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रचानाएँ आमंत्रित
पीयूष कुमार द्विवेदी 'पूतू'
निकल सकती नहीं बेटी अकेली अब,
सताता डर उसे हरदम निगाहों का।
लगा बाजार ख्वाबोँ का मेरे दिल में,
न जाने कब उजड़ जाए यही डर है।
हवाएँ सर्द जो खामोश बहती हैं,
उन्होंने मुफलिसी से हार मानी है।
अभी तक मात पाई सिर्फ अपनो से,
ज़रा भी डर नहीं लगता जमाने से।
जला हूँ दूध से मैं तो न जाने कब,
पिया अब भी करूँ फूँक कर मट्ठा।
सबक इतना रखो बस याद जीवन का,
डरा जो शख्स रस्ते में मरा मानो।
किताबों में नहीं मिलतीँ कहानी वो,
सुनातीँ जो बिठा आगोश में नानी।
शहर सा गाँव बनता जा रहा देखो,
मगर बूढ़ा खड़ा बरगद वहीं पर है।
तराने-दर्द वो सुनने नहीं आए,
जिन्होंने राग ये मुझको सिखाया है।
लगाया बाग काँटोँ का कभी जिसने,
न जाने क्यूँ महक की चाह करता है।
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