने वाली समितियों को धन से मदद करो। ये तुम्हे
पुरस्कार देगे।“
बस फिर क्या था, करीब करीब हर सम्मान में मेरा नाम होने लगा। लोग मुझे बुला
बुलाकर पुरस्कार देने लगे। मुझे बड़ी ख़ुशी हुई, लेकिन इस ख़ुशी के पीछे, मेरे
वेतन बंटने लगा और करीब करीब हर दिन मेरे घर में अखाड़े का माहौल रहने लगा।
लेकिन साहित्य के पुरस्कार के लिए मैं कुछ भी सहने के लिए तैयार था।
ऐसे ही एक सम्मान कार्यक्रम में मैंने ५०००/- रुपये दिए और बदले में एक
शाल, एक नारियल और एक प्रमाणपत्र लेकर आया, ये एक अच्छा बड़ा सा पुरस्कार
था, मैंने बाबू और बाबा को पार्टी दी, जब टेबल पर खाना आया तो, बाबू ने
खाना खाने से इनकार कर दिया और नशे में चिल्लाकर बोला, “अबे साले; दुसरो की
मेहनत से लिखे कहानी और कविता के प्लॉट्स चुराकर लिखता है और उस पर पैसे
देकर पुरस्कार खरीदता है ! अपने दम पर कुछ लिख कर पुरस्कार ला, फिर पार्टी
देना।“
मैं क्या कहता ! उस रात किसी ने खाना नहीं खाया, सिर्फ लिटरेचर बाबा ने
खाया। और मुझे देखते हुए कहा “अब तुम ये करो कि अंग्रेजी और दूसरी भाषाओ का
साहित्य पढो, उनकी रचनाओ का मर्म समझो और उसे बेस बनाकर कहानियाँ या कविता
लिखो।“
मैंने फिर बैल की तरह सर हिलाया और कुछ महीनो के लिए अज्ञातवास में चला गया
और करीब १००० किताबे पढ़ डाली, अब मुझे बहुत कुछ समझ में आ रहा था कि कैसे
लिखा जाता है। मैंने धीरे धीरे कविताएं और कहानिया लिखना शुरू किया। भले ही
विदेशी या दूसरी भाषो का साहित्य का अंश मेरी रचनाओ में रहता हो, पर मैं ही
अब अच्छे तरह से लिखने लगा। दूसरी भाषाओ से प्रेरित होकर और बेहतर लिखना
शुरू किया, और इस तरह से मैं अपने दम पर ही अब लिख रहा था। और बाबू इस बात
से बहुत खुश था।
और उन्हें मैंने पत्रिकाओ में छपने के लिए भेजना शुरू किया। कुछ समय लगा,
पर अब ये भी छपने लगी, मेरा पहले ही कुछ नाम हो चूका था और धीरे धीरे
प्रसद्धि मिलने लगी।
फिर कुछ साहित्यकारों ने कहा यार अपनी किताबे छपवा लो, मैंने कई प्रकाशकों
के पास अपनी कविता और कहानी की पांडुलिपि भेजी, पर सबने यही कहा, यार कुछ
रूपए दो तो छपवा देंगे, सिर्फ तुम्हारे नाम से छपे, अभी तुम इतने बड़े नहीं
हुए हो।
कुछ दिनों के बाद, मैं फिर लिटरेचर बाबा की शरण में था। बाबा ने कहा, “देखो
मुरारी, अगर सहित्य के जगत में आगे की यात्रा करनी है तो भाई किताबे तो
छपवाना ही पड़ेंगा। और अब जो ट्रेंड है, उसके चलते तुम्हे तो पैसे देकर ही
छपवाना पड़ेंगा।“
मैं मरता न क्या करता की स्तिथि में पहुँच चूका था, सो कुछ प्रकाशकों की
शरण में गया, अपनी गाढ़ी कमाई उन्हें सौंपी और किताबे छपवाई। बहुत सी
साहित्यिक समितियों को अपनी किताबे भेजी, नाम हुआ, पुरस्कार मिला और मेरी
साहित्य की गाड़ी चल पड़ी।
अब मुझे साहित्यिक गोष्टियो में बुलाया जाना लगा, मेरा नाम होने लगा अब मैं
पूर्ण रूप से एक साहित्यकार बन गया था। लिटरेचर बाबा की कृपा थी। और बाबू
जैसे जानदार दोस्त का साथ !
