भारत में आर्थिक नीतियों में उदारी्करण के साथ भूमंडलीकरण और वैश्वीकरण के नाम पर, उदारवाद , उपभोक्तावाद और बाजारवाद धीरे- धीरे अपना पैर पसारना, बीसवीं सदी के अंतिम दशक से ही आरम्भ कर दिया । वैश्वीकरण भारत के आर्थिक और सामाजिक ढाँचे को आशा से अधिक प्रभावित किया, लेकिन समय के साथ इनमें परिवर्तन आने लगे । आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण ने एक नये पूंजीवाद के रूप को जनम दिया, जो कि देश के लिए हितकर नहीं हुआ । इन्हीं पूंजीवादियों के लिए हमारी सरकार को अपनी नीतियों में बदलाव लानी पड़ी, जिसमें कहा गया ’’स्वास्थ्य ,गरीबी और शिक्षा, आदमी की व्यक्तिगत जिम्मेदारी होगी, न कि सरकार की” ; जिसकी आलोचना और भर्त्सना , भारतीय कवियों एवं लेखकों ने, अपनी-अपनी भाषा के माध्यम से , पुरजोर किया और करना भी चाहिये । कहा जाता है ,जो काम तलवार नहीं कर सकता, उसे कलम बखूबी करता है । इसलिए जब-जब परिवेश साहित्य को प्रभावित किया है, तब-तब साहित्य भी परिवेश के ऊपर अपना असर डाला है । एक छोटी सी घटना ,मैं उदाहरण स्वरूप रखना चाहूँगी । जैसा कि सर्वविदित है, एक बार पंडित जवाहरलाल नेहरू के पाँव,संसद भवन की सीढ़ियों पर चढ़ते वक्त डगमगा गये थे । उनके पीछे महाकवि दिनकर चल रहे थे । उन्होंने झट से उनको अपने हाथ का सहारा देकर गिरने से बचा लिया । इस पर पंडित नेहरू ने दिनकर जी को धन्यवाद देते हुए कहा था,’ आपने मुझे बचा लिया, वरना आज मैं गिर जाता’ । उत्तर में दिनकर मुस्कुराते हुए बोले,’ कोई बात नहीं, इतिहास गवाह है, जब-जब राजनीति डगमगाई है, साहित्य ने उसे संभाला है ।’
मैं मानती हूँ कि कोई भी कवि , लेखक या रचनाकार , अपने भाव की सृजनता भले ही अकेले में करता हो, मगर उस एकांत क्षणों में भी ,उसका परिवेश ( अच्छा या बुरा ) उसके साथ होता है । समाज-परिवेश के बिना किसी प्रकार का सृजन करना असंभव है, भले ही उस क्षण को, उस रचना का महानायक लेखक की आँखों के सामने न हो ; लेकिन कल्पना में तो उसका चित्र रहता ही है, जिसे देखकर अपने साहित्य की रचना करता है । मेरा मानना है कि कवि कर्म की बुनियादी शर्त आत्म- सजगता होनी चाहिये । एक विचारशील और संवेदनशील कवि, लेखक को अपने परिवेश तथा समाज को देखने और परखने की कसौटी एक रखनी चाहिए । कारण परिवेश का क्षेत्र इतना व्यापक होता है कि उसके अन्तर्गत लेखक की वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक,राष्ट्रीय- अंतर्राष्ट्रीय से लेकर उन सभी साहित्यिक स्रोतों, प्रेरणाओं, आन्दोलनों को लिया जा सकता है जो कवि-लेखक को सृजन की प्रक्रिया में, किसी न किसी प्रकार प्रभावित करता हो । अत: कसौटी पर कसते वक्त दोनों में फ़र्क नहीं समझना चाहिये । तभी उसकी रचना, वैश्वीकरण और बाजारवाद के प्रभाव को सहने और , मानवीय गुणों को बचाये रखने में सक्षम होगी ।
ऐसे तो भूमंडलीकरण के तह तक अगर ईमानदारी से पहुँचा जाय, तब हमें यही पता चलता है कि यह भूमंडलीकरण अमेरिकी पूंजीवाद का उग्र रूप है ,जिसने सबसे पहले प्रकृति के तत्वों से खेलना शुरू किया, जो आलकल मानव समाज के लिये खतरा बन गया है । अमेरिकी बाजारवाद फ़ैलता हुआ पूरे विश्व को अपने आगोश में कस लिया है ,जिसे दबे स्वरों में अमेरिका भी मानता है , पर बात उठाने पर खुलकर विरोध करता है ।
