महेंद्रभटनागर का काव्य-वैशिष्ट्य
— डा॰ शम्भूनाथ चतुर्वेदी

कवि महेन्द्रभटनागर ने निश्चित रूप से तीन पीढ़ियों से प्रभावित होकर काव्य-रचनाएँ तो की ही हैं; स्वच्छन्दतावादी प्रवृत्तियों से लेकर प्रगतिवादी और प्रयोगवादी स्तर तक की कविताएँ हमें उनके काव्य में उपलब्ध होती हैं। लेकिन इन तीनों पीढ़ियों में से सिर्फ़ किसी एक में ही उन्हें रखना उनके साथ अन्याय होगा। डा. महेन्द्रभटनागर युग और समय की प्रवृत्तियों से प्रभावित होकर भी अपनी रचना-सामर्थ्य की छाप अलग से छोड़ते हैं। सिर्फ़ एक ही काव्य-धारा या शिल्प के दायरे में रखकर हम उनकी कृतियों का सही-सही मूल्यांकन नहीं कर सकते। आम तौर से उन्हें प्रगतिवादी कवियों की कोटि में रखने की कोशिश की जाती है, परन्तु उनकी रचनाओं के पढ़ने से यह तथ्य बिल्कुल साफ़ स्पष्ट हो जाता है कि सिर्फ़ ‘हँसिया-हथौड़ा मार्का’ कविताएँ ही उन्होंने नहीं लिखी हैं, हर बात में चीन और रूस की ओर उनकी दृष्टि नहीं लगी रहती। प्रचारात्मक स्तर पर महेन्द्रभटनागर कविताएँ लिखना पसंद नहीं करते। उनकी रचनाओं का स्तर राजनीतिक न होकर साहित्यिक है। महेन्द्रभटनागर सही माने में भावना और संवेदना के कवि कहे जा सकते हैं। जिस बात को उन्होंने दिल में गहराई से महसूस नहीं किया, उसे काव्याभिव्यक्ति देने के लिए वे छटपटाते नहीं। शिल्प का रंगीन चश्मा लगाकर अनुभूतियों को देखने-परखने-इज़हार करने की कोशिश उन्होंने नहीं की। आधुनिक फ़ैशन परस्त रचनाकारों से उनका काव्य-स्वर बिल्कुल अलग है।

महेन्द्रभटनागर सही माने में आस्था, आशा और भविष्य-प्रतीक्षा के कवि कहे जा सकते हैं। उनकी कविता में आस्था का सशक्त स्वर इसलिए मुखर हुआ है कि वे हिम्मत और साहस के सम्बल को सदैव साथ लेकर चलने वाले रचनाकार हैं। वे डेकार्ट के संदेहवादी दर्शन के शिकार क़तई नहीं हैं; इसीलिए न तो आगत उन्हें उदासी और बेचैनी का संवाहक लगता है और न वे आस्था का प्रासाद संदेहों की नींव पर ही खड़ा करना चाहते हैं। इस दृष्टि से महेन्द्रभटनागर का काव्य-स्तर छायावादियों, प्रयोगवादियों और नयी कविता के रचनाकारों से भी भिन्न है। वे आत्म-विश्वास और चुनौती के कवि के रूप में हमारे सामने आते हैं। छायावाद युग की कविता जिस नियतिवाद और प्रारब्धवाद से ग्रसित थी, उससे दूर हटाने की प्रबल आकांक्षा उनकी कविता में उपलब्ध होती है। इस दृष्टि से अगर नयी कविता के किसी रचनाकार से महेन्द्रभटनागर की तुलना की जा सकती है तो वे हैं गिरिजा