::: भाग २:::
अब पत्रिकाओ और किताबो और अखबारों में मेरी कविताएं और कहानिया छपने लगी
थी। कभी कभी कोई पुरस्कार भी मिल जाता था। और यदा कदा सम्मान भी होते रहते
थे। साल में एक या दो किताबे भी छपने लगी थी। और महीने में एक या दो
गोष्टियाँ जरुर होती थी। मुझे भी बुलाया जाता था। कविता या कहानी पाठ होता
था। एक दुसरे की बुराई भी होती थी। नयी लेखिकाओ पर डोरे डाले जाते थे और
शराब पीने के बाद प्रकाशकों से या साथी लेखको से लड़ाई झगडा भी होता था। कुल
मिलाकर बात ये थी कि मैं साहित्यकार बन गया था और साहित्य के क्षेत्र में
मेरा अपना थोडा नाम भी हो चला था। हाँ ये बात अलग है कि इन सबके चलते मेरी
बीबी और बॉस से डांट खाना और बढ़ गया था और मेरे रुपये भी बड़े खर्च हो जाते
थे। खैर जी, साहित्यकार बनने की ख़ुशी कोई कम न थी।
समय बीतता रहा और फिर पता चला कि वही पुराने महान साहित्यकार महोदय,
जिन्होंने कभी मेरी कविताओ को अपने नाम से छापा था; अब लिटरेचर अकादमी के
अध्यक्ष बन गए है। लिटरेचर बाबा मेरी किताबे और कविताओ के बण्डल के साथ
राजधानी पहुंचे। और उस महान साहित्यकार से भेंट की और मेरे लेखन का पूरा
पुलिंदा उन्हें सौंप दिया और उनसे कहा, “महोदय, जिन सीढीयो पर आप पाँव रखकर
यहाँ तक पहुंचे हो, उनमे से एक सीढ़ी इस बालक मुरारी की भी है। याद है इसकी
कविताये, जिन्हें आपने अपना मानकर छपवा लिया था। अब समय आ गया है कि आप भी
इसे कुछ वापस करे। जीवन तो लेने और देने का ही तो नाम है न भाई।“ अध्यक्ष
महोदय ने बैल की तरह सर हिलाया और भाई-भतीजावाद की प्रथा को जीवीत रखते हुए
मेरा नाम लिटरेचर अकादमी के अवार्ड के लिए स्वीकार कर लिया।
और फिर एक दिन मेरे लिए एक महान खबर लेकर आया; ये दिन मेरी ज़िन्दगी का सबसे
बड़े दिनों में एक था। मेरी कुत्ते वाली कविता को लिटरेचर अकादमी का सबसे
बड़ा पुरस्कार मिला था। संपादको और निर्णायको ने उस कविता को इस सदी के सबसे
महान कविता का दर्जा दिया और मुझे १,००,०००/- का नकद पुरस्कार की घोषणा
हुई। उन दिनों लिटरेचर अकादमी के अध्यक्ष वही महान साहित्यकार थे,जिन्होंने
मेरी कविताएं अपने नाम से छाप ली थी। मुझे लग रहा था कि अकादमी में भी लोग
अपने ही लोगो को ज्यादा फेवर करते है। खैर मुझे क्या !
