डॉ. शशि तिवारी
शरीर स्थूल होता हैं, उसमें होने वाली हर हलचल को बड़ी आसानी से न केवल देखा जा सकता है बल्कि पकड़ा भी जा सकता है और ऐसा हो भी क्यों न क्योंकि, स्थूल की एक सीमा होती है, मन, स्थूल का अगला चरण है अर्थात् मन बड़ा ही चंचल होता है, इसकी गति तीव्र होती है, इसकी कोई सीमा नहीं होती, दिखता नहीं, पल-पल में बदलता ही रहता है, बाहर से आदमी इसे पकड़ ही नहीं सकता, मन होता ही तरल जिस पात्र में डाला वैसा ही रूप हो गया, जैसी परिस्थिति देखी उसी में ढल गया, रम गया, कहते भी है मन मिला तो सब मिला, ऊपर से शांत दिखने वाले व्यक्ति के मन में क्या तूफान क्या शांति या चल रही भयंकर उथल-पुथल या कर्म को हम नहीं पकड़ सकते। मन में होने वाले विस्फोट की परिणिति के संकेत शक्ति या लाचारी के शब्द के रूप में देखने को मिलती है। ऐसी ही कुछ घटना 16 फरवरी को देश के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के साथ कुछ मीडिया चेनलों के संपादकों के साथ 70 मिनट के सवाल-जवाब के मोर्चे के दौरान देखने को मिली। जिसे पूरे देश ने न केवल देखा बल्कि उनके मन से फूट बह निकले ज्वालामुखी के उद्गार में उनके अर्न्तमन की छटपटाहट की पीडा भी स्पष्ट देखने को मिली। यहां मुझे अटल बिहारी की दो लाईन याद आ रही है ‘‘बेनकाब चेहरे है, दाग बड़े गहरें हैं, टूटता तिलस्म, आज सच से भय खाता हूं।’’ मनमोहन के मन ने दबी जबां एवं सपाट लहजे में बहुत कुछ कह डाला, बहुत कुछ भड़ास निकाल डाली एवं बहुत कुछ देशवासियों एवं बुद्धिजीवियों को सोचने एवं बहस के लिए छोड दिया जैसे ‘‘मैं मजबूर हूं, दोषी नहीं।’’ गठबंधन की मजबूरियां है कुछ समझौते करने पड़ते है फिर भी असाह नहीं हूं। भ्रष्टाचार पर गंभीर हूं, दोषी किसी भी पद पर हो, बख्शे नहीं जायेंगे, गलतियां तो हुई है लेकिन उतनी नहीं जितना प्रचार किया जा रहा हैं, बहुत सी चीजें मेरे मिजाज से मेल नहीं खाती, अभी भी बहुत कुछ सीख रहा हूं, मजबूर मन में नहीं आता इस्तीफे का ख्याल आदि आदि। डॉ. मनमोहन की यहां मेैं तारीफ करना चाहूगी कि उनमें न केवल सच कहने का साहस है बल्कि सच को स्वीकार करने की भी हिम्मत है लेकिन, उनके भोलेपन की इस स्वीकारोत्ति से उनके गुनाह कम नहीं हो सकते, डॉ. मनमोहन पर इल्जाम हैं गुनाह करने का, गुनाह सच को छिपाने का, गुनाह मजबूरी में गुनाहगारों का साथ निभाने का, गुनाह विरोध न करने का।
महाभारत में दो पात्र मजबूरी में काम करने के अव्वल उदाहरण है। पहला घृतराष्ट्र दूसरा भीष्म। एक पुत्र मोह की मजबूरी से बंधा तो दूसरा कुर्सी के प्रति प्रतिबद्धता से। दोनों ने ही अपनी-अपनी मजबूरियों के चलते न केवल अनीतियों का साथ दिया बल्कि देश को भयंकर युद्ध में झौंक गर्त में पहुंचा अंत में अपयश ही प्राप्त किया। मीडिया के सामने प्रधानमंत्री ने अपने टूटे मन से केवल अपनी लाचारी ही प्रकट की। मुझे यहां फिर अटल बिहारी की एक लाईन याद आ रही है- ‘‘टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता, मन हारकर मैदान नहीं जीते जाते।’’
यूं तो प्रधानमंत्री ने मीडिया के सामने उपस्थित हो एक तीर से कई निशाने
साधे हैं। मसलन प्रेस के एक घटक इलेक्ट्रानिक मीडिया को बुला प्रिन्ट
मीडिया की अपेक्षाा कर दरार डाली, दूसरा अपनी स्वच्छ छवि पर लगे दागों को
धोने का प्रयास, तीसरा अपने को काफी हद तक ठीक बताने की बात, चौथा गठबंधन
की मजबूरियां, पांचवा विपक्ष का वांछित सहयोग न मिलना।
यहां प्रधानमंत्री को मीडिया पर अति उत्साह में देश की छवि पर आरोप लगाने के पहले यह नहीं भूलना चाहिए कि अधिकांश घोटालों को मीडिया ने ही उजागर किया है। यदि वह उजागर नहीं करता तो ये सभी घपलों के राज दफ़न ही रहते। ऐसे में प्रधानमंत्री ने अपने कर्त्तव्यों एवं दायित्वों का निर्वहन कहा किया? अब, जब घोटालों का पुराण खुल ही गया है तो क्यों नहीं? एक-एक कर शीघ्र निर्णय ले अपराधियों को जेल भिजवा देते? देरी किस बात की? कानून अपना काम कर रहा, जांच चल रही है कहने मात्र से अब काम नहीं चलेगा। भारत की जनता अब तक के सभी घोटालेबाजों फिर वो चाहे मंत्री ही क्यों न हो को जेल में देखना चाहती है।
प्रधानमंत्री का एक और महत्वपूर्ण वक्तव्य, देश हर छह महीनें में चुनाव नहीं झेल सकता। बड़ा ही अहम हैं। अहम इस मायने में कि मात्र इसी डर से क्या पूरे देश में लूट-खसोट, भ्रष्टाचार करने दिया जाए? या शख्त कदम उठा संविधान में संशोधन की बात सोची जाए? संशोध्न भी इस बाबत् की चुनाव 5 वर्ष के पहले किसी भी सूरत में नहीं होंगे? यदि कोई भी पार्टी बहुमत सिद्ध करने में असफल होती हैै तो राष्ट्रपति शासन पूरे देश में लागू रहेगा। इससे दो फायदे होंगे पहला भ्रष्टाचार, दबाव की राजनीति, सांसदों, विधायकों की खरीद-फरोख्त रूकेगी वहीं कानून एवं न्यायालयों को अपने तैवरों के साथ कार्य करने की पूर्ण आजादी होगी, दूसरा देश में पारदर्शिता एवं सुशासन का नया सूर्योदय होगा।
सभी राजनीतिक पार्टियों को भी आत्मअवलोकन करना होगा, अपने गिरेबां में झांकना होगा, सत्य की कसौटी पर अपने को कसना होगा, फिर देखना होगा कि क्या खोया क्या पाया।
रकीबों ने रपट लिखाई है जा जा के थाने में
कि अकबर नाम लेता है खुदा का इस जमाने में।
लेखिका सूचनामंत्र पत्रिका की संपादक है।
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