कुमार माथुर। गिरिजा कुमार माथुर का-सा भविष्याग्रह, आगत के प्रति अगाध विश्वास महेन्द्रभटनागर के काव्य में हमें उपलब्ध होता है। दूसरे शब्दों में हम इसे मानववादी प्रवृत्ति कह सकते हैं। लेकिन यह मानववाद, अस्तित्ववादियों से नितान्त भिन्न प्रकार का है। नीत्शे, कामू और सार्त्र की भाँति न तो इसमें ईश्वर की मौत का नारा बुलन्द किया गया है और न ही अविश्वास, संदेह की मनोवृत्तियों को प्रबलता तथा तीव्रता से चित्रित किया गया है। महेन्द्र भटनागर को मानव के श्रम पर पूर्ण विश्वास है। वे ‘सूखे बिरवे को पानी देने वाले कवि’ हैं। वे सिर्फ़ अँधेरे में चीख-पुकार मचाने वाले कवि नहीं हैं, नयी कविता के रचनाकारों की भाँति सर पटकने वाले कवि भी नहीं हैं। वे तो हर अँधेरी गली में जीवन की तलाश करने वाले रचनाकार हैं। दूसरे शब्दों में, वे सच्चे अर्थ में जिजीविषा के कवि हैं:
शायद
गहरी-गहरी परतों के नीचे
जीवन सोया हो,
तम के गलियारों में खोया हो,
सींचो, अन्तस की निष्ठा से सींचो,
शायद
चट्टानों को फोड़ कहीं
नव अंकुर डहडहा उठें
बाँझ धरा का गर्भस्थल
नूतन जीवन से कसमसा उठे।
जिन लोगों ने पाश्चात्य कवि-समीक्षक टी. एस. एलियट की रचना ‘वेस्ट लैण्ड’ को पढ़ा है, वे महेन्द्रभटनागर की इन पंक्तियों से एलियट का अन्तर समझ सकते हैं। एलियट ने ‘बंजरभूमि’ का वर्णन किया है। इसलिए वे अनास्था और संदेह के कवि कहे जाते हैं। परन्तु महेन्द्रभटनागर सिर्फ़ ‘बंजर भूमि’ के कवि नहीं कहे जा सकते — वे बाँझ धरा को नवीन, सरस जीवन से आप्लावित कर देना चाहते हैं ; विघटन और विध्वंस की अपेक्षा कवि की दृष्टि निर्माणोन्मुखी अधिक है। रचनाकार दो प्रकार के माने जा सकते हैं — एक तो वे जो सिर्फ़ वास्तविक यथार्थ के चितेरे होते हैं और दूसरे वे जो भविष्य-यथार्थ की तरफ़ भी उन्मुख रहते हैं। महेन्द्रभटनागर भविष्य-यथार्थ के कवि कहे जा सकते हैं, क्योंकि उनकी आँखें वर्तमान को देखकर, अच्छी तरह पहचान कर, भविष्य के एक नये स्वरूप का स्वप्न भी देखती रहती हैं। इसी अर्थ में हम महेन्द्रभटनागर को एक ‘विज़नरी पोयट’ कह सकते हैं। इस प्रकार महेन्द्रभटनागर का मानववाद निषेधात्मक मनोवृत्ति पर आधृत न होकर विधेयात्मक है:
ओ अदृष्ट की लिपियो !
कठिन प्रारब्ध हाहाकार के
अविजेय दुर्गो !
हम उमड़
श्रम धार से
हर हीन होनी की
लिखावट को मिटाएंगे,
मदिर मधुमान
श्रम संगीत से
हर तबाही के
अभेदे दुर्ग तोड़ेंगे !
ओ भवितव्य के अश्वो !
तुम्हारी रास मोड़ेंगे !