मैं बहुत खुश हुआ, ये मेरे लिए मेरी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा तोहफा था। बहुत से
अखबारों में मेरी तस्वीर छपी और मेरा इंटरव्यू छपा। टीवी पर मेरे इंटरव्यू
आये। पत्रिकाओ और किताबो में नाम हुआ। मेरे बॉस ने मुझे तरक्की दे दी। और
बीबी ने डांटना बंद कर दिया। लिटरेचर बाबा और बाबू रोज मुझसे दावत मांगने
लगे। वो दोनों खूब हँसते थे।
पर पता नहीं क्या बात थी; मैं दिन पर दिन चुप होते चला गया। मेरे मन के
भीतर कुछ द्वंध सा चल रहा था। मेरी ख़ुशी धीरे धीरे मिटने लगी; मन के भीतर
सतत एक आन्दोलन चल रहा था, मेरे भीतर कुछ अच्छा सा महसूस नहीं हो रहा था।
और फिर एक दिन मुझे देश की राजधानी में बुलाया गया और एक रंगारंग समोराह
हुआ। मैं, बाबू और लिटरेचर बाबा; हम तीनो वहां गए थे। बहुत देर तक भाषणबाजी
हुई। और फिर अंत में मुझे बुलाया गया। मुझे १,००,००० /- नकद दिए गए। मुझे
एक अच्छी शाल ओढ़ी गयी, एक नारियल दिया गया और एक मोमेंटो और प्रमाणपत्र
दिया गया। और फिर मंच पर उपस्थित महान साहित्यकारों ने मेरी उस कुत्ते वाली
कविता के बारे में कहा कि वो एक महान क्रांतिकारी कविता है, उसमे मौजूद
बिम्ब आज के आदमी के जीवन के बारे में सटीक व्याख्या देते है। इत्यादि बातो
से उस कविता की तारीफ की गयी। मेरे सामने बाबू और लिटरेचर बाबा बैठकर मुंह
दबाकर हंस रहे थे और मैं खामोश था। खैर, अंत में मुझे दो शब्द बोलने के लिए
कहा गया।
मैं खड़ा हुआ और बोलना शुरू किया।
“आप सभी साहित्यकारों को मेरा प्रणाम। और मेरे मित्र बाबू को एक प्यारा सा
आलिंगन और लिटरेचर बाबा को प्रणाम। क्योंकि ये दोनों नहीं होते तो मैं आज
यहाँ नहीं होता। कुछ तालियाँ इन दोनों के लिए भी हो जाए।“
कुछ देर तक तालियाँ बजी। मैंने देखा कि बाबू अपनी आँखे पोंछ रहा है
मैंने आगे कहा, “दोस्तों, आप सभी को मेरी कुत्ते वाली कविता पसंद आई, ये
वाकई मेरे लिए बहुत सौभाग्य की बात है। आप सभी ने उस कविता में इतने अर्थ
ढूंढ निकाले, जो कि खुद मुझे ही पता नहीं थे। आप सभी का पुनः धन्यवाद। मैं
दिल से आप सभी का आभारी हूँ।“ [ तालियाँ बजी ]
“लेकिन कुछ साल पहले की बात है, जब ये कविता पूरी तरह से रिजेक्ट कर दी गयी
थी, आप में से कई संपादको के द्वारा फेंक दी गयी थी और इसे कूड़ा कहा गया था
और बड़े आश्चर्य की बात है की आज इसे लिटरेचर अकादेमी का सर्वोच्च पुरस्कार
मिल रहा है। कमाल है ! और ऐसा कमाल सिर्फ हिंदी साहित्य में ही होता है ये
बात नहीं, करीब करीब हर तरह के साहित्य माफिया में ये ही सब होता है, जो
मेरे साथ हुआ है।“
एक खामोशी हाल में छा गयी, सब मेरी ओर ध्यान से देखने लगे। इतने में किसी
मनचले ने सीटी भी बजा दी। किसी ने कहा “जियो मुरारी - जियो लल्ला !”
मैंने आगे कहा, “और इससे क्या साबित होता है। या तो उस वक़्त इस कविता को
आंकने वाले आप जैसे ज्ञानी नहीं रहे होंगे या फिर आज आप सभी ने उस कविता को
गलत आंका है। कोई तो बात है। या तो मैं साहित्यकार हूँ और आप सभी
साहित्यकार नहीं है या फिर आप सभी साहित्यकार है और मैं नहीं !”
