हम ज्यादातर अपनी पसंद का काम ,इसलिए नहीं कर पाते हैं या करते हैं, क्योंकि हम चाहे-अनचाहे में समाज की आ रही रूढ़ि सोच से खुद को अलग नहीं कर पाते हैं । हम उनकी सोच की खुशी को हर हाल में बरकरार रखना चाहते हैं । नरक का भय, स्वर्ग की चाहत कि हम जब मरेंगे, तो बेटे के हाथ से मुखबाती नहीं मिली , तब नरक जाना होगा । बेटी पराया धन होती, पराये का एक पैसा कम से कम मृत्यु के बाद न लगे ; इससे पाप लगेगा, इत्यादि- इत्यादि । पहले के बनिस्बत आज पढ़े-लिखों की संख्या अधिक होने के बावजूद, वे समाज के रूढ़ि-रिवाज से खुद को जोड़े रखते हैं । किसी एक जाति वा समुदाय में नहीं बल्कि हर धर्म, हर जाति, हर वर्ग में यह घिनौनी सोच प्रतिफ़लित है ।
भगवान महावीर ने कहा है, जिस हिंसा के बिना हमारा जीवन चल सकता है , उसकी हिंसा पाप है, अपराध है ; एक व्यक्ति विशेष की क्रूरता है । हमें इसे प्रश्रय नहीं देना चाहिए । प्रकृति की ओर से पर्यावरणीय अन्याय चलता है जिसके तहत एक बड़ा जीव, छोटे जीव को वध कर खा जाता है । किन्तु जब एक मनुष्य , दूसरे मनुष्य का अकारण वध करने लगे तो ऐसे मनुष्य को दानवी प्रवृति का कहा जाता है ।
समाज में नित अपराध बढ़ता चला जा रहा है, इनमें जघन्य अपराध है , कन्या भ्रूण हत्या । इसके बहुत कारण हैं , जिनमें प्रमुख कारण तो यह है कि, बेटा,श्मशान तक साथ चलेगा , मुखबाती देगा । तब शास्त्रों के अनुसार, मुझे स्वर्ग की प्राप्ति होगी; अन्यथा मेरी आत्मा स्वर्ग न जाकर , इस मर्त्य लोक में ही, मृत्युपरांत भटकती रह जायेगी । मेरे नाम को आगे, बेटी कोख से जन्मी संतान नहीं ले जा सकती । इसे तो बेटे का बेटा ही ले जा सकता है अर्थात मरणोपरांत भी हमें जिंदा कोई रख सकता है, तो वह बेटा ही रखेगा । बेटी का क्या, भूखा रहकर , रात जागकर पढ़ाओ-लिखाओ, बड़ा करो: जब बारी आती, दूसरों को सुख देने की, तब दूसरे के घर चली जाती है । इतना ही नहीं, जाते-जाते जीवन भर की जमा पूँजी भी लेती चली जाती है । इसलिए यहाँ तो, हमारा तप और तपस्या वृथा ही चली जाती है । ऐसे में बेटी को पालने का तरद्दुद हम क्यों उठायें, क्यों न हम इसे दुनिया में आने से ही रोक दें । इसके बावजूद अगर आ भी जाये तो, छोटे पेड़ को उखाड़ने में क्या लगता है ?