महेन्द्र भटनागर की काव्य-रचना की एक विशेषता यह भी है कि वे प्रयोगवादी या नयी कविता के रचनाकारों की तरह ‘मैं’ के दायित्व की अपेक्षा ‘हम’ के दायित्व के प्रति ज़्यादा जागरूक दिखाई पड़ते हैं। उनकी कविता में ‘अहं’ का स्वर प्रबल नहीं है। वरन् वे तो सामूहिक संचेतना के, समवाय के दायित्वों के कवि हैं। अपने साथ सामूहिक शक्ति का अहसास ही उन्हें आस्थावादी और आशावादी बना देता है। हीन-भावना के वे तीव्र विरोधी हैं — न तो वे स्वयं हीनता-ग्रन्थि से पीड़ित हैं और न वे समाज में ही हीनता की भावनाओं के प्रसार के हिमायती हैं। वे मानव-मन के इस रहस्य से परिचित हैं कि हीनता-ग्रन्थि विघटन की तरफ़ मानव को अग्रसर करती है। इसीलिए वे हीनता-ग्रन्थि को और हीन होनी को हटाकर नवीन विश्वास की आधार भूमि पर, युग-मन और युग-जीवन का नव-निर्माण करना चाहते हैं। आस्था और आशा का स्वर एक ओर तो उन्हें मानव की नयी ज़िन्दगी का इंतज़ार करने की प्रेरणा देता है और दूसरी ओर प्रकृति-चित्रण के क्षेत्र में भी हर नयी सुबह उन्हें नयी आशा से समन्वित दिखाई पड़ती है:
यह री कल खुलेगा
रेशमी पट
मुग्ध प्रकृति वधू का गात !
वे ‘भोर का आह्वान’ भी इसीलिए करते हैं कि वह उन्हें ‘बहुजन हिताय’ की परिचायक और दुख की शिकन मिटाने वाला लगता है:
मगर अब चमकता है
पूरब से आशा का सूरज
कि आती है गाती किरन,
मिटेगी यह निश्चय ही
दुख की शिकन।
महेन्द्रभटनागर के काव्य की दूसरी विशेषता है रोमानी, हल्की-फुल्की मनःस्थितियों का चित्रण। इस कोटि की रचनाएँ महेन्द्रभटनागर के किशोर-मन की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती प्रतीत होती हैं। इस प्रकार की कविताओं में कहीं तो कवि अपनी प्रेयसी से नेह-कण माँगता हुआ सुनाई पड़ता है, कहीं रूप-यौवन की प्यास को प्रकाशित करता है और कहीं-कहीं जीवन की क्षण-भंगुरता का तर्क देकर भोगवाद और वासना-संतृप्ति का हिमायती बन जाता है। कवि का मन रूप और प्यार की तरफ़ जाता ही इसीलिए है। जयशंकर प्रसाद और पाश्चात्य रोमानी कवि बायरन की तरह वह भी जवानी की उमंगों में बह जाना चाहता है। जयशंकर प्रसाद ने ‘लहर’ के एक गीत में यौवन के प्रति अपनी आसक्ति को प्रकट करते हुए लिखा था —
आह रे वह अधीर यौवन !
जयशंकर प्रसाद की तरह बायरन ने भी यौवन को जीवन का सर्वश्रेष्ठ समय माना — The days of our youth are the days of our glory. जयशंकर प्रसाद और बायरन के स्वर में स्वर मिलाकर महेन्द्रभटनागर भी यौवन के गायक बन जाते हैं:
समय तो गुज़रता चला जायगा
पर, जवानी कभी भी मिटेगी नहीं।
धर्मवीर भारती ने रूपासक्ति की अभिव्यक्ति करते हुए वासना को, पाप से पृथक करने का प्रयास किया:
मुझे तो वासना का
विष हमेशा बन गया अमृत
बशर्ते वासना भी हो तुम्हारे रूप से आबाद।
महेन्द्रभटनागर भी भारती की भाँति प्रेयसी के रूप से सताये हुए प्रतीत होते हैं और अपनी इस पीड़ा को वे बिना हिचक के प्रकट भी कर देते हैं —
किस तरह
मुझको सताया है
तुम्हारे रूप ने !
