शिक्षा में अब और पीछे नहीं रहेगा बिहार


-कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा, स्वास्थ्य एवं अन्य सुविधाओं में जब पिछड़े राज्यों की बात चलती है तब सबसे पहले बिहार का नाम लेने में कोई भी पीछे नहीं रहता। लेकिन अब ऐसा नहीं होगा, क्योंकि यदि हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट की मानें तो बिहार देश का पहला राज्य बन गया है जहां के 70,000 सरकारी प्राथमिक एवं उच्च विद्यालयों के बारे में तमाम जानकारियां आॅनलाईन कर दी गई हैं। यह काम नेशनल यूनिवर्सिटी आॅफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिशटेशन आॅन एलिमेंटी एजुकेशन के तहत चलाई गई परियोजना की सहायता से पूरा हुआ है। बिहार के तमाम गांव, जिलों आदि में चल रही विभिन्न सरकारी स्कूलों के बारे में बुनियादी जानकारियां स्कूलरिपोर्टकाॅर्ड्स नाम की वेब साइट में दिखी जा सकती हंै। इस साइट पर स्कूल से जुड़ी हर तरह की सूचना मिलेंगी। मसलन कितने स्कूलों में बच्चों के लिए शौचालय, ब्लैक बोर्ड, अध्यापक, भवन की स्थिति आदि। राज्य सरकार की इस कोशिश एवं प्रयत्न से अन्य राज्य सरकारों को सीख लेनी चाहिए कि वे भी अपने राज्यों में किस तरह से शिक्षा के अधिकार कानून को अमली जामा पहनाने में मदद कर सकते हैं।
राज्य सरकार द्वारा संचालित 70,000 प्राथमिक एवं उच्च विद्यालयों के बारे में एक स्थान पर तमाम सूचनाएं उपलब्ध कराना कोई आसान काम नहीं है। उस पर भी वहां जहां पिछले कई सालों से शिक्षा दिन प्रति दिन बद से बदत्तर होती मानी जा रही थी। लेकिन यह वही राज्य है जिसने साबित कर दिया कि यदि जज़्बा हो तो पुरानी इमारत को दुरूस्त किया जा सकता है। लेकिन शर्त यह है कि हमें इसके लिए प्रतिबद्ध होना होगा। वरना शिक्षा में न केवल बिहार बल्कि अमूमन देश के अन्य राज्यों में भी गिरावट साफ देखी जा सकती है। गौरतलब है कि इस राज्य में स्थित नालंदा विश्वविद्यालय कभी विश्व प्रसिद्ध ज्ञान केंद्रों में गिना जाता था। लेकिन समय के साथ नालंदा विश्वविद्यालय अपनी चमक खोता चला गया। किंतु नोबल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन एवं राज्य व केंद्र सरकारों की अथक प्रयासों की वजह से एक बार फिर से नालंदा विश्वविद्यालय को पुनर्जीवित किया जा रहा है। इस काम में नेशनल नाॅलेज कमिशन की भी भूमिका सराहनीय मानी जा सकती है।
शिक्षा की दशा एवं दिशा किसी भी समाज, राज्य व देश की प्रगति को टटोलने में खासे मदद करती है। जिस भी समाज में लोग अधिक से अधिक शिक्षित होंगे वहां की जनचेतना उतनी ही विकसित और सृजनात्मक होगी। यह स्थापित बात है कि जनता शिक्षित हो तो वह अपने एवं समाज के विकास में बेहतर योगादान कर सकता है। कभी समय था बिहार शिक्षा के लिए जाना जाता था। लेकिन अस्सी के दशक से धीरे-धीरे गिरावट दर्ज की जाने लगी। शिक्षा की गिरती साख को बचाने के लिए राजनैतिक इच्छा शक्ति भी कमजोर पड़ती चली गई। क्योंकि यदि सरकार चाहे तो किसी भी सूरत में शिक्षा ही नहीं कानून व्यवस्था तक को सुचारू रूप से चला सकता है। लेकिन जब राजनैतिक इच्छा शक्ति महज अपने राजनैतिक हैसयित बढ़ाने, समाज को विभिन्न मुद्दों पर बरगलाने में लगी हो तो ऐसी सरकार से किस तरह की प्रगति की उम्मीद की जा सकती है। बिहार में जगन्नाथ मिश्र, सत्येंद्र प्रसाद एवं भगवत आजाद के मुख्यमंत्रित्व काल में शिक्षा की इतनी दयनीय स्थिति नहीं थी जितनी लालू प्रसाद एवं राबड़ी देवी के मुख्यमंत्रित्व काल में हुआ। नब्बे के दशक में बिहार का भाग्य नए ढंग से लिख जाने लगा। इस काल में महज लूटपाट, चोरी चमारी, घोटालों एवं रिश्वतखोरी को खूब हवा मिला। इन सरकारों को केवल स्व उन्नति एवं हित साध नही प्रमुख था। समाज एवं वहां की जनता की बुनियादी जरूरतों को दरकिनार किया गया।
बिहार में शिक्षा मतलब नकल से उपजी प्रतिभा का कलंक माथे पर लगने लगा। यदि किसी ने अस्सी फीसदी अंक प्राप्त किया तो उसे संदेह एवं शंका की नजर से देखा जाना बेहद ही आम बात थी। चाहे वह बोलचाल में हो या कार्यालयी स्तर पर हर जगह बिहार से पढ़कर आने वाले छात्रों को भेदीय नजर का सामना करना पड़ता था। लेकिन पिछले पांच सालों में नितिश सरकार की नजर शिक्षा को दुरुस्त करने पर गई और समय के साथ इस सरकार की कोशिश एवं प्रयासों के परिणाम सामने आने लगे। स्कूलों में बच्चियों को साइकिल बांटा जाना एक तरह से शिक्षा व स्कूल को घर के दरवाजे पर ला खड़ा करना ही था। गांव, कस्बे व छोटे शहरों में स्कूल जाने में लड़कियों को किस तरह की नजरों, अवरोधों का सामना करना पड़ता है।

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