यही पेड़ जब बड़ा हो जायगा, फ़िर उसे उखाड़ना आसान नहीं होगा । इस सोच को मंजिल तक पहुँचाने में,हमारा आज का विग्यान,सहयोगी बना हुआ है । परिणाम स्वरूप लोग शिशु का लिंग स्वरूप परीक्षण कर, बेटी से छुटकारा पाने के लिए भ्रूण हत्या कर रहे हैं । भगवान बुद्ध, महात्मा गाँधी जैसे नायकों के अहिंसा प्रधान देश में हिंसा हो रही है ।
भारत में आज से नहीं, लगभग दो दशकों पहले ही भ्रूण हत्या की शुरूआत हो गई है । जनम लेने जा रहे बच्चों में किसी प्रकार की विकृति हो, जिससे शिशु दुनिया में आकर मानसिक विकृति या शारिरिक विकृतियाँ भोगे, वैसी हालत में उस शिशु को दुनिया में लाने या न लाने के बारे में हम सोच सकते हैं । लेकिन दुनिया में, आ रही संतान बेटी है, उसकी हत्या पाप है, अपराध है ।
गुरुनानक देव जी ने पाँच सदियों पहले ही अपने शब्द की शक्ति से लोगों को औरत की हस्ती के बारे में जागरूक कर दिया था । नारी क्या है, इसे कमजोर मत समझो; इसी पर दुनिया टिकी है, नारी ही प्रकृति है । लेकिन पुरुष प्रधानगी का जुनून, हमारा समाज बेटी को बोझ के सिवा और कुछ नहीं समझता ।
कन्या भ्रूण हत्या को भारी भरकम दहेज से भी जोड़कर देखना होता है । बेटी के जनमने के साथ ही माँ-बाप को दहेज की चिंता सताने लगती है । कारण आजकल के जमाने में बेटी के लिए घर-वर खोजने से पहले, पैसे पास में कितने हैं;उसके आधार पर वर ढूँढ़ा जाता है, क्योंकि वर यहाँ विकता है । उसकी बोली
लगाई जाती है । कभी-कभी तो दहेज के पैसे , बेटी के पिता , अपना घर-बार गिरवी रखकर महाजन से सूद पर उठा लेते हैं । इन पैसों को न लौटा पाने की सूरत में परिवार सहित आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाते हैं । दहेज की परम्परा, अनपढ़ गंवार तक, या गरीब तबके तक सीमित नहीं है । यह तो बड़े-बड़े अमीरों में भी है । फ़र्क बस इतना रहता है, गरीब का दहेज ,अमीरों के अंगोछे के दाम के बराबर होता है ।
महिलाओं के कल्याण के लिए सक्रिय कार्य-कर्ताओं का कहना है कि, इस दहेज रूपी अभिशाप से हमारा समाज तब तक मुक्त नहीं होगा, जब तक दहेज प्रथा का मुकाबला सख्त कानून द्वारा नहीं किया जायगा । अखिल भारतीय जनवादी महिला संगठन का कहना है , कि पिछले प्रत्येक बीता साल से मौजूदा साल में भ्रूण हत्या अधिक हो रही है । इस बढ़ती भ्रूण हत्या के लिए केवल पुरुष को दोषी ठहराना ठीक नहीं होगा । आजकल तो पढ़ी- लिखी महिलाएँ स्वयं भी क्लिनिक में जाकर लिंग टेस्ट करवाती हैं । अगर पहले बेटी है और दूसरी आने वाली संतान भी कन्या है, तब खुद ही डाक्टर से कहती है , हमें इसे खतम कराना है । फ़िर डाक्टर को भारी भरकम पैसे का लोभ देकर कन्या भ्रूण हत्या करवाती है । इतना ही नहीं, वही कन्या बहू बनकर जब घर में आती है, तब सास आशीष स्वरूप ”पूतो फ़लो, दूधो नहाओ’ का आशीर्वाद देती है । बहू जब बेटा जनम देती है, तब सास की खुशी का ठिकाना नहीं रहता है । मगर बेटी जनम के समाचार से अपना सर पकड़कर बैठ जाती है । इस तरह हम कह सकते हैं कि ’ औरत का दुश्मन ,एक औरत भी होती है’। एक आँकड़े के मुताबिक औरतों में अगर बेटे-बेटी की बुरी प्रतिशत कम हो जायगी । लेकिन यह शिलशिला अगर दोनों ही तरफ़ से समान रूप से चलता रहा, तब एक दिन , दुनिया को बनाने वाली, नारी जो स्वयं एक प्रकृति है; स्त्री और पुरुष , दोनों का जड़ – मूल नष्ट हो जायगा । दुनिया मनुष्यहीन हो जायगी ।