मेरी आवाज़ कुछ तेज हुई, “कभी आप सभी ने सोचा है कि ये क्या हो रहा है
साहित्य के क्षेत्र में ! एक अखाड़ा बना हुआ है ! क्या लिखा जा रहा है और
क्या सराहा जा रहा है ! किसे बढ़ावा दिया जा रहा है ! कौन आगे आ रहा है ! और
हम इस समाज को क्या दे रहे है ? समाज; हमारी प्रमुख जिम्मेदारियों में से
एक है और इसे हम अपने लेखन का घटियापन और गंदापन दे रहे है। हम समाज को और
नए पढने लिखने वालो को ये शिक्षा दे रहे है कि लिखने के नाम पर, नए लेखन के
नाम पर, नए प्रयोग के नाम पर सिर्फ वही गंदगी परोसो, जो समाज में छाई हुई
है। ever anyone thought on this; as what are we giving back to young
minds ? As a writer, we have to write, because we are here to bring some
change in the society! And this is the only way that we can contribute
our share to this world for a change! लेकिन हम आज ऐसा नहीं कर रहे है और
ये एक भयानक सत्य है! एक ऐसा सत्य जो कि दो पीढ़ियों को एक साथ ही ख़त्म कर
रहा है।“
एक भयानक सी ख़ामोशी पूरे हाल में छायी हुई थी।
मैंने आगे कहा, “लेकिन आज क्या हो रहा है, ये देखिये ! माफ़ कीजिये,
प्रेमचंद या बाबा नागार्जुन या रांघेय राघव ने या राकेश मोहन इत्यादि
साहित्यकारों ने ऐसे लेखको के बारे में स्वप्न नहीं देखा था, जो आज हमारे
साहित्य के क्षेत्र में बसे हुए है। आज किसी को लिखने की लालसा नहीं है,
बल्कि पुरस्कार की लालसा है, सम्मान की लालसा है, किताब छापने की लालसा है,
प्रसिद्द होने की लालसा है और धन कमाने की लालसा है, मैं भी कोई अपवाद
नहीं; पर इन सबके पीछे दोषी कौन है। आप सभी और आप सभी के कारण आज का लेखक
लिखता नहीं है बल्कि वो सब करता है, जो मैंने कहा है। और यही बात सबसे
भयानक है।“
मैंने सांस ली और पानी पिया, मेरे मन का गुबार निकल रहा था।
मैंने फिर आगे कहा, “आज साहित्य एक बहुत बड़ा अखाड़ा बन कर रह गया है।
हम,अपना ज्यादा वक्त इसमें लगाते है कि दूसरे ने क्या लिखा। जबकि हमने ये
सोचना चाहिए कि हम क्या लिख रहे है।आज की साहित्यिक दुनिया कितनी बदल गयी
है। रचनात्मकता के बदले में आपस में बैर पैदा हो रहा है। हम ने साहित्य को
क्या से क्या बना दिया।”
‘आज का दौर अब कुछ ऐसा बन गया है कि साहित्य के नाम पर सिर्फ शोर ही रह गया
है, सब कुछ personal preference में रख दिया गया है, जिसे चाहो रखो, जिसे
चाहो हटा दो। किसी को गाली दी जा रही है। कोई मारपीट पर अमादा है। कोई
moral policing पर उतारू है। लोग दूसरो के बारे में ज्यादा लिख रहे है।
चारो तरफ मचे इस दुखद शोर में अच्छा लिखने वालो की गति खराब हो गयी है।
मतलब ये कि साहित्य का अच्छा ख़ासा तालाब अब गन्दा हो चूका है वो भी सिर्फ
चंद so called साहित्यकारों की वजह से।
