दीपावली के तीसरे दिन भारत में हिन्दुमतावलम्बियों द्वारा भाई दूज का त्यौहार मनाने की परम्परा प्रचलन में है| मुझे याद है कि 1980 तक मेरे गॉंवों में केवल उच्चजातीय परिवारों के अलावा भाई दूज के त्यौहार का अन्य छोटी जाति के लोग कोई विशेष मतलब नहीं समझते थे| जैसे ही टीवी का घरों में आगमन हुआ, टीवी ने आर्यन, ब्राह्मण, एवं शहरी संस्कृति और बाजारवादी अपसंस्कृति को हर जगह पर पहुँचा दिया|
राखी तो पहले से ही भाई के लम्बे जीवन की कामना के लिये भाई की कलाई पर बॉंधी जाती रही है| राखी बॉंधने वाली बहिन भाई के माथे पर टीका भी लगाती है और अपने भाई के लिये मंगल कामना भी करती है| भाई दूज को भी यही सब दौहराया जाता है| इसमें किसी को कोई आपत्ति भी नहीं होनी चाहिये, क्योंकि मंगल कामनाएँ तो जितनी अधिक की जायें| आशीर्वाद जितना अधिक मिल सके, उतना ही सुखद है| यदि भाईयों को राखी तथा भाई दूज जेसे त्यौहारों के बहाने अपनी बहिनों की ओर से स्नेह, आशीर्वाद और मंगलकामनाएँ मिलती हैं तो यह एक खुशी और सौभाग्य की बात है, लेकिन सवाल यह है कि आखिर केवल भाईयों को ही ऐसी मंगल कामनाएँ क्यों? क्या भाई के रूप में पुरुष आज भी इतना असुरक्षित है कि उसके जीवन के लिये बहिनों को साल में दो-दो बार औपचारिक रूप से मंगल कामनाएँ ज्ञापित करनी पड़ रही है| जो पुरुष विवाहित हैं, उनके लम्बे जीवन के लिये प्रतिदिन उनकी जीवनसंगनी भगवान से कामना करती है| पत्नियों की ओर से रखे जाने वाले अनेक व्रत अपने पतियों की रक्षा एवं लम्बी आयु के लिये निर्धारित हैं| जिनमें से करवा चौथ का व्रत तो सर्वाधिक प्रचलित है| यह व्रत भी आज से 30-40 वर्ष पूर्व गॉंवों में केवल उच्च जातीय लोगों तक ही सीमित था| आजादी के बाद और टीवी की कृपा से आज उच्च जातीय सभी संस्कार और दिखावे निचली समझी जाने वाली सभी जातियों के लिये स्वाभिमान के सूचक, लेकिन साथ ही साथ आर्थिक बोझ भी बनते जा रहे हैं|
हॉं तो सवाल भाई दूज का? आखिर भाईयों पर ऐसी कौनसी मुसीबत आन पड़ी है, जिसके चलते बहिनों को साल में दो बार उनकी मंगल कामना करनी पड़ती है? जबकि बहनें रोजाना दहेज की बेदी पर चढाई जा रही हैं| पैदा होने से पूर्व ही उन्हें नवकत्लखाने अर्थात् नर्सिंगहोम कुचल रहे हैं| पशुवृत्ति का पुरुष सदैव की भांति आज भी नारी के मान-सम्मान और उसकी जिन्दगी को खिलौना मानकर खेलता रहता है| तकरीबन देश के सभी हिस्सों में स्त्री को अभी भी दोयम दर्जे की कमजोर और बुद्धिहीन नागरिक माना जाता है|
इस सबके उपरान्त भी पति, पिता या भाई के रूप में पुरुष की रक्षा और उसकी श्रृेष्ठता, उसकी लम्बी आयु आदि के लिये अनेकानेक प्रावधान हैं, लेकिन कन्या, पुत्री, पत्नी और माता के स्वाभिमान, जीवन और उसके स्वस्थ तथा लम्बे जीवन के लिये एक भी प्रावधान नहीं? आज जबकि कन्या भ्रूण हत्या जैसा कुकृत्य परोक्ष रूप से सामाजिक मान्यता प्राप्त कर चुका है, ऐसे में गर्भवति माताओं के गर्व में पल रही कन्याओं की रक्षा के लिये क्या कोई दिन भाई दूज की भॉंति निर्धारित नहीं किया जा सकता? क्या मनुस्मृति और अन्य ब्राह्मणग्रंथों में लिखे या बाद में जोड़े गये धार्मिक अनुष्ठान, व्रत और अन्य प्रावधान ही श्रृेष्ठ और सर्वस्वीकार्य होने चाहिये? समाज को वर्तमान की जरूरतों और आने वाले भविष्य की मुसीबतों के आसन्न संकट से बचाव के लिये नये प्रावधान रचने या बनाने पर विचार नहीं करना चाहिये? हमें अ���नी बहिनों को अभी भी अबूझ ही बने रहने देना चाहिये, या उनके जीवन की रक्षा के लिये भी कुछ किया जाना चाहिये? यह यक्ष प्रश्न आज के दौर (21वीं सदी) के भाईयों के सामने खड़ा है!