लापता होते बच्चे कौन है फिक्रमंद


-कौशलेंद्र प्रपन्न
एक जनवरी 2011 में पिछले 22 दिनों के अंदर अकेली दिल्ली से 120 बच्चे गायब हो चुके हैं। एक अनुमान के अनुसार हर दिन पांच बच्चे लापता हो रहे हैं। लापता होने वाले इन बच्चों की आयु 4 से 16 साल की है। एक ओर दिल्ली से गुम होने वाले बच्चों की संख्या 2009 में 2,503 थी। दूसरी ओर 2010 में लापता होने वाले बच्चों की संख्या 2,500 से ज्यादा है। उस पर ताज्जुब तो तब होता है जब दिल्ली पुलिस इस बाबत मानती है कि इन बच्चों को पकड़ने व उठाकर ले जाने वाले गिरोह के होने की बात से इंकार करती हैं। लेकिन एक गैर सरकारी स्वयं सेवी संस्था का मानना है कि दिल्ली से बच्चों को उठाकर भीख मांगने, बाल-मजदूरी, वैश्यावृत्ति, व अन्य गैरकानूनी कामों में लगा दिया जाता है। लापता होने वाले इन बच्चों की पारिवारिक पृष्टभूमि पर नजर डालें तो पाएंगे कि गायब होने वाले अधिकांश बच्चे गरीब परिवार के हैं। अमूमन इनके मां-बाप के बीच मारपीट, लड़ाई-झगड़ा आदि बेहद ही आम घटना है इससे निजात पाने के लिए भी बच्चे शुरू में तो घर से भाग जाते हैं। लेकिन उनमें से कुछ बच्चे कुछ महीने बाद लौट भी आते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि इतने बड़े स्तर पर बच्चों की चोरी हो रही है, लेकिन प्रशासन की ओर मजबूत और सार्थक कदम नहीं उठाए गए। जिसका परिणाम यह है कि हर साल गुम होते बच्चों की संख्या में इजाफा ही हो रहा है। जाहिर सी बात है कि उन बच्चों को किसने उठाया? वो कौन लोग हैं? क्या इसी तरह बच्चे लापता होते रहेंगे? इसे रोकने के लिए कौन सामने आएगा आदि सवाल खड़े होते हैं। लेकिन इन सवालों का जवाब मिलना बाकी है।
अव्वल तो बड़ों के बीच बच्चों की उपस्थिति एक गैर जरूरी, नादान की ही होती है। खासकर बड़ों का रवैया इन बच्चों के साथ सौहार्दपूर्ण नहीं कहा जा सकता। हमारी दृष्टि पूर्वग्रहों पर तैयार होती है। हम मान कर चलते हैं कि बच्चों की दुनिया हम बड़ों की दुनिया से बिल्कुल अलग और उपेक्षणीय है। इसलिए हर साल जब तमाम क्षेत्रों की उपलब्धियों, लाभ-हानि, महत्वपूर्ण घटनाओं की समीक्षा प्रिंट और न्यूज चैनलों पर आखिरी हप्ते में होती हंै। तब अख़बारों में विस्तार से कथा-कहानी, उपन्यास, कविता, अलोचना आदि में कौन- सी किताब, व्यक्ति आदि चर्चा में रहे, पर समीक्षाएं प्रकाशित होती हैं। लेकिन बड़ी ही ताज्जुब के साथ कहना पड़ता है कि यदि कोई यह जानना चाहे कि बच्चों के लिए कौन- सी किताबें आई? बाल कहानियों, कविताओं, उपन्यासों आदि के बारे में मुकम्मल जानकारी नहीं मिल पातीं। एक तो बाल साहित्य पर लोगों का ध्यान कम ही जाता है। उस पर बाल साहित्य के नाम पर क्या कुछ लिखे जा रहे हैं, इसपर कौन ध्यान देता है। हम फिल्मों की डीवीडी, सीडी खरीदने में देर नहीं करते। लेकिन जब किताब खरीदने की बात आती है तब बचत करने का ख्याल मन में आता है। हैरी पोट्टर की सीरीज खरीदने में हम नहीं हिचकिचाते, लेकिन जब हिंदी में प्रकाशित बाल-पत्रिका या बाल कहानी की किताब खरीदने की बारी आती है तब हम हजार बार सोचते हैं।