छायावादोत्तर गीत-काव्य में बच्चन और अंचल ने जीवन की नश्वरता और क्षणभंगुरता के आधार पर भोगवाद का जो पक्ष लिया, उसकी हल्की-सी गूँज नयी कविता में भी सुनाई दी। इन गीतकारों का भोग-विलास और मधुपान के क्षणों के स्थायित्व के प्रति संशयात्मक दृष्टिकोण था और इसी कारण वे आनन्द-क्षणों का सम्पूर्ण उपभोग कर लेना चाहते थे। नयी कविता में यह स्वर गिरिजा कुमार माथुर में सुनाई पड़ा। गिरिजा कुमार माथुर ने एक तो भोग-क्षणों के स्थायित्व के प्रति संदेह प्रकट किया और दूसरे, जीवन की क्षणभंगुरता का संकेत भी किया। गिरिजा कुमार माथुर के ही समान महेन्द्र भटनागर ने भी जीवन में सौन्दर्य और आनन्द-क्षणों को क्षणभंगुर माना है और इसी आधार पर उन्होंने वासनाओं की संतृप्ति की हिमायत भी की है। वे यह मानते हैं कि जीवन हरसिंगार के फूल की तरह शीघ्र ही झर जायगा, इसलिए हर फूल की गन्ध और मधु का रसास्वादन उन्हें निश्चित रूप से स्वीकार है —
जीवन हमारा फूल
हरसिंगार-सा
जो खिल रहा है आज
कल झर जायगा !
और इसलिए उनकी यह धारणा है —
जीवन दिया है
तो
लेने दो
हर फूल की मधु गंध,
जीवन दिया है,
तो
सोने दो
हर लता के अंक में निर्बन्ध।
एक और दृष्टि से भी महेन्द्रभटनागर की कविताओं पर छायावादी रंग, रस और रोमान का प्रभाव साफ़ नज़र आता है। कहीं-कहीं उनके प्रकृति-चित्र छायावादी जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा के प्रकृति-चित्रों के निकट पहुँचे दिखाई देते हैं और कहीं प्रयोगवादी रचनाकार गिरिजा कुमार माथुर के प्रकृति-चित्रण से होड़ लेते हुए प्रतीत होते हैं। महेन्द्रभटनागर ने प्रकृति-वर्णन में महादेवी वर्मा की भाँति चित्रशैली का प्रयोग किया है। प्रकृति-चित्रण में रंगों के प्रयोग और संयोजन की तरफ़ महेन्द्रभटनागर का ध्यान एक चित्रकार की ही भाँति रहता है। साथ-ही-साथ प्रकृति के जो चित्र महेन्द्रभटनागर ने अंकित किये हैं, वे गत्यात्मक हैं। महेन्द्रभटनागर सिर्फ़ प्रकृति के स्थिर चित्र-खण्डों के चितेरे ही नहीं कहे जा सकते। हाँ, टी. एस. एलियट और नकेनपंथियों की तरह चिकित्सा बिम्बों का प्रयोग उन्होंने अवश्य नहीं किया है:
और देखते ही देखते
इस मन-मोहक दृश्य-चित्र पर
क्या कहें !
किस फूहड़ चित्रकार ने
काले रंग का ब्रुश
आहिस्ता ... आहिस्ता
कितनी बेरहमी से चला दिया !
फिर क्या होता है
चाहें कितने ही छींटे
व्योम पर सफ़ेदी के फेंकें।
महेन्द्रभटनागर ‘ट्रेजडी ऑफ़ लाइफ़’ के कवि हैं। शायद इसलिए उनकी कविताओं में वेदनानुभूति इतने सशक्त रूप में अभिव्यक्ति पा सकी है। वे महादेवी वर्मा और प्रयोगवादियों की भाँति वेदना की स्वीकृति के कवि भी कहे जा सकते हैं। उनकी कविताओं में वेदना के प्रकाशन का आधार निराशा है:
आज निराशा के बादल
छाये नभ में उमड़-घुमड़,
जीवन में
जन-जन मन में हलचल।
आज युगों के घाव हरे,
हर उर में दुख दर्द भरे !