“दोस्तों; यहाँ सवाल नीयत का है। सवाल attitude का है। सवाल identity crisis का है। सवाल एक नकली अधिपत्य का है। सवाल एक दमित मानसिकता का है। सवाल एक दुसरो को सहित्य जैसे एक पब्लिक प्लेटफोर्म पर नीचा दिखाने का है। सवाल सिर्फ और सिर्फ दंभ का है। और सवाल यूँ ही बेवजह फसाद करने का है। न खुद शांत रहो और न ही दुसरो को शांत रहने दो। ये क्या है। हम खुद के सामने और अपने ईश्वर के सामने क्या साबित करने जा रहे है।”
“क्या कभी कोई सोचता है कि What exactly went wrong in the world of HINDI literature? हम में से किसी ने इस विषय पर soul searching नहीं किया। बात बहुत सीधी सी है। हम में से कुछ लोग ऊपर बैठकर judgment करने लगे। दुसरो के लिखावट और तौर तरीको पर और उनके लेखन में मौजूद विषयो पर अपना निर्णय देने लगे। वो ये भूल गए कि साहित्य का बहुत सीधा सा मकसद ये ही था और ये है है कि अपनी creativity को एक प्लेटफार्म दो। कुछ लिखो, कुछ ज्ञान की गंगा बहाओ। और उन दिनों ये सब बहुत अच्छे से होता था और आज भी होता है। उन दिनों सभी खुश रहते थे, सिवाय कुछ हलकी झड़पो के अलावा। लेकिन आज तो हिंदी साहित्य का क्षेत्र बाकायदा अखाड़ा बन गया है। लिखने के नाम पर बस दोषारोपण ही किया जा रहा है। क्यों हम ऐसे हो गए है। जिनके साथ मिल कर हँसते थे, अब उनसे लड़ने के बहाने ढूंढें जाते है। हम कहाँ से कहाँ आ गए। साहित्य के क्षेत्र का जो हाल बना हुआ है आजकल उसे देखकर सिर्फ दुःख ही होता है। क्या करने चले थे और क्या हो रहा है। सिर्फ कांव कांव मच रही है सारे झमेले में न हिंदी बच रही है और न ही साहित्य। हम लोगो ने अब हिंदी साहित्य को समाज का ही extension बना लिया है। बस सिर्फ शोर ही बचा है।
“तो दोस्तों। क्या हमें ये अधिकार है कि हम दुसरो के लेखन पर ऊँगली उठाये, उसे भला बुरा कहे। नहीं दोस्तों नहीं। हम अपने आपको कब तक स्वंयभू ठेकेदार मानेंगे तथाकथित हिंदी साहित्य के। सारी समस्या इस बात की है कि हम अपने अहंकार को अपने पर लाद कर हिंदी साहित्य के शीर्ष सिंहासन पर बैठना चाहते है। और साथ ही दूसरों के लेखन में अच्छा बुरा ढूँढना चाहते है। लेकिन याद रहे कि प्रभु ईशा ने भी यही कहा है कि पहला पत्थर वो मारे जिसने पाप न किया हो। हम पहले अपने लेखन को परखे और दुसरो को क्यों JUDGE करे।”
“नहीं दोस्तों, ऐसा नहीं होना चाहिए। हर आने वाली पीढ़ी अपनी पिछले पीढ़ी को देखती है उनसे कुछ सीखना चाहती है और हम उन्हें क्या दे रहे है। और ये हम सभी का कर्त्तव्य है कि हम एक मिसाल पेश करे अपने आने वाली पीढ़ी के लिए। हमें ये सोचना है की हमने ये सब करके क्या खोया है क्योंकि सिवाय मन की झूठी ख़ुशी के अलावा हमने कुछ भी नहीं पाया है।”