बच्चे और बाल-साहित्य दोनों ही बड़ों की दुनिया के लिए कोई ख़ास मायने नहीं रखते। कुछ तारीखों को निकाल दें तो पूरे साल बच्चे समाज के संज्ञान में नहीं आते। बाल-दिवस, पंद्रह-अगस्त एवं गणतंत्र-दिवस आदि कुछ खास अवसरों पर मुख्य अतिथि के आने की प्रतीक्षा में बेहोश होकर गिरते बच्चों को देख सकते हैं। इन खास दिनों को यदि साल के कैलेंडर से निकाल दें तो बच्चे किसी बड़े राजनेता के आगमन पर नृत्य- गान एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करते नजर आते हैं। लेकिन इन बच्चों को बड़ों की दुनिया में वह महत्व आज तक नहीं मिल सका है। पिछले साल के आंकड़ों पर नजर डालें तो पाएंगे कि शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन एवं सुरक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों तक से अस्सी लाख से भी ज्यादा बच्चे महरूम हैं। हालांकि, सरकार की ओर से इन बच्चों को प्राथमिक शिक्षा मुहैया कराने के लिए शिक्षा का अधिकार कानून भी लागू हो चुका है। साथ ही कई स्तरों पर परियोजनाएं भी चल रही हैं।
विभिन्न भारतीय भाषाओं में छपने वाली बाल किताबों पर एक सरसरी निगाह डालें तो उसमें हमें भाषायी वर्चस्व एवं खास वर्ग विभाजन भी मिलेगा। एक ओर हिंदी में प्रकाशित होने वाली बाल पत्रिकाओं एवं किताबों को देखें तो उसकी छपाई, चित्र, रेखांकन, कथ्य आदि अभी भी बेहद पारंपरिक ही मिलेंगी। जबकि बच्चों की किताबें मनमोहक, रंगीन, बड़े बड़े चित्रों वाले होने चाहिए। बाल किताबों में किस प्रकार के चित्र, रेखांकन आदि कितनी मात्रा में हो यह इस पर निर्भर करता है कि वह किताब किस आयु वर्ग के बच्चों को ध्यान में रख कर लिखा गया है। यदि हम 1 से 6 साल के बच्चों की किताब की बात करें तो इन किताबों में शब्दों की संख्या कम और चित्र यानी दृश्य ज्यादा होने चाहिए। क्योंकि इस अवस्था में बच्चे लिखित शब्दों को पहचानना शुरू ही करते हैं। यदि शब्दों की मात्रा ज्यादा होगी तो बच्चों को पढ़ने में मुश्किलें आती हैं। इसलिए सामान्यतौर पर देखा जाता है कि बच्चे अपने से बड़ों से पढ़कर कहानी सुनाने को कहते हैं। यदि शब्द से ज्यादा दृश्यों के माध्यम से कहानी चल रही है तो ऐसे में बच्चे चित्रों को पहचानते हुए कहानी का आनंद खुद उठा सकते हैं। इस उम्र के लिए कहानी लिखते वक्त इस बात का खास ध्यान रखना चाहिए कि जीव-जंतुओं, प्राकृतिक दृश्यों को आकर्षक ढंग से प्रस्तुत किया जाए। ताकि बच्चे आसानी से अपने परिवेश से जुड़ सकें।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके लिए कहानियां ऐसी हों कि उसमें वो खुद भी संवाद रचने का आनंद उठा सकें। यह तभी संभव होगा जब कहानी के बीच-बीच में लेखक बच्चों को सिरजने का मौका भी उपलब्ध कराए। विभिन्न आयु वर्ग के बच्चों से बातचीत के दौरान पाया कि बच्चों को किताब में छपी कहानियों से ज्यादा वैसी कहानियां ज्यादा पसंद आती हैं जो विभिन्न भाव- भगिमाओं पर आधारित हों। यदि हिंदी और अंग्रेजी में छपी कहानी की किताबों की गुणवत्ता पर नजर डालें तो एक तरफ हिंदी में प्रकाशित कहानियों की किताबों के कागज़ की गुणवत्ता, छपाई, पिक्चर आदि की दृष्टि से बहुत आकर्षक नहीं होती। वहीं दूसरी ओर अंग्रेजी में बेहतर पिक्चर, कागज, छपाई आदि बच्चों को अपनी ओर खीचती हैं।
