‘साहित्य’ का अर्थ अत्यन्त व्यापक है। व्यवहारतः उसका प्रयोग शु( साहित्य
और काव्यमय साहित्य के लिए किया जाता है। कुछ विद्वान साहित्य का अर्थ कला
रूप में भी करते हैं। इसकी परिध् िमें साहित्य, संगीत, चित्रा, मूर्ति,
स्थापत्य आदि सारी कलाएँ आ जाती हैं। आज ‘कला’ शब्द इसी अर्थ को ध्वनित
करता है। परन्तु प्राचीन संस्कृतशास्त्रा में साहित्य को कला नहीं माना
जाता था। वहाँ ज्ञान के विभाजन को दो भागों में किया गया- विद्या और
उपविद्या। साहित्य को विद्या के अन्तर्गत माना गया और विभिन्न प्रकार की
कलाओं को उपविद्या के अन्तर्गत। साहित्य को कला से भिन्न मानने का कारण यह
था कि कला लौकिक मनोरंजन की वस्तु समझी और मानी जाती थी तथा साहित्य को
आत्मा की अभिव्यक्ति माना जाता था। कला द्वारा प्रदत्त आनंद लौकिक और
क्षणिक माना जाता था और साहित्य द्वारा प्रदत्त आनंद को ‘ब्रह्मानंदसहोदर’
माना गया। इसी भेद के कारण यहाँ साहित्य को विद्या और कला को उपविद्या कहा
गया है।
‘साहित्य’ शब्द अपने व्यापक अर्थ में समस्त वाघ्मय का द्योतक बन जाता है।
अर्थात् वाणी द्वारा जो कहा गया और लेखनी द्वारा जो रचा गया वह सब साहित्य
है। इसकी परिध् िमंे मानव का सब ज्ञान-विज्ञान आ जाता है। साहित्य की इस
व्यापक परिध् िमंे काव्य और शास्त्रा दोनों ही सिमट जाते हैं। रस प्रधन
साहित्य ‘काव्य’ कहलाता है और ज्ञान प्रधन साहित्य ‘शास्त्रा’। जीवन की
पूर्णता इन दोनों के अनुशीलन में ही मानी जाती है।
साहित्य में स्थिरता नहीं रहती। साहित्य और समाज का परस्पर अन्योन्याश्रित
सम्बन्ध् है। साहित्य का उत्पादन नहीं होता उसका तो सृजन होता है।
ज्ञान-विज्ञान की कोई भी शाखा साहित्य से अछूती नहीं रहती। मानव में
सृजनशीलता होती है। जीवन की विभिन्न परिस्थितियाँ एवं घटनाएँ उसके कोमल
हृदय पर अमिट छाप छोड़ जाती हैं। मनुष्य अपनी इन अनुभूतियों को व्यक्त करने
के लिए बेचैन रहता है। उसकी इस अभिव्यक्ति से ही वास्तव में साहित्य का
जन्म होता है।
साहित्य शब्द अपने व्यापक अर्थ में समस्त वाघ्मय का द्योतक बन जाता है।
अर्थात् वाणी द्वारा जा कुछ भी कहा या रचा गया है, वह सब साहित्य है। इसकी
परिध् िमें मानव का सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान आ जाता है। आज का साहित्य
विज्ञान की शक्ति के साथ ताल-मेल नहीं मिला पा रहा है। साहित्य जब तक मानव
विकास के इतिहास को पूर्ण रूप से चरितार्थ नहीं करेगा तब तक वह अपने में
अध्ूरा रहेगा क्योंकि साहित्य मानवीय संस्कृति का ही सृजित रूप है। साहित्य
का प्रमुख उद्देश्य जीवन क्रिया को उत्तेजित और समृ( करना है न कि उसे रु(
करना। स्वयं अज्ञेय के अनुसार- ‘‘साहित्य भाषा में लिखा जाता है और भाषा
निरंतर बदलती हुई गतिमान चीज़ है। भाषा के परिर्वतनों का साहित्य के अध्ययन
के लिए बहुत महत्त्व है, लेकिन भाषाविद् का सन्दर्भ एक है, साहित्य के
प्रणेता और अध्येता का दूसरा।’’ साहित्य विचारों एवं मान्यताओं की सुन्दर
