पिछड़े मासूम बच्चों पर दोहरी जिम्मेदारी


-कौशलेंद्र प्रपन्न
दिल्ली नगर निगम, नई दिल्ली नगर निगम की ओर से मान्यता प्राप्त निजी प्राथमिक स्कूलों ने सरकारी आदेश की जिस तरह खिल्ली उड़ाई उसे देख कर स्पष्ट हो जाता है कि सरकार जब इन स्कूलों में सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चों के लिए ‘कुल दाखिले का 25 फीसदी सीट’ आरक्षित होगा। लेकिन इन स्कूलों ने सरकारी आदेश का जिस तरह नजरअंदाज़ कर रही है उससे एक बात तो बिल्कुल साफ हो जाता है कि इन स्कूलों पर सरकार कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं कर पा रही है। गौरतलब है कि इन निजी स्कूलों को स्कूल बनाने के लिए सरकार की ओर से रियायती दामों पर जमीन मुहैया कराई है। नगर निगम की ओर से ऐसे 757 स्कूलों को आदेश जारी किया था। लेकिन सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चों के सामने स्कूल जाने, शिक्षा ग्रहण करने में कैसी और किस तरह की परेशानियां का सामने करना पड़ता है। यदि यह समझ लिया जाए तो हम लाखों बच्चों को स्कूल की परीधी में ला सकते हैं। लेकिन इन बच्चों को शिक्षित करने की जिस प्रकार की प्रतिबद्धता की आवश्यकता है उसमें कहीं बहुत बड़ा फांक है। ‘शिक्षा के अधिकार’ कानून लागू होने के बाद उम्मीद और लक्ष्य तो बनी है कि राज्य एवं केंद्र सरकार शिक्षा की पहंुच वंचित और विकास के हाशिए पर पड़े बच्चों तक पहुंचाने में सफल होगी। सरकारी तंत्र के साथ ही साथ इसी के समानांतर गैर सरकारी संस्थाएं भी शिक्षा के प्रसार- प्रचार के लिए कई योजनाएं चला रही हैं। विदेशी अनुदानों की सहायता से चलने वाली शैक्षिक योजनाओं पर हर साल लाखों रुपए खर्च किए जा रहे हैं। ताकि देश के 80 मिलियन बच्चे कम से कम प्राथमिक स्तर की शिक्षा तो हासिल कर लें। लेकिन हाल ही में एक गैर सरकारी संस्था ‘प्रथम’ की ओर से कराए गए अध्ययन की रिपोर्ट की मानें तो देश के बच्चे जो पांचवीं कक्षा में पढ़ते हैं, उनमें से आधे से ज्यादा बच्चे पहली, दूसरी कक्षा के गणित के सवाल हल नहीं कर सकते। जहां तक हिंदी और अन्य भाषाओं का मामला है उसमें भी कोई खास सार्थक परिणाम नहीं मिले हैं। लिखने- पढ़ने के कौशल में भी पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे साधारण से साधारण पंक्तियां न तो लिख सकते हैं और न ही पढ़ सकते हैं। इससे यह अंदाज़ा लगाना कठिन नहीं है कि जो बच्चे स्कूल में तालीम के लिए जाते हैं उन्हें किस तरह की शिक्षा मिल रही है। लेकिन सरकार सर्वशिक्षा अभियान, आंगन बाड़ी, मीड डे मील आदि परियोजनाओें के जरिए देश के शेष बच्चों को स्कूल में दाखिल करना चाहती है। याद हो कि 2000 में सरकार ने 2010 तक का लक्ष्य रखा था कि इस साल तक स्कूल एवं शिक्षा से वंचित बच्चों को शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ दिया जाएगा। लेकिन अफ्सोस के साथ कहना पड़ता है कि पूर्व निर्धारित समय सीमा तक लक्ष्य पूर्ति न होते देख दुबारा 2015 तक का समय सीमा तय किया गया है।
यह बड़ी चिंता की बात है कि आज़ादी के तकरीबन 63 साल बाद भी शिक्षा और बच्चे हमारे मुख्य प्राथमिकता की सूची में नहीं हैं। महज सरकारी घोषणाओं के आधार पर शिक्षा को बेहतर बनाने का सपना देखना व्यर्थ है। लेकिन तमाम आदेशों को धत्ता बताते हुए दिल्ली के कई निजी स्कूलों ने साफतौर से ऐसा करने से मना कर दिया। दिल्ली के शिक्षा मंत्री अवरिंदर सिंह लवली ने कड़ा रूख अपनाते हुए कहा कि जो स्कूल इस आदेश का उल्लंघन करेंगी उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जा सकती है। इसके पीछे शिक्षा मंत्री का तर्क था कि जिन स्कूलों को रियायत मूल्य पर जमीनें मुहैया कराई गई हैं। उन्हें सरकार के इस आदेश का पालन