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हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फ़िर भी कम निकले । ------- गालिब
जब मैं चलूँ तो साया भी अपना साथ न दे,
जब तुम चलो, जमीन चले,आसमां चले । -------’जलील’ मानकपुरी
जिंदगी से तो क्या शिकायत हो,
मौत ने भी भुला दिया है हमें । ---------- अग्यात
उम्रे – दराज माँगकर लाये थे चार दिन,
दो आरजू में कट गये, दो इन्तजार में । ------- ’ज़फ़र’
जंगल में सांप, शहर में बसते हैं आदमी,
सांपों से बचके आये तो डसते हैं आदमी । ------ फ़ैज
जंगलों में सर पटकता जो मुसाफ़िर मर गया,
अब उसे आवाज देता कारवाँ आया तो क्या ? ----- ’जोश’ मलीहाबादी
घर से मस्जिद है बहुत दूर, चलो यूँ कर लें,
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये । ------ निदा फ़ाज़ली
मिट्टी का जिस्म लेकर चले हो तो सोच लो,
स रास्ते में एक समंदर भी आयेगा । ------- सलीम शाहिद
कुछ ढेर राख के हैं, कुछ अधजली सी लकड़ी,
आया था एक मुसाफ़िर सराये- जिंदगी में । ----- ’ज़मील’ मजहरी
तेरी सूरत से किसी की नहीं मिलती सूरत,
हम जहाँ में तेरी तस्वीर लिये फ़िरते हैं । ------ ’नासिख’
"इंतज़ार "
कह दिया "इंतज़ार करना कल तक के लिए "
टाल देंगे हम भी मरना कल तक के लिए....
समेट लेगा ख़त उनका आते ही अपने आप मे ,
पड़ेगा हमें सिर्फ़ बिखरना कल तक के लिए .... Surender Kumar "Abhinn"