एवं लालित्यपूर्ण अभिव्यक्ति है। वह मानव मूल्यों की स्थापना का माध्यम है।
भले ही साहित्य हस्तलिखित ग्रंथों में लिखा जाने से पहले कई शतियों तक
वाचिक परम्परा में ही चलता रहा हो।
हिन्दी साहित्य का विकास विभिन्न रूपों में आज तक होता रहा है। अज्ञेय ने
ऐसे समय में एक वाद को आधर बनाकर लिखना आरम्भ किया जिसमें परतन्त्राता एवं
स्वतन्त्राता के समय के साहित्यकारों से हटकर के साहित्यिक सृजन किया। इनके
सृजन को प्रयोगवाद का नाम दिया गया। अज्ञेय के साहित्य का मूलाधर प्रामाणिक
अनुभूति तथा अनुभव की परिपक्वता है। अनुभूति और अनुभव ही साहित्य को मिलकर
गढ़ते हैं। साहित्य में भावना की सच्चाई के साथ-साथ कल्याणकारिकता का समावेश
भी अपरिहार्य रूप से होना चाहिए।
मानव मन अतल और अथाह है। जीवन की विभिन्न परिस्थितियाँ एवं घटनाएँ उसके
कोमल हृदय पर अमिट छाप छोड़ती हैं। मनुष्य इन अनुभूतियों को व्यक्त करने के
लिए आकुल रहता है। उसकी इस अभिव्यक्ति से ही साहित्य का जन्म होता है। वैसे
तो आज के इस विविध्तामय युग मंे साहित्य की भी अनेक विधएँ हो चुकी हैं तथा
साहित्य पर आज तक अनेक छोटे-बड़े विद्वानों द्वारा आने वाली पीढ़ी को शोध्
सम्बन्ध्ी विपुल काम करने को छोड़ गए हैं। मेरी रुचि काव्य के विवेचन
विश्लेषण में रही है। भारतेन्दु से लेकर अज्ञेय तक विभिन्न सोपानों में
साहित्य मूल्यांकन सम्बन्ध्ी चिन्तन परिष्कृत होता हुआ मौलिकता को प्राप्त
करता है। छायावादोत्तर कवियों ने मौलिक चिन्तन के आधर पर नवीन साहित्यिक
मान्यताओं का उद्घाटन किया है। अज्ञेय ने अपनी काव्य कृतियों की भूमिकाओं
में तो मान्यताएँ प्रस्तुत की ही हैं, अपितु स्वतन्त्रा निबन्ध् लिखकर भी
साहित्य समीक्षा को समृ( किया है। अज्ञेय के साहित्य पर विभिन्न सन्दर्भों
से कार्य हो चुका है लेकिन साहित्यिक मान्यताओं को विशदता से प्रस्तुति
देने वाला कोई भी ग्रंथ नहीं है।
हिन्दी के छायावादोत्तर कवियों में मुझे अज्ञेय सबसे अच्छे कवि लगे हैं।
अज्ञेय सृजन के साथ-साथ समीक्षा का कार्य भी करते रहे हैं। साहित्य की
बहुत-सी गुत्थियाँ वे अपने निबन्धें और समीक्षापरक कृतियों में सुलझाते रहे
हैं। इनके इस तरह के दोनों कार्यों से मैं प्रभावित हुआ और मेरी इच्छा हुई
कि मैं इस कवि आलोचक के ऊपर शोध्कार्य करूँ। पिछले एक वर्ष से मैं निरन्तर
इनके समग्र साहित्य का अध्ययन करता रहा हूँ। अध्ययन करने के बाद मुझे लगा
कि इनकी साहित्यिक मान्याताएँ कहीं किसी एक पुस्तक में उपलब्ध् नहीं है।
इसलिए एक ऐसे कार्य की अपरिहार्य आवश्यकता रही है जिसमें इनकी समग्र
मान्यताओं को किसी एक कृति में स्थान दिया जा सके। इसलिए प्रस्तुत
शोध्-प्रबन्ध् ‘प्रयोगवादी काव्य-चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में अज्ञेय की
साहित्यिक मान्यताएँ’ की शुरूआत की गई है।
आलोचना का स्वतन्त्रा रूप आध्ुनिक काल में भारतेन्दु युग से ही प्रगट होता
है। इसमें रीतिकालीन परिपाटी का सवर्था अभाव होना सहसा एक नवीन मार्ग का
