इक बेदर्द नें होठों से तबस्सुम लेकर,
मेरी आँखों में आब-ए-चश्म दे गया 'निर्भय'
इस मुल्क के सर का ताज़ हैं बच्चे|
अतीत गौरव की आवाज हैं बच्चे||
नेहरु नें सपनें देखे जिन फ़ज़ल-ओ-आदाब की,
'विनोद' उन सपनों के इक आगाज़ हैं बच्चे|
अख्ज़-बेदर्द जमानें ने तबस्सुम ना दिया,
वो तो फिर भी आब-ए-चश्म दे गया 'निर्भय'|
इक यादगार मौत की जुस्तजू के सिवा,
जिन्दगी ! कुछ उम्मीद ना रखी तुझसे|
खुदा के परस्तिश में ये काम कर लेना|
मोहर्रम पे 'नबी' का पैगाम पढ लेना||
जो लोग मुफ़लिसी तले लाचार जीते है,
"निर्भय" एक ईबादत उनके भी नाम कर लेना|
*परस्तिश(आराधना)
*नबी(ईश्वरदूत)
जबकि निश्तेज थे पुरुषार्थ और फ़ज़ल मेरे,
क़जा को मगर मदद को पुकारा नही........
फिरदौस की गुजारिश ना की कभी "निर्भय"
कातिब हूँ मैं क़फ़स में तो गुजारा नहीं..........
*फ़ज़ल(गुण) /
क़जा(भाग्य) / फ़ईरदौस(स्वर्ग) / गुज़अरिश(प्रार्थना/माँग) /
कातिब(लेखक)
/ क़फ़स(पिंजरा)
हर शील-संस्कार को स्वच्छन्द दरकिनार कर,
यूँ जिन्दगी तलाश में मज़धार चली आबरु|
सियासत को सेवा का नाम देकर "निर्भय",
रख लिया कानून को कदमों तले उसनें|
आपकी तारीफ के पुलिन्दे तो हम भी गढ सकते है.........
हमारा प्यार मग़र चँद लफ्जों का मोहताज़ नहीं........
ये सुनकर कि प्रेम में भगवान का वास है,
लोग वासना में खुदा का पैगाम ढुँढनें चले........
हाथों में स्वार्थ और लोभ का दीप लेकर,
कुछ बन्दे जंगलों में ईमान ढुँढनें चले........
जब भी वो बालों को सुलझातीं हैं|
हवा तेज होकर बार-बार उलझाती है||
तुमसे खुशनशीब वो हवायें हैं "निर्भय",
साँसों से होकर उनके दिल तक उतर जाती है|
ईमाँ वालों की फरियादें कौन सुनता है यहाँ,
रशूख का न्याय से रिस्ता रहा है जब तलक "निर्भय"|
शोर करती हुई पायल,तेरे कंगन की खनखन,
हँसी गुज़रा जमाना अब तलक है याद मुझको|
श्नेह-ममता की घुट्टी पिलाती है माँ,
तब दिल में मानवता का बसर होता है|
बफा तुमसे करके सिला कैसी पाई|
ज़रा ये बता क्या कमी हममें पाई||
कुसूर है नहीं इसमें "निर्भय" तुम्हारा,
हर हसीनों की आदत बनी बेवफाई|
तुम्हें किस कदर चाहतें हैं कैसे बतायें "निर्भय",
जूबाँ से तारीफ हो सकती है प्यार नहीं|
ग़र पढ सको तो आँखें हैं सब बतानें को,
जूबाँ के शब्द-जाल पर मुझे ऐतबार नही||
उठेंगी जिस तरफ पलकें उधर मैं नज़र आऊँगा|
भूलाकर देख लेना तुम,तुम्हें मैं याद आऊँगा||
चला हूँ छोड़कर दुनिया तुम्हारे इश्क में बेसक,
तेरी यादों से जानेंमन कभी ना दूर जाऊँगा|
तख्त़-ओ-ताज की वो माँग क्या करें "निर्भय",
नाम गुज़रा हो जिनका लब से तेरे जिक्र होकर|
तुम फूल हो गुलाब का ये है पता "निर्भय",
काँटों से मग़र दामन झुड़ाना नहीं अच्छा|
पाक आचरण पाक ईमान कर लिया|
मन का कोना-कोना मुक्तिधाम कर लिया||
मिट्टी के चिराग की बिसात "निर्भय" जानकर,
हमनें लाफ़अनी रुह का दीदार कर लिया|
छोटी-छोटी बातों पे तुम रुठ जाते हो "निर्भय"..........
शायद मनानें का मेरा अन्दाज तुम्हें पसन्द हो !.............
~ विनोद यादव "निर्भय"