आज के समय में इस भूमंडलीकरण का प्रभाव और बाजारवाद, समाज के हर तबके पर अपना दबदबा इतना मजबूत कर लिया है,कि समाज केवल उपभोक्ता बनकर रह गया है । उसका वस्तु और वस्तुओं के प्रवृत्तियों से किसी तरह का सम्बन्ध नहीं के बराबर है , जो कि मनुष्यता के लिये नुकसानदेह है । पर्यावरण को विध्वंशता की ओर जाते देख अगर कोई तबका उदास और चिंतित है, तो एक कवि,लेखक कम चिंतित नहीं है । दुनिया के समक्ष अपनी संवेदनशील आवाज उठाये रखने में जरा भी कोताही नहीं करता है । वैश्वीकरण ,जो कि कुछ सम्पन्न लोगों का व्यापार है, वे समाज को सुखी-सम्पन्न रखने के लिये नहीं करते, बल्कि उनका धंधा फ़ले-फ़ूले, उनके आर्थिक स्थिति पर कहीं कोई नुकसान न पहुँचाये, इस ख्याल से करते हैं । एक तरह से इस महँगी में आदमी के खाली पेट पर एक और लात, इससे हमारे समाज का एक वर्ग, तो चाँदी-सोने के पलंग पर सो रहे हैं ; बाकी के लिये दो गज जमीन भी नसीब नहीं है । इस बाजारवाद और वैश्वीकरण के संक्रमण को प्रतिरोध का निर्णय जब नहीं ले पाता है, तब कवि-मन रोता है । कभी-कभी तो बाजारवाद से उकताकर, वह पुन: लौटकर अपने घर, गाँव और बचपन की स्मृतियों में खो जाता है ।
लेकिन मध्यकाल में कबीर, रहीम और उनके समानधर्मा कवि,लेखक सांस्कृतिक संक्रमण के दौरान हमेशा, प्रतिरोध करते थे और जो चीज समाज के लिए सुखकर लगती थी, उसका आत्मसात करते थे । वे जीवन के कांटे भरे रास्ते पर चलना जानते थे, चाहे उनके पाँव चिथरे क्यों न हो जायें । लेकिन आज ऐसी कविताएँ पढ़ने कम मिलती हैं, जिसमें निर्भयता और वीरता का बल हो । जब कि कवि को सोचना चाहिये, संस्कृति संक्रमण के दौरान कविताएँ प्रतिरोध का हथियार बने; लेकिन उनमें किसी भी तरह का, व्यक्तिगत सोच या दबाव नहीं हो बल्कि आत्मसतीकरण हो, तभी एक कवि अपने कलम के जरिये किसी से भी टक्कर ले सकता है । जहाँ तक हिन्दी साहित्य की बात है, यह अपनी गुणवत्ता और मात्रा की दृष्टि से विश्वस्तरीय और समृद्ध है । लेकिन विग्यान , तकनीकी विषयों के क्षेत्र में भारतीय भाषाओं की उपलब्धि बहुत कम है ; जब कि विश्व के किसी भी देश में, भारत की तरह तीन हजार भाषाएँ नहीं बोली जाती हैं । यहाँ हर तीन कोस पर भाषा बदलती है । युनेस्को का आंकलन है कि, विश्व के लगभग १३७ देशों में हिन्दी भाषा,चाहे तो बोली जाती है या समझी जाती है । कुछ तो भारत के पड़ोसी देश हैं, जैसे नेपाल, चीन, पाकिस्तान, श्रीलंका, थाईलैंड, मलेशिया, तिब्बत, भूटान, सिंगापुर, वर्मा, मालदीप आदि, यहाँ तक कि दुबई में भी अधिकांश लोग हिन्दी समझते हैं , और
कुछ तो हिन्दी में जरूरत भर की बातें भी कर लेते हैं; बावजूद हिन्दी भाषा, अंग्रेजी भाषा के समान नहीं हो सकी । इसमें सरकार की उदासीनता तो है ही, जनता भी कम दोषी नहीं है ।
हम इंगलिश में बातें करना, अपनी शान समझते हैं । तभी तो जनमते अपने सन्तान को , माता- पिता बोलना न सिखाकर, मम्मी और डैडी सिखाते हैं , जब कि चीन और जापान में ऐसी बातें नहीं है । वहाँ तो सरकारी करोबार चीनी भाषा में होगी, सरकार की ओर से इसकी शख्त हिदायत है , लेकिन भारत में ऐसी हिदायत नहीं है । हो भी कैसे, जो देंगे ऐसी हिदायत, वे ही तो संसद भवन में हिन्दी को छोड़, अंग्रेजी में बातें करते हैं, कहते हैं, हमें हिन्दी नहीं आती । मैं कहती हूँ, जिस लगन से आपने अंग्रेजी सीखी;अगर वही लगन हिन्दी के साथ होती, तो क्या हिन्दी जैसी सरल और सहज भाषा आप नहीं बोल सकते । जब तक हमारी हिन्दी ,जन-जन की भाषा नहीं होगी, हिन्दुस्तान की हिन्दी इसी तरह अपने