अभ्युदय होना है। इस युग में भारतेन्दु, द्विवेदी और शुक्ल द्वारा
हिन्दी-समीक्षा का समंजन हुआ। शुक्ल की प्रखर प्रतिभा तथा क्षमता से
प्राचीन व नवीन समीक्षा से एक नए युग का आरम्भ माना जा सकता है। शुक्लोत्तर
काल में हिन्दी-समीक्षा की बहुमुखी प्रगति हुई। जिसमें कवि-समीक्षकों की
भूमिका अध्कि प्रखर एवं निर्णायक रही है। यह समीक्षा स्वछंदतावादी,
प्रभाववादी, प्रगतिवादी आदि रूपों मंे जानी जाती है। इसमें कवि समीक्षकों
के योगदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता। कवि समीक्षकों में छायावादी कवियों
की स्थापनाएँ विशिष्ट स्थान रखती हैं। छायावादोत्तर रचनाकारों के उपरान्त
दिनकर ऐसे पहले रचनाकार रहे हैं जिन्होंने कवि एवं आलोचक के कर्म को
साथ-साथ निभाया। ये कवि समीक्षक मूलतः कवि थे। आलोचना करना इनका काव्य-कर्म
न था प्रायः रचनाकर्म के बीच से ही इनकी समीक्षापरक मान्यताएँ स्वतः निःसृत
हो गई।
अज्ञेय हिन्दी साहित्य के एक प्रतिभावान रचनाकार रहे हैं। उनके समान कीर्ति
कम ही साहित्यकारों को मिली है। आध्ुनिक हिन्दी साहित्य के सृजन में अज्ञेय
एक ऐसा नाम है जा न केवल बहुचर्चित और बहुप्रशंसित है अपितु हिन्दी-साहित्य
जगत् में अपनी बहुमुखी और विविध् आयामी प्रतिभा भी रखता है। वे जितने बड़े
कवि रहे हैं, उतने ही महान् कथाकार, चिन्तक और समीक्षक भी रहे हैं। उनका
व्यक्तित्व हिन्दी-साहित्य वालों की सामान्य परिध् िसे कुछ अलग और विशिष्ट
है। राजनीतिक विचारधराओं को वे निजी विवेक की कसौटी पर परख कर मानव की
गरिमा के अनुकूल मोड़ने के समर्थक रहे हैं। मनोविज्ञान के प्रकाश में
उन्होंने मानवीय सम्बन्धें की जटिलता को देखा परखा है और सब मिलाकर के वे
आध्ुनिक दृष्टि सम्पन्न रचनाकार रहे हैं। साहित्य के प्रति अज्ञेय की
निष्ठा एक सच्चे मानववादी की निष्ठा रही है। मानववादी साहित्य मनुष्य
मात्रा को अध्कि से अध्कि संवेदना देने में विश्वास करता है। अज्ञेय की
जीवन दृष्टि बौ(िक और निष्ठावादी रचनाकार की रही है।
हिन्दी समीक्षा के विकास में सृजनात्मक रचनाकरों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया
है। छायावादी कवियों ने विशेषकर इस सन्दर्भ में काफी योगदान दिया है।
छायावादोत्तर काव्य में सरजक रचनाकारों ने अपने स्वतन्त्रा विचारों के
द्वारा हिन्दी-समीक्षा के स्वरूप को एक नई धर दी। इनमें विशेष रूप से
दिनकर, माथुर, मुक्तिबोध् एवं अज्ञेय प्रमुख हंै। अज्ञेय के विचारों में
सृजन-प्रक्रिया के सन्दर्भ में ऐसी तटस्थता और सुन्दर व्यवस्था मिलती है,
जो प्रायः सरजक कलाकारों के यहाँ कम ही मिलती हैं। आगे के विचार मुख्यतः
सप्तकों की भूमिका में, पुस्तकों की भूमिका में एवं निबन्ध् संग्रहों में
प्राप्त होते हैं। अज्ञेय ने साहित्यकार की परिस्थिति और उसकी रचनाध्र्मिता
पर विशेष ध्यान दिया है। उन्होंने कई जगह अपने विचार व्यक्त किए हैं कि
आलोचना कर्म रचनाकार का ध्र्म नहीं है बल्कि यह एक आप्द ध्र्म है जिसका