उनकी कविता में वेदनानुभूति की अभिव्यक्ति तो हुई है, परन्तु वे निराशा और वेदना से इतने नहीं दबे कि उनका सहज, स्वाभाविक आस्थावादी स्वर टूट जाय। महेन्द्रभटनागर की कविताओं का वेदनावादी स्वर प्रयोगवादियों की भाँति है। वे वेदना को एक उपलब्धि के रूप में स्वीकार करते हैं:
स्वीकार्य
जीवन-पंथ पर
दर्द हर उपेक्षा का
शांत उज्ज्वल हास से।
भारतभूषण अग्रवाल भी जीवन का हर दर्द सहेजने का संदेश देते हैं, क्योंकि पीड़ा संवाहिका है आनन्द की — पीड़ा के माथे पर ही आनन्द तिलक चढ़ाता आया है:
जीवन का हर दर्द सहेजो
स्वीकारो हर चोट समय की।
महेन्द्रभटनागर की कविता पर प्रगतिवादी काव्यधारा का प्रभाव भी है। उन्होंने वर्ग-वैषम्य, आर्थिक वैषम्य और सामाजिक वैषम्य से पीड़ित होकर भी कविताएँ लिखी हैं। आर्थिक और सामाजिक विषमता की तीक्ष्ण अनुभूति उन्हें मध्यवर्गीय क्लर्क के जीवन से होती है, जो धनाभाव के कारण अपनी लड़की की शादी नहीं कर पाता और रात-भर दफ़्तर की फ़ाइलों में चिपटा रहता है। उसके जीवन की सीमा-रेखा है, फ़ाइलों का ढेर:
दस बज रहे हैं रात के —
काफ़ी दूर पर
कुछ बेसुरे-से ढोल बजते हैं
किसी बारात के !

पास के घर में
थकी-सी अर्द्ध-निद्रित
तीस वर्षीया कुमारी
करवटें लेती किसी की याद में !

क्लर्क है उसका पिता
और वह उलझा हुआ है
फ़ाइलों के ढेर में !
(ज़िन्दगी के फेर में !)
स्वाधीनता के बाद प्रगतिवादी कवियों ने देश की अभवाग्रस्त स्थिति का मूल्यांकन किया। कुछ ने स्वप्न-भंग की बातें कहीं, कुछ ने सरकार की आलोचनाएँ कीं। महेन्द्रभटनागर की संवेदना भी इन अभावों से प्रभावित हुए बिना न रह सकी। लेकिन उनका स्वर आलोचनात्मक ही नहीं रहा। उन्होंने रचनाकार के दायित्व की ओर कवि का ध्यान दिलाया और उसके नवनिर्माण की क्षमता-सामर्थ्य का संकेत भी किया। महेन्द्रभटनागर सिर्फ़ दोष-दर्शन या परछिद्रान्वेषण करने वाले प्रगतिवादी कवि नहीं हैं, उनकी दृष्टि हमेशा स्वस्थ और नव आदर्शमय अनागत की तरफ़ रही है:
कवि उठो !
रचना करो,
तुम एक ऐसे विश्व की
जिसमें कि सुख-दुख बँट सकें,
निर्बन्ध जीवन की
लहरियाँ बह चलें,
निर्द्वन्द्व वासर
स्नेह से परिपूर्ण रातें कट सकें
सब की, श्रमात्मा की, गरीबों की
न हो व्यवधान कोई भी।
नये युग का नया संदेश दो,
हर आदमी को आदमी का वेश दो !