करना होगा वरना उन पर कानून की अवमानना करने के जुर्म में आपराधिक मुकदमा चलाया जा सकता है। सरकार की इस रूख के बाबत निजी स्कूलों ने अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए कहा कि हम 25 फीसदी बच्चे को पूर्णतः निःशुल्क शिक्षा, वर्दी, काॅपी-किताबें उपलब्ध कराने में सक्षम नहीं हैं। या तो सरकार हमें फीस बढ़ाने की अनुमति दे या फिर 25 फीसदी बच्चों को निःशुल्क नामांकन से हमें मुक्त करे। सरकार की ओर से जारी प्रस्ताव में कहा गया है कि सरकार ऐसे कुल बच्चों के लिए प्रति बच्चा 1,000 से 1,300 रुपए स्कूल को देगी। लेकिन इस पर निजी स्कूलों के प्रबंधकीए संगठनों ने यह कहते हुए इंकार कर दिया कि यह राशि बहुत कम है इसमें तमाम सुविधाएं हम नहीं दे सकते। प्रकारांतर से निजी स्कूलों के प्रबंधन एवं सरकारी तंत्र के बीच एक परोक्ष लड़ाई चल रही है।
गौरतलब है कि आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चे ‘ईडब्ल्यूएस’ कोटे में दाखिला लेने वाले बच्चों की संख्या कोई कम नहीं है। उस पर इस कोटे की सुविधा लेने वाले के लिए जिन दस्तावेजों की आवश्यकता पड़ रही है उसे देख कर नहीं लगता कि वास्तव में ऐसे बच्चों को शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ा जा सकता। सरकार की ओर से जारी आवश्यक दस्तावेजों में जन्म प्रमाण पत्र, आवास प्रमाण, वोटर पहचान पत्र, सालाना 1 लाख से कम की आमदनी को सिद्ध करने वाले प्रमाण को शामिल किया गया है। मुख्य सवाल अब यह उठता है कि जिन परिवारों के बच्चे सड़क किनारे, पार्क व फ्लाईओवर आदि सार्वजनिक स्थानों पर रहते हैं जिन्हें स्थानीय प्रशासन एवं पुलिस रोज भगाती हो तो ऐसे में उनके बच्चे कहां और किस स्कूल में पढ़ने जा सकते हैं। एक सर्वे के अनुसार अकेली दिल्ली में ऐसे बच्चों की 5 लाख से भी ज्यादा संख्या है जो सड़क पर ही जन्मते और बड़े होते हैं। उनका मुख्य काम कबाड़ चुनना, किसी दुकान पर काम करना और परिवार के भरण पोषण में अपनी कमाई सौंपना है। यदि ऐसे बच्चे स्कूल चले जाएंगे तो वैसी स्थिति में उनके घर में खाने-खाने को लाले पड़ जाएंगे।
‘सेव द चिल्डन’ गैर सरकारी संस्था, दिल्ली के विभिन्न इलाकों में ऐसे बच्चों को शिक्षा, चिकित्सा आदि मुहैया कराने में जुटी है। इस संस्था की ओर चलाई जा रही नेहरू प्लेस एवं लाजपत नगर के केंद्रों पर इस तरह के बच्चों को बुनियादी सुधार के बाद स्कूलों में 25 फीसदी आरक्षित कोटे में नामांकन कराने की योजना पर काम चल रही है। इस संस्था के प्रोग्राम आॅफिसर प्रदीप कुमार कहते हैं कि इन बच्चों को जिस प्रकार के माहौल मिले हुए हैं वह न केवल यूनीसेफ के ‘बाल अधिकार’ प्रस्ताव के खिलाफ है बल्कि मानवीय स्तर पर भी स्वीकारणीय नहीं कह सकते। नेहरू प्लेस डीडीए पार्क और कालका जी मंदिर के साथ ही एमटीएनएल के पास छोटे-छोटे टेंटों, झुग्गियों में रहने वाले संजू, अंजलि, पूजा, बादल आदि बच्चों से बाते करना बेहद रोचक होगा। इन बच्चों में पढ़ने की ललक को देखते हुए लगता है काश इन्हें मुख्य स्कूलों में दाखिला मिल जाए। अपनी इच्छा और पढ़ने की चाह को पूरा कर सकें। वहीं दूसरी ओर रामकिसन, रवि, दीपचंद जैसे दुर्भागे बच्चे भी हैं जिन्हें पढ़ने की तमन्ना तो है किंतु इन 9,11,13 वर्षीय बच्चोें के कंधे पर पूरे घर की परवरिश की जिम्मेदारी होती है। पिता या मां इन्हें पढ़ने नहीं भेजते। क्योंकि स्कूल चला गया तो घर का खर्च कैसे चलेगा। इन बच्चों को पहली लड़ाई अपने घर में मां-बा पके खिलाफ लड़नी पड़ती है। दूसरी और मजबूत लड़ाई स्कूलों में सहपाठियों, स्कूल की चाहरदीवारी के अंदर भेदीय नजर और शुल्कों के खिलाफ भी डट कर मापना करना पड़ता है।

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