ही घर में रिफ़्यूजी बनकर जीयेगी और जब तक हमारे देश का कारोबारी,अपना कारोबार हिन्दी की छत्रछाया में नहीं करेगा, हमारा देश चीन और अमेरिका को आर्थिक मात न तो दे सकता है, न ही अपने देश की भाषा को गौरवान्वित कर सकता है । देश को सशक्त और समृद्ध बनाने के लिये, सबसे पहले सरकार को यह शक्त आदेश देना होगा कि देश का कोई भी आफ़िसियल काम, लेखा-जोखा, मीटिंग आदि हिन्दी में होगा । अंग्रेजी का सहारा बिल्कुल नहीं लिया जायेगा । ऐसे भी हमारे देश को उन्नति की राह पर लाने में जो-जो भाषा आगे आई है, हिन्दी उनमें पीछे नहीं है । हमें यह जानना होगा , किसी भी देश की राष्ट्रभाषा महज अभिव्यक्ति नहीं, भाषा में वहाँ के मनुष्य की अस्मिता स्वर पाती है । लकिन दुख की बात कहिये, हिन्दी के साथ, कुछ निहित राजनीतिक स्वार्थों के चलते ,कभी इसे उर्दू, कभी तामिल, तो कभी अंग्रेजी के बराबरी पर लाकर खड़ा किया जाता है । जिस हिन्दी को देश के बहुसंख्यक जानते हैं, उसका विकास दिन- बदिन वाधित होता जा रहा है । १९६० के दशक मे उत्तर भारत में अंग्रेजी हटाओ, और दक्षिण भारत में हिन्दी को विदा करो । इस राजनीतिक अभियान में, हिन्दी की कितनी क्षति हुई, इसका अंदाजा किसी ने नहीं लगाया । सरकारी संस्थान, जिनका काम हिन्दी को जन- जन की भाषा बनाने में सहयोग देना है । उन्होंने ही हिन्दी का, अपकार ज्यादा किया । मगर लोगों को दिखाने के लिये हिन्दी दिवस मनाना नहीं भूलता है ।
यही कारण है कि आजादी के ६५ साल बीत जाने के बावजूद, हिन्दी में तकनीकी विषयों पर ढंग की पुस्तकें नहीं मिलतीं । देश के प्रतिष्ठित संस्थानों में सारा शोध कार्य अंग्रेजी में होता है, जब कि अधिकतर शोध, गरीब- पिछड़ों आदिवासी महिलाओं को केन्द्र कर किया जाता है । भला ऐसी किताबें उन तक पहुँचती भी है, तो उनके किस काम की । आज भूमंडलीकरण लोगों के मस्तिष्क पर इस तरह हावी हो चुका है कि कुछ तबके के लोग हिन्दी में किसी बात को सोचना भी अपमान समझते हैं ।
इसमें कोई शक नहीं कि अंग्रेजी विश्व की आर्थिक नीति की रीढ़ बन चुकी है । इसके माध्यम से, विश्व के तीन चौथाई लोगों तक हम अपनी बात पहुँचा सकते हैं । लेकिन दूसरे की माँ, अपनी माँ से सुन्दर और अधिक प्रतिभाशाली हो, तो क्या अपनी माँ को छोड़ देना चाहिये । अगर यह संभव नहीं, तो हिन्दी जो हमारी मातृभाषा है, उसके साथ ऐसा अन्याय क्यों ?
भूमंडलीकरण का सबसे प्रभावी हथियार है सूचना, जो कि आज सेकेन्ड में पूरे विश्व को इंटरनेट के माध्यम से दिया जाता है और इंटरनेट की भाषा अंग्रेजी है । यह भी एक बहुत बड़ा कारण है कि हम चाहकर भी हिन्दी को आगे लाने में कहीं-कहीं विवश दिखाई पडते हैं । लेकिन खुशी की बात है, अब वो दिन दूर नहीं, जब हिन्ही में ये सूचनाएँ, इंटरनेट के द्वारा दी जा सकेगी; हिन्दी प्रेमी इसके लिये प्रयत्नशील हैं ।
इसे ईश्वर की असीम दया कहिये, जो टेलीवीजन के दो दर्जन चैनलों ने हिन्दी में खबर देने की ठानी है । इसके द्वारा , इस प्रयास से हिन्दी आज अनचाहे घरों में भी पहुँच रही है और लोग मजबूरन ही सही, अपने मनोरंजन के लिये हिन्दी को सीखने और समझने की कोशिश भी कर रहे हैं । देश के जन-जन की ओर से और मेरी तरफ़ से इन हिन्दी चैनल वालों को बहुत-बहुत वधाई ; जो इस बदली हुई परिस्थिति में, जहाँ लोग , अंग्रेजी बोलना अपनी शान समझते हैं, वहाँ, हिन्दी को अपनी जगह बिठाने के लिये प्रयत्नशील हैं । जयहिन्द !