बच्चों को किस तरह की कहानियां पसंद हैं, इसे हम दरकिनार कर नहीं चल सकते। अमूमन साहित्यकार अपनी रूचि, पसंद नापसंद आदि से प्रेरित होकर नैतिकता, मूल्यादि से बोझिल कथा-कहानियां लिखते हैं। क्या कथा-कहानी सुनने-सुनाने या पढ़ने-पढ़ाने के पीछे एक ही उद्देश्य होना चाहिए कि किस तरह बच्चों के कोमल मन-मस्तिष्क में नैतिका का पाठ ठूंसा जाए। या कि उद्देश्य यह भी हो सकता है कि कहानियां पढ़ते वक्त बच्चे अपने परिवेश की भाषा-बोली, रहन- सहन, खान-पान आदि के बारे में भी जान सकें। गौरतलब है कि हर भाषा में प्रौढ़ पाठकों के लिए खूब लिखी जाती हैं। और उन्हें पाठक भी मिलते हैं। पाठकों की कमी का रोना जितना हिंदी लेखकों की ओर सुनाई पड़ती है उतनी अंग्रेजी भाषा के लेखकों के बीच नहीं।
यदि तिलस्म, जादू टोने वाली कथानक पर आधारित हैरी पोटर लिखी जा सकती है तो हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं में क्यों नहीं। भारतीय कथा-साहित्य में वृहदकथा, पंचतंत्र, बेताल पचीसी कुछ ऐसी कथानकें हैं जिन्हें यदि आज के परिवेश की चुनौतियों, बदले हुए माहौल में पुनर्सृजित किया जाए तो उसका एक अलग प्रभाव एवं महत्व होगा। यदि छोटे बच्चों के लिए उपलब्ध कहानियों की किताब पर नजर डालें तो पाएंगे कि उसमें कहीं न कहीं पूर्वग्रह कई स्तरों पर साफतौर पर देखा जा सकता है। वह पूर्वग्रह जाति, लिंग, वर्ण आदि से जुड़ी होती हैं। जरा कल्पना कर सकते हैं कि जब बच्चों के कोमल मन में फांक पैदा किया जाएगा तब ऐसे बच्चों की युवापीढ़ी से किस तरह के व्यवहार की अपेक्षा की जा सकती है। मसलन लड़का, लड़की, ब्राम्हण, गांव, शहर के लोगों के रहन सहन से जुड़ी मान्यताओं को कहानियों में खत्म करने की बजाए उन्हें आगे की पीढ़ी में प्रेषित किया जाता है।
आज भी कुछ कहानियां वही की वही हैं जिसे हमारी और उससे पहले वाली पीढ़ी भी पढ़कर जवान हुई वहीं हमारे समाने जवान हो रहे बच्चे भी उसी कहानी से रस ले रहे हैं। प्यासा कौए की कहानी, पंचतंत्र की खरगोश-कछुए की दौड़, लालची पंड़ित आदि की कहानियां आज भी पढ़ी जा रही हैं। लेकिन इन कहानियों से आज की चुनौतियों, परिवेशगत समझ, प्रतियोगी समाज में बच्चे को निर्णय लेने में मददगार नहीं हो पाते। इसी के साथ एक और महत्वपूर्ण बात यह भी है कि कहानियों के देश- काल, संस्कृति, बोली-वाणी आदि का स्वाद बच्चों को मिलता रहे। यह तभी संभव हो सकता है जब कथाकार आज के देश काल, चलन, परिवेशगत बदलाओं के बारे में कहानी के माध्यम से बच्चों को मानसिकतौर से तैयार करने की जिम्मेदारी समझे। तकनीक-प्रौद्योगिकी संयंत्रों ने जिस कदर हमारी रोजदिन की गतिविधियों को प्रभावित कर रहा है ऐसे में किसी के पास इतना समय नहीं है कि बच्चों को पर्याप्त समय दे सकें।
घर पर जब अभिभावक बच्चों को समय नहीं देते। स्कूल में अध्यापक की अपनी मजबूरी है कि एक साथ चालीस पचास बच्चों की क्लास में हर बच्चे पर व्यक्तिगततौर पर ध्यान दे सके। इस तरह से बच्चों से कौन संवाद करता है? जाहिर सी बात है घर पड़ी टीवी, इंटरनेट से लैस कम्प्यूटर, वीडियो गेम्स आदि बच्चों को खालीपन मिटाने में मदद करते हैं। यह बताने की जरूरत नहीं है कि इंटरनेटी समाज में कितनी और किस स्तर की जानकारी, साहित्य मिलती हैं और इंटरनेटी मास्टर जी की बातकही पलक झपकते बच्चों को किस खुले समाज में धकेल देती है। इस पर हमें विचार करना होगा।

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