निर्वाह रचनाकार को संकट की स्थिति में करना पड़ता है। अज्ञेय ने समय-समय पर
नवलेखन की कुछ कृतियों पर विचार करते समय साहित्य के मूलभूत प्रश्नों पर
अपने समाधन प्रस्तुत किए जिससे साहित्य समाज के उपर गहरा प्रभाव पड़ा।
अज्ञेय के काव्य, समीक्षा, निबन्ध्, उपन्यास आदि में सर्वत्रा जीवंतता एवं
मौलिकता के दर्शन होते हैं। इन्हीं कारणों से वे अन्य रचनाकारों से विशिष्ट
और भिन्न हो जाते हैं। प्रस्तुत शोध्-प्रबन्ध् में अज्ञेय के द्वारा अपने
साहित्य-सृजन मंे स्थान-स्थान पर जो मान्यताएँ प्रस्तुत की गई हैं, उन्हें
मात्रा एक स्थान पर प्रस्तुति देने का यह शोध्-प्रबन्ध् एक छोटा सा प्रयास
मात्रा है।
अज्ञेय के समग्र साहित्य के ऊपर विभिन्न दृष्टिकोणों से संतोषजनक कार्य हुआ
है। यहाँ कुछ महत्त्वपूर्ण कार्यों के बारे में उल्लेख करना अप्रासंगिक न
होगा। केदार शर्मा कृत ‘अज्ञेय साहित्य: प्रयोग एवं मूल्यांकन’ में अज्ञेय
के साहित्य को समकालीन साहित्य की पृष्ठभूमि में साहित्य की प्रवृतियों के
आधर पर विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है। प्रयोग और मूल्यांकन इस कृति
का मुख्य ध्येय रहा है। ओम प्रभाकर ने ‘अज्ञेय का कथा साहित्य’ में अज्ञेय
के कथा साहित्य, उपन्यास एवं कहानियों की आध्ुनिकता के आधर पर परखते हुए
स्थापना की है कि अज्ञेय का कथा-साहित्य शिल्प एवं भाव विधन की दृष्टि से
आध्ुनिक युग का प्रतिनिध्त्वि करता है। ओउम् अवस्थी कृत ‘अज्ञेय कवि’ ऐसी
कृति है जिसमें संस्कृति, निरामय आदि अध्यायों के अन्तर्गत अज्ञेय के चिंतन
को भारतीय संस्कृति के सन्दर्भ में विद्वता के साथ देखा एवं परखा गया है
किन्तु इसमें अज्ञेय के चिंतन पर पाश्चात्य प्रभाव को छोड़ दिया गया है।
केदार शर्मा विरचित ‘अज्ञेय की जीवन दृष्टि’ में अज्ञेय के विभिन्न
निबन्धें में आए विचारों को प्रस्तुति दी गयी है। ‘अज्ञेय की
अन्तःप्रक्रिया साहित्य’ में मध्ुरेश नंदन कुलश्रेष्ठ द्वारा अज्ञेय की
अंतःप्रक्रियाओं का विवेचन किया गया है। अज्ञेय की साहित्यिक मान्यताओं को
लेकर अभी तक कोई भी शोध् कार्य प्रकाश में नहीं आया है इसलिए प्रस्तुत शोध्
विषय पर कार्य करना आवश्यक है। कुछ पुस्तकें हैं जिनमें अज्ञेय की
साहित्यिक मान्यताओं को संक्षिप्त में स्थान मिला है। ये हैं- भगवत स्वरूप
विरचित ‘हिन्दी आलोचना का उद्भव और विकास’, राजकिशोर कक्कड़ रचित ‘आध्ुनिक
हिन्दी साहित्य में रचना का विकास’, सुरेश चन्द्र गुप्त लिखित ‘आध्ुनिक
हिन्दी कवियों के काव्य सि(ान्त’, वेंकट रचित ‘आध्ुनिक हिन्दी साहित्य में
समालोचना का विकास’, शिवकरण सिंह विरचित ‘आलोचना के आध्ुनिक विवाद’,
विश्वनाथ त्रिपाठी लिखित ’हिन्दी आलोचना आदि। इन पुस्तकों में अज्ञेय की
साहित्यिक मान्यताओं को बहुत कम स्थान दिया गया है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि अज्ञेय के साहित्य के ऊपर विभिन्न
दृष्टिकोणों से कार्य तो हुआ है लेकिन ‘प्रयोगवादी काव्य चिन्तन के
परिप्रेक्ष्य में अज्ञेय की साहित्यिक मान्यताएँ’ विषय पर न तो इस
विश्वविद्यालय में और न ही किसी अन्य विश्वविद्यालय में कार्य हुआ है। मेरा
मानना है कि मेरे इस शोध्कार्य के माध्यम से प्रयोगवादी साहित्यकार अज्ञेय
के बारे में कई नयी मान्यताएँ उभरकर सामने आएंगी।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में ही उसका जन्म तथा पालन-पोषण होता
है। समाज से अलग होकर व्यक्ति का व्यक्तित्व निखर नहीं सकता। वह अपने
परिवेश से प्रभावित रहता है। समाज में घटित होने वाले क्रियाकलापों का
प्रभाव मनुष्य पर भी पड़ता है। समाज में ही रचनाकारों का जन्म होता है। अतएव
प्रत्येक साहित्यकार समाज में होने वाली घटनाओं को अपने हृदय में संजोकर
उन्हें साहित्य के रूप में प्रस्तुत करता है। साहित्यकार जिन विचारों को
सामने रखता है, उनमें समाज का हित अवश्य होता है। क्योंकि बिना किसी
उद्देश्य के किसी भी वस्तु का महत्त्व नहीं होता। हिन्दी साहित्य के
विभिन्न युगों में अनेक कृती रचनाकारों ने जन्म लिया है। इन कृतिकारों ने
अपने-अपने समय में काव्य एवं साहित्य की नवीन उद्भावनाओं एवं अभिनव
प्रतिमानों की भी चर्चा की है। हिन्दी में ही नहीं अपितु प्राचीन संस्कृत
कवियों में भी ऐसे अनेक कवि हुए हैं जिन्होंने कवि कर्म के साथ-साथ आलोचक
की भूमिका भी साथ-साथ निभाई है।
हिन्दी साहित्य में भी संस्कृत साहित्य की भाँति कवि और आचार्य में
पर्याप्त भेद माना गया है। एक में भावतत्त्व की प्रमुखता होती है तो दूसरे
में विचारतत्त्व की। काव्य सृजन के लिए निश्चित मानदंडों या आदर्शों का
निर्धरण आचार्यत्व के द्वारा होता है। कवि में काव्य चिंतन की प्रवृत्ति
स्वाभाविक रूप में रहती ही है। प्रत्येक कवि प्रछन्न आलोचक भी होता ही है।
वह साहित्यगत भावों तथा सामाजिक अनुभूतियों के आलोक में अपने मनस्पटल में
विशेष दृष्टिकोण रखता है। जिसके आधर पर वह सृजन में प्रवृत्त होता है। कवि
या रचनाकार का यह दृष्टिकोण प्रकरणानुसार कृतियों में यत्रा-तत्रा झलकता
रहता है। कवियों का यह साहित्य सम्बन्ध्ी चिंतन अनुभूति समृ( होने के कारण
इस प्रकार की विवेचना में विशेष महत्त्व रखता है। रचनाकार इन मान्यताओं को
साध्य न मानकर साध्न के रूप में अपनाता है। हिन्दी साहित्य के कवियों ने
प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से अपनी मान्यताओं को प्रस्तुति देने हेतु
तथा विवादग्रस्त गुत्थियों को सुलझाने के लिए विस्तृत भूमिकाओं की अवतारणा
तो की ही है बल्कि स्वतन्त्रा लेखों का सृजन भी किया है। प्रस्तुत
शोध्-प्रबन्ध् में अज्ञेय की साहित्यिक मान्यताओं को स्पष्ट करने के लिए
उनके गद्य एवं पद्य इन दोनों विधओं में प्राप्त सामग्री को अपने शोध् का
विषय बनाने का प्रयत्न किया है। किसी काव्यधरा के विशेष रचनाकार के साहित्य
सम्बन्ध्ी दृष्टिकोण को गद्य एवं पद्य से स्वीकृत कर प्रस्तुति देना
अत्यन्त तर्कसंगत होगा। प्रस्तुत शोध्-प्रबन्ध् द्वारा इसी प्रकार का
प्रयास किया जा रहा है।