छठ पर्व –--- डा० श्रीमती तारा सिंह

हिन्दू ,धार्मिक प्रवृति के होने के कारण, आदिकाल से ही धर्मभीरु रहे हैं । तभी तो आग, पहाड़, पानी, चाँद, सूरज की भी पूजा, देवता तुल्य करते आ रहे हैं । उनका विश्वास है, ये नहीं होते , तो हम नहीं होते ; हमारा जीना दुश्वार था । जैसे देवताओं की कृपादृष्टि से हम स्वस्थ, सम्पन्न रहते हैं , वैसे ये सभी हमें जिंदा रहने में सहायता करते हैं । इसलिए ये सभी पूजनीय हैं । इनके सामने ,हमें सदा नत-मस्तक रहना चाहिये ।
इसी आस्था और विश्वास के कारण , हिन्दुओं का धार्मिक पर्व, अन्यान्य समाज से कहीं ज्यादा होता है और जिसे वे, बड़े ही श्रद्धाभाव से मनाते भी हैं । इन्हीं पर्वों में छठ पूजा भी आता है जिसे अधिकतर झाड़खंड , बिहार और उत्तर प्रदेश के लोग करते हैं । दर असल छठ , सूर्य की उपासना है, जो कि साल में दो बार मनाया जाता है ; एक चैत्र महीने में, जो चैती छठ के नाम से प्रचलित है और दूसरा कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष षष्ठी को होता है, जिसे कार्तिक छठ कहा जाता है । ऐसी मान्यता है कि जब पाण्डव अपना सब राजपाट जुए में हार गये थे, तब द्रौपदी ने सूर्य की उपासना की थी, और पाण्डव सुर्य कि कृपा से राजपाट पुन: प्राप्त हुआ था । उसी समय से अधिकतर स्त्रियाँ ( आजकल तो पुरुष भी ) अपना तथा अपने परिवार की मनोवांछित फ़ल के लिये छठ करती आ रही हैं ।
यह पर्व काफ़ी सतर्कता और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है । जो महिलाएँ इस पर्व को करती हैं, उनको चार दिनों के लिये परिवार में रहकर भी,परिवार से अलग, एक तपस्वी का जीवन बिताना पड़ता है । पहले दिन नहाय-खाय का होता है , इसमें सेंधा नमक और घी से बना अरवा चावल का भात और चने के दाल में कद्दू डालकर बनाया जाता है, जिसका महत्व , किसी देवालय के प्रसाद से कम नहीं होता । दूसरे दिन , व्रतधारी खुद अपने हाथों ,गेहूँ को गंगा के किनारे या कुआँ के शुद्ध पानी से धोती है । गेहूँ का एक दाना भी , कौआ, मैना, जूठा न कर दे, जब तक गेहूँ सूख नहीं जाता है, वहीं बैठी रहती है । गेहूँ के सूखने के बाद , परिवार की अन्य महिलाएँ, नहा-धोकर उसे पीसती हैं ( अब तो अधिकतर मसीन में पीसा जाता है ) । फ़िर उसके तीसरे दिन , पकवान ( टिकड़ी ) बनता है; उसके साथ सभी प्रकार के फ़ल और अरवा चावल को पीसकर ,उसका लड्डू ( जिसे लाडू भी कहा जाता है ) बाँस के सूप में सजाया जाता है और डूबते सूरज की उपासना की जाती है जिसमें भक्ति गीत भी होता है । चौथे दिन सुबह के अर्घ – उपरांत, इस प्रसाद- पर्व की समाप्ति होती है । तब तक इस छत्तीस घंटे के दौरान व्रतधारी ,पानी की एक बूँद तक ग्रहण नहीं करते हैं । सूर्य को अर्घ देने की परम्परा किसी तालाब या नदी में जाकर दूध या पानी से देने की है । । इसलिए गंगा किनारे बसे लोग गंगा की साफ़- सफ़ाई , महीनों पहले से शुरू कर देते हैं और छठ आते-आते गंगा घाटों को रंग-बिरंगे बिजली-बत्तियों से सजाया जाता है । केवल व्रतधारी ही नहीं, पास- पड़ोस के लोग भी श्रद्धा में डूबे नये-नये कपड़े पहनकर अर्घ चढ़ाने जाते हैं । सब मिला-जुलाकर , यह पर्व मेले का रूप ले लेता है । हिन्दू धर्म में कोई भी देवता मूर्त रूप में नहीं देखे जाते हैं । केवल सूरज-चाँद ही हैं, जिन्हें मू्र्त रूप में देखा जा सकता है ।
भारत में , सूर्य की उपासना ऋग्वेद काल से होती आ रही है । इसकी चर्चा, विष्णु पुराण, भागवत पुराण, ब्रह्मा वैवर्त पुराण में विस्तार से की गई है ।
मान्यताएँ -------
(१) एक ऐसी भी मान्यता है कि लंका विजय के बाद भगवान राम और माता सीता ने आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए, सूर्य से उपासना की थी
(२) तो दूसरी मान्यता के अनुसार , छ्ठ पर्व की शुरूआत महाभारत काल में हुआ था; जिसे सूर्य पुत्र कर्ण ने शुरू की थी ।
(३) एक कथा के अनुसार राजा प्रियव्रत के संतान नहीं थे । कुछ ऋषि-मुनियों के बताने पर उन्होंने संतान प्राप्ति के लिये पत्नी मालिनी के साथ भगवान की मानस कन्या छठी का व्रत की थी जो कि कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुआ था ।
अब कथा जो भी रही हो, लेकिन यह चार दिवसीय व्रत बड़ा कठिन और अन्य पर्वों से अधिक लम्बा है ; इसलिए छठ पर्व को बड़ा पर्व भी कहा जाता है ।
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