“आज एक सोच की जरुरत है। एक नए आयाम की जरुरत है। हम पहले इंसान बने, फिर दोस्त बने और अंत में अपने कर्म के लिए लेखक बने। लेकिन आज हम सिर्फ नकली इंसान बनकर रह गए है। न ही दोस्त रहे और जब दोस्त नहीं रहे तो इंसान भी नहीं रहे। जीवन क्षणभंगुर है। तो क्या हम दुसरो के दिलो में अपने लिए वैमनस्य छोड़ जायेंगे। और फिर हमें ये सोचना है कि, इस सारी प्रक्रिया में हमारी खुद की creativity ही मर गयी है। जो अच्छी कविता,कहानी, व्यंग्य, आलेख और लेख लिखते थे वो अब सिर्फ दुसरो के लिए लिखते है। कहाँ जा रहे है हम।“
मैंने एक लम्बी सांस ली और पानी पिया और आगे कहने लगा, “आप सभी सोचिये कि आप सभी किस तरह के साहित्यकार को पैदा करने की कवायद में लगे हुए है। आप सभी एक पूरे युग के साहित्य को मारने के षड्यंत्र में शामिल है, जाने अनजाने ही सही; पर हाँ; आप सभी दोषी है। आज देखिये क्या हो रहा है। नए लेखन और अगर यौन मुक्तता के नाम पर यदि ग्राफ़िक डिटेल्स लिख देता है तो उसकी कहानी पहले छप जाती है। और अगर ये कथा कोई लेखिका लिखे तो तुरंत से भी जल्दी में कुछ हो तो उसी स्पीड में छप जाती है। और तो और उसे नयी कहानी के नाम पर अवार्ड भी मिल जाता है। क्या कर रहे है हम। क्यों हम लेखन के नाम पर पढने वालो को tantalising कर रहे है। क्या गंदगी में और साहित्य में कोई अंतर नहीं। लिखने वाले फिर वही लिखते है, जो छपता है, फिर अच्छे और बुरे लेखन का फर्क ख़त्म हो जाता है। मेरे जैसे दुसरे लेखक देखते है कि उनकी मानवता वाली कविता या दोस्ती पर लिखी कहानी नहीं छप रही है तो वो खून के घूँट पीकर रह जाते है। धीरे धीरे वो लिखना बंद कर देते है। और एक अच्छा सा लेखक, एक बहुत अच्छा लेखक बनने से पहले ख़त्म हो जाता है, मर जाता है। और आप सब होते है उसके हत्यारे !!! हाँ !”
पूरे हाल में पिन ड्राप सायलेंस था।
मैंने फिर पानी पिया और आयोजक की ओर देखते हुए गुस्से से कहा, “पानी की जगह
दारु रखा करो, साहित्यकार का असली रंग तो दारु पीने के बाद ही तो पता चलता
है”
एक हलकी हंसी हाल में दौड़ पड़ी, मैंने देखा कि बाबू सबसे ज्यादा ठहाका लगा
रहा है।
आयोजक ने कुछ गुस्से में कहा, “इतनी बड़ी बड़ी बाते करते हो, तुम तो मंटो के
मुरीद हो, क्या उसने ये सब नहीं लिखा ?”
मैंने कहा, “हाँ मैं मुरीद हूँ पर उसकी उन कहानियो का, जिन्होंने उस वक़्त
के समाज को दर्शाया। मैं कायल हूँ टोबा टेकसिंह और खोल दो जैसी कहानियो का,
लेकिन बू जैसी कहानिया मुझे सख्त नापसंद है। लेकिन कहाँ मंटो और कहाँ ये
आजकल के लिखने वाले और उनको छापने वाले। मैं अपनी पसंद नहीं बता रहा हूँ
मैं ये कह रहा हूँ कि हम एक बेहतर समाज की रचना तब ही कर सकते है जब एक
बेहतर साहित्य लिखा जा सके। और ये तब ही होगा जब हम सभी साफ़ सुथरा और बेहतर
लिखने का प्रयास करे।”
मैंने एक गहरी सांस ली।
मैंने फिर कहा, “साहित्य समाज का दर्पण है लेकिन ठीक उसी समय वो समाज को
दुरस्त करने का सबसे बड़ा उपाय भी है। दलित लेखन ने समाज में एक बदलाव लाया।