अगर आज के, साठोत्तर या पैंसठोत्तर रचनाकार से महेन्द्रभटनागर की तुलना की जाय, तो हम सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि जब आज का नया रचनाकार अभावों से ग्रस्त होकर, संत्रस्त और प्रपीड़ित होकर, बरबस आदमी को पशु बनाने की ओर अग्रसर हो रहा है, मानवता के ऊपर पशुता का नक़ाब डाल रहा है, उस समय महेन्द्रभटनागर सच्चे अर्थों में आज के मानव को मानवता का संदेश दे रहे हैं। आज हर रचनाकार के सामने दो ही रास्ते हैं — या तो वह पशुता को स्वीकारे या मानवता की तरफ़ बढ़ने का, मानव-मूल्यों को आत्मसात करने का प्रयास करे। हमें नये रचनाकारों से सबसे बड़ी शिकायत यही है कि वे जाने-अनजाने में मानव को पशुता के स्तर तक लाने की जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं। यह मैं मानता हूँ कि जर्मन उपन्यासकार हर्मेन हैस के उपन्यास ‘स्टीपेन वुल्फ’ के नायक की भाँति आज के मानव में एक नहीं अनेक भेड़िये छिपे हुए हैं, मानव को हड़पने के लिए अपने भयानक दाँत दिखा रहे हैं। लकिन इसका यह आशय क़तई नहीं कि मानव निराश होकर इन भेड़ियों के सम्मुख आत्मसमर्पण कर दे। हर्मेन हैस का दृष्टिकोण भी इस उपन्यास में पशुता के चित्रण द्वारा, मानवता, मानव-मूल्यों के प्रति मानव को आकर्षित करना ही है। ऐसा ही प्रयास काफ़्का की कहानी ‘मेटामोर्फ़ोसिस’ में भी उपलब्ध होता है। महेन्द्रभटनागर सिर्फ़ पशुता को चित्रित करने वाले आधुनिक रचनाकार बनने को तैयार नहीं। आधुनिक संत्रासों के बीच भी उनका रास्ता बिल्कुल सीधा है: वे अपनी रचनाओं में प्रत्येक व्यक्ति को मानवता का वास्तविक रूप दिखाने के लिए प्रयत्नशील हैं।
महेन्द्रभटनागर शान्ति के प्रसारक कवि हैं। वे आजकल के नये रचनाकारों की भाँति मानव-द्रोही (मिसएनथ्रोप) बनने का प्रयास क़तई नहीं करते। हेनरी मिलर के उपन्यास ‘ट्रोपिक ऑफ़ केंसर’ के नायक की भाँति वे मानव को मानव-द्रोही होने का संदेश नहीं देते, इसीलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में युद्ध-विराधी स्वर मुखरित किया है। वे भारत को सबसे बड़ा मानवतावादी देश समझते हैं। वे शान्ति के झण्डे का झुकना पसंद नहीं करते। न वे मानवता का रक्त व्यर्थ ही बहाने के समर्थक तथाकथित क्रान्तिकारी कवि हैं। वे सदैव इस बात के लिए जागरूक रहते हैं कि कहीं मानवता का विनाश न हो जाय, कहीं इंसान के चेहरे पर ख़ून के छींटे न दिखाई देने लगें। वैसे तो महेन्द्रभटनागर भी प्रगतिवादी खेमे के कवि माने जाते हैं, परन्तु अन्य प्रगतिवादी रचनाकारों से उनका प्रमुख अन्तर यही है कि वे क्रान्ति का नारा बुलन्द करके व्यर्थ ही रक्तपात नहीं कराना चाहते। उनका प्रगतिवाद न ख़ूनी क्रान्ति पर आधारित है, न सिर्फ़ हँसिया-हथौड़ा पर। वे नहीं चाहते कि इंसान के सुख-स्वप्नों पर बिजलियाँ गिरें —
कुछ लोग चाहें ज़ोर से कितना
बजाएँ युद्ध का डंका
पर, हम कभी भी शांति का झंडा
ज़रा झुकने नहीं देंगे !
हम कभी भी शांति की आवाज़ को
दबने नहीं देंगे !

हँसी पर ख़ून के छींटे
कभी पड़ने नहीं देंगे !
नये इंसान के मासूम सपनों पर
कभी भी बिजलियाँ गिरने नहीं देंगे !
भारत की स्वाधीनता के बाद गांधी और नेहरू के प्रभाव-स्वरूप सम्पूर्ण विश्व ने भारत की शांति पूर्ण नीति की सराहना की। ‘हीरोशिमा’ की भीषण बमबाज़ी ने सम्पूर्ण विश्व को इस बात का एहसास करा दिया था कि युद्ध और शस्त्र-प्रयोग मानवता के विध्वंस के साधन हैं। महेन्द्रभटनागर जानते हैं कि आज के युग में संस्कृति और मानवता को विघटित होने से, विध्वस्त होने से बचाया जा सकता है तो केवल युद्ध-विरोध के आधार पर ही। महेन्द्र भटनागर शान्ति के प्रसारक और युद्ध-विरोधी कवि हैं — वे जानते हैं कि अंतर्मन की दूषित भावनाएँ ही जन-जीवