भाषा हमारे बीच रह कर जो काम करती है उससे हम जिंदगी भर उबर नहीं पाते।
बचपन में जिस भाषा- बोली से हमारा वास्ता पड़ता है उसी की बदौलत हम ताउम्र
अपनी भावनाओं, विचारों, प्रेम-घृणा, मित्रता-शत्रुता को प्रकट करते हैं।
लेकिन ताज्जुब तब होता है जब हम उसी भाषा की उपेक्षा करने लगते हैं। भाषा
के साथ की उपेक्षा दरअसल महज भाषा तक ही सीमित नहीं रह पाती, बल्कि वह
हमारी सांस्कृतिक धरोहर, परंपराओं तक संक्रमित होती है। इस बात से किसे
गुरेज होगा कि हर भाषा की अपनी प्रकृति होती है। जिसके मार्फत वह अपने साथ
समाज की तमाम परिवर्तनों को बदलते संस्कार और संस्कृति के साथ अगली पीढ़ी तक
पहुंचाने का काम करती है। जब एक भाषा हमारे बीच से उठ जाती है तो उसके साथ
चलने वाली अन्य उपधाराएं भी उसके संग लुप्त हो जाती हैं।
तकनीक विकास के साथ हमारी बोली वाणी में भी बदलाव आए हैं। यूं तो भाषा
वर्तमान युगीन चुनौतियों, मांगों के हिसाब से बदलती रही हैं। लेकिन उसके इस
बदलाव को दो स्तरों पर देख सकते हंै। पहला, आंतरिक स्तर पर जो निरंतर चलती
रहती है। यह हमें स्थूल आंखों से दिखाई नहीं देती। दूसरा, बाहरी स्तर पर
होने वाले परिवर्तनों को हम सभी महसूस करते हैं। किसी दूसरी भाषा के साथ
शब्दों, बिंबों, उपमाओं एवं अभिव्यक्ति के स्तर पर जब भाषा आपस में आवाजाही
करती है उसे बाहरी बदलाव कह सकते हैं।
भाषा को सीखने के साथ दो बातें हो सकती हैं। पहला, जब हम अपनी मातृ भाषा से
ऐतर कोई दूसरी भाषा सीखते हैं तब हमारी पहली भाषा सहायक तो होती है लेकिन
साथ ही संभावना इसकी भी बनती है कि वो दूसरी भाषा को सीखने में बाधा पैदा
करे। ऐसे में अपनी पहली भाषा पर बंदिश लगानी पड़ती है। जब कोई गैर अंग्रेजी
भाषी अंग्रेजी सीखता है उस दौरान वह अनुवाद का सहारा लेता है। पहले वाली
भाषा में सोचना फिर उसे टारगेट भाषा में अनुवाद करता है। इस प्रक्रिया में
वह पहली भाषा के व्याकरणिक परिपाटी से खासे प्रभावित होता है। जबकि हर भाषा
की अपनी तमीज़ और व्याकरणिक पद्धति होती है। इसलिए टारगेट भाषा को सीखते
वक्त स्वतंत्र रूप से उस भाषा को सीखना बेहतर होता है। दूसरा, जिस भाषा को
हम अपनी मां एवं परिवेश से बिना किसी अतिरिक्त श्रम के हासिल करते चलते हैं
उसके साथ उपरोक्त सिद्धांत नहीं चलते। क्योंकि मातृ भाषा को सीखने की
प्रक्रिया में पहले हम बोलने, सुनने के गुर सीखते हैं। लिखने-पढ़ने के कौशल
तो स्कूल व बड़े होने पर व्यवस्थित रूप से सीखते हैं। उपरोक्त दोनों ही
भाषाओं के सीखने में बुनियादी अंतर यह है कि दूसरी भाषा के साथ हमें ज्यादा
परिश्रम नहीं करना पड़ता। क्योंकि भाषा की बारिकियां हम व्यवहार से सीखते
हैं। इसलिए लिंग, वचन, कर्ता, कर्म आदि व्याकरणिक स्तर हमें व्यवहार से आ
जाती हंै। लेकिन यहां एक बड़ी गड़बड़ी यह होती है कि यदि उस भाषा व बोली में
उच्चारण, लिंग आदि के प्रयोग में लोग गलतियां करते हों तो वही गलती हमारे
संग हो लेती है। भाषा की इस तरह से बुनियादी गलतियां ताउम्र सालती हैं।
भाषा सीखने की सत्ववादियों और परिवेशवादियों की मान्यताओं की मानें तो हर
बच्चा भाषा सीखने की अपनी विशिष्ट क्षमता लेकर पैदा होता है, पर उसकी इस
क्षमता के निर्धारण में उसकी वर्तमान जीवन की परिस्थितियों के साथ-साथ उसकी
पीढ़ियों के भाषा संस्कार भी शामिल रहते हैं। भाषा सीखने की इस प्रक्रिया
में प्रायः पीढ़ियों का समय लग जाता है, यह मामला पैसा उपलब्ध होने पर अमीर
बस्ती में घर किराए पर लेने जैसा सहज नहीं है, क्योंकि इसके लिए अपना
सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश भी बदलना पड़ता, जिसकी प्रक्रिया अपनी गति और
मर्जी से चलती है।
भाषा को बरतने में जिस तरह की गलतियों की संभावना होती है वह व्याकरणिक
होती हैं। जिसके तहत उच्चारण, हिज़्जे, विभिन्न वणों मसलन उष्ण वर्ण,
महाप्राण वर्ण आदि के शब्दों को बोलते एवं लिखते वक्त जिस प्रकार की
सावधानी की जरूरत होती है उसकी कमी साफ देखी जा सकती है। इसके लिए अध्यापक
भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। जब खुद अध्यापक की वर्तनी अशुद्ध होगी, उच्चारण
में जिसे दीर्घ, लघु के नाम से जानते हैं। इसे ‘आम बोल चाल में छोटी ‘इ’ और
बड़ी ई की मात्रा के नाम से पुकारते हैं’ और अनुनासिक, अनुस्वार में अंतर
नहीं कर पाते। जिनके उच्चारण में ड, ड़, र, ल, ऋ, ष्, श, और स में फ़र्क नहीं
देख सकते। ऐसे में बच्चे मास्टर जी के लघु को दीर्घ और दीर्घ को लघु बोलने
पर हंसी उड़ाते हैं। बच्चों को शुद्ध उच्चारण की उम्मीद अपने घर में मां-बाप
एवं अन्य सदस्यों से करना पड़ता है। यह एक अलग विमर्श का मुद्दा है कि भाषा
की शुद्धता, मानकता भाषा के लिए कितना जरूरी है। इस बाबत आम धारणा यह बनी
हुई है कि यदि बोलने वाले की बात, भाव समझ में आ गए फिर उसने गलत उच्चारण
किया या लिंग दोष से मुक्त था या नहीं यह ज्यादा मायने नहीं रखता। भाषा का
मकसद यही है कि वह बोलने वाले को अपने विचार, भावनाओं को प्रकट करने में
मददगार हो। लेकिन भाषा की शुद्धता को लेकर भी तर्क दिए जाते रहे हैं
जिन्हें नकारा नहीं जा सकता। भाषा की शुद्धता अशुद्धता के इन तर्कों से परे
यदि विचार कर सकें तो वह यह हो सकता है कि भाषा में वैविध्यता एवं विभिन्न
बोलियों, उपबोलियों की छटाएं तो हों लेकिन साथ ही यदि भाषा को एक मानकीकृत
रूप नहीं देंगे तो ऐसे में एक दूसरी समस्या भी समानांतर खड़ी हो सकती है। वह
समस्या लेखन से लेकर उच्चारण एवं पठ्न- पाठन में अर्थ की दृष्टि से उलझने
पैदा करेंगी।
किसी भी भाषा में शब्दों के उच्चारण का खासा महत्व होता है। यदि स्वर व
व्यंजन वर्णों का उच्चारण शुद्ध न किया जाए तो लिखने, बोलने, सुनने एवं
पढ़ने के स्तर पर समस्या पैदा हो सकती है। भाषा की परिभाषा में हम पढ़ते आए
हैं कि भाषा के जरिए हम अपने विचारों, भावों आदि को अभिव्यक्त करते हैं।
यदि बोलने वाला शब्दों का सही उच्चारण नहीं करता तो उसकी भावाभिव्यक्ति में
बाधा पैदा हो सकती है। यह अलग बात है कि ऐसे में सुनने वाला आशय समझने के
लिए भाषा के वाचिक स्वरूप के अलावा अन्य रूपों का सहारा लेगा जिसमें आंगिक,
प्रतीक, संकेत आदि आते हैं। संस्कृत साहित्य में कहा गया है, ‘एको शब्दः
सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके कामधुक भवति’ इसका मतलब है एक शब्द का सही समुचित
प्रयोग स्वर्ग तुल्य खुशी देता है। वहीं दूसरी ओर शब्द को ‘शब्द इव
ब्रह्मः’ शब्द को ब्रह्म माना गया है। वहीं शब्द को नादब्रह्म भी माना जाता
है।