हास्य-व्यंग्य में लिखी गयी कहानिया का कुछ असर समाज में जी रहे इंसान पर
हुआ। प्रेमचंद की कहानियो ने एक बेहतर समाज का सपना देखने के लिए हम सबको
प्रेरित किया। अमृता, गुलज़ार आदि ने प्रेम को स्वीकार करने की बात कही।
बुल्ले शाह तथा दुसरे सूफी संतो ने अध्यात्म को एक नया अर्थ दिया। पर आज
क्या हो रहा है। प्रेम के नाम पर शरीर के बारे में लिखा जाता है। अध्यात्म
के नाम पर धर्मांध बनाया जाता है। और एक बेहतर समाज के बदले में एक quick
life को कैसे अपनाया जाए ये बता दिया जाता है। और इन सब को लिख पढ़कर
साहित्यकार को पुरस्कार और सम्मान की चाह हो जाती है”
तभी किसी मनचले ने चिल्लाया, “ओये मुरारी; तेरा क्या, तुझे तो अवार्ड मिल
गया न, तू कोई अलग है क्या?“
मैंने कहा, “हां, मैं अब अलग हूँ, जब मैंने अपनी साहित्यिक यात्रा शुरू की
थी, तो मैं भी इसी भेडचाल का शिकार हुआ था और कई तरह के अलग अलग दांव पेंच
लगा कर मैं यहाँ तक पहुँच पाया हूँ, लेकिन इस पूरी यात्रा में सच कहता हूँ
यारो, मेरी सृजनात्मकता ख़त्म हो गयी ! मेरे भीतर का लेखक मर गया। और ये
मेरा आखरी अवार्ड है। न मैं इस के बाद लिखने वाला हूँ और न ही किसी अवार्ड
को लेनेवाला हूँ लेकिन जाते जाते मैं यही कहूँगा कि आप सभी से मेरा एक
विनम्र निवेदन है; एक नयी धारा को स्थान दीजिये, एक नए लेखक को जन्म लेने
दीजिये। साहित्यकार को और साहित्य को जीते जी मत मारिये। उन दोनों को जीने
दीजिये, उन्हें जीवित रखेंगे तो एक पूरी पीढ़ी आपका आभार मानेंगी ! और मैं
ये भी कहना चाहूँगा आपसे की अच्छे लिखने वाले और अच्छा पढने वाले दोनों ही
मौजूद है इस संसार में। आप सभी बस उन्हें परखे, उन्हें मौका दे। दोस्तों।।
It’s high time that we all should wake up and makes a new great platform
for all the new writers। आईये, सारे झगडे झंझटो को पीछे छोड़े और एक बेहतर
हिंदी साहित्य जगत की ओर अग्रसर हो जाए। आईये कुछ बेहतर करे कि अब कोई मलाल
नहीं रहे।किसी को कोई दुःख न पहुंचे, अपनत्व बांटे। प्यार बांटे। खुश रहे
और खुश रखे।यही जीवन है।”
“अंत में मैं अमृता प्रीतम की एक बात को यहाँ रखना चाहता हूँ, उन्होंने कहा था कि लेखन की सारी दुनिया में मसला सिर्फ और सिर्फ प्यार और व्यापार का ही है कि कौन अक्षरों को प्यार करते है और कौन इनका व्यापार करते है। और एक लेखक को इस बात का बहुत ध्यान रखना चाहिए।”
“तो, आज आप सभी से मैं विनम्र विनती करूँगा कि आईये, अक्षरों से प्रेम करे न कि उनकी सहायता से एक दुसरे पर वार करे। और शायद आज ही के इस दिन के लिए पाकिस्थान के एक शायर मजहर -उल- इस्लाम ने कभी लिखा था:
ऐ खुदा ! अदीबो के कहानियो और कलमो में
सच्चाई, अमन और मोहब्बत उतार !
ऐ खुदा ! लालटेन की रौशनी में लिखी हुई
इस दुआ को कबूल कर !
“आईये दोस्तों, हम अपनी कलम में सिर्फ दोस्ती और प्यार का रंग भरे और एक बेहतर और मजबूत और अपनत्व से भरी हुई हिंदी साहित्य को भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के हर कोने में जहाँ भी हिंदी पढ़ी, बोली और लिखी जाती है,स्थापित करे। इसी के साथ मैं अपने हिंदी साहित्य जगत की बेहतरी के लिए प्रार्थना करता हूँ।“
और दुष्यंत कुमार के एक खूबसूरत शेर के साथ आप सभी से विदा लेता हूँ।
"सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए !!”
“आपका धन्यवाद।“
अपने मन की बात कहकर मैं नीचे उतर गया। सारे हाल में एक सन्नाटा था।
सबसे पहले बाबू ने उठकर ताली बजाई और फिर लिटरेचर बाबा ने। और उस मनचले ने
सीटी बजाई और जोर से कहा, “ओये तू जिंदाबाद !” फिर सारे लोगो ने उठकर ताली
बजाई।
मैं सर झुकाकर, बाबू और लिटरेचर बाबा के साथ हाल से बाहर निकल गया।
मैं बाहर निकला, मेरा मन बहुत भरा हुआ था। आँखे कुछ भीगी सी थी। दिल में एक
तूफ़ान सा था।
बाहर निकलने पर मैंने देखा एक गरीब बूढी औरत ठण्ड के मारे कांप रही थी।
मैंने उसे सम्मान में मिली शाल दे दी। कुछ दूर पार्किंग तक जाने पर एक
बच्चा भीख मांगते हुए दिखा, उसे नारियल दे दिया।
उसी रात को, रात के फ्लाइट से हम तीनो अपने शहर पहुंचे।
फिर बाबा की गाड़ी में बैठकर मैं और बाबू अपने शहर के वृद्धाश्रम, विधवा
आश्रम और अनाथ बच्चो के आश्रम गए, जहाँ मैंने पूरी पुरस्कार राशि बाँट दी।
मन अब हल्का हो गया था। फिर मैं और बाबू, लिटरेचर बाबा के साथ अपने पुराने
चाय के ठेले पर गए। वो आधी रात के बाद भी खुला रहता था, हम जैसे लिखने वालो
के लिए और कड़ी मेहनत से पढ़कर परीक्षा में पास होने वाले बच्चो के लिए और
मजनुओ के लिए। वहां हमने चाय पी। मैंने वो मोमेंटो जो मुझे सम्मान में मिला
था बाबा के चरणों में रख दिया और फिर जेब में हाथ डाले सीटी बजाता हुआ चल
दिया।
वो सितम्बर का महीना था और मैं “come september” की धुन को बजा रहा था।
इतने में पीछे से बाबू ने आवाज दी, “अबे ओ साहित्यकार,एक कविता तो लिख ले।“
मैंने मुड़कर देखा और उसे अपना घूँसा दिखाया। हम सब जोरो से हंस पड़े।
घर पहुंचा तो अँधेरा सा था, जैसे ही मैंने सीढ़ी पर पाँव रखा, वहां पर सोये
हुए एक कुत्ते की पूँछ पर मेरा पैर पड़ गया और वो जोर से चिल्लाकर पीछे की
ओर मुड़ा और गुस्से में मेरे पैर को काट लिया। अब चिल्लाने की बारी मेरी थी।
कुत्ता भाग गया। घर की लाइट जली, बीबी ने दरवाजा खोला और कहा, “अरे! अब
क्या हुआ ?” मैने कहा, “अरे, एक कुत्ते ने फिर मुझे काट लिया है।” बीबी ने
कहा “अरे तो यहाँ क्यों खड़े हो, जाओ हॉस्पिटल में जाकर इंजेक्शन लगाओ। पता
नहीं ये कुत्ते तुम्हे ही क्यों काटते है !”
मैं मुड़ा और बडबडाते हुए हॉस्पिटल की ओर चल पड़ा। अचानक मेरे होंठो पर एक
मुस्कराहट आ गयी। कुत्ते ने काटा है, तो जरुर कुछ नया घटित होंगा मेरे जीवन
में। देखते है; वो कहानी फिर कभी !
VIJAY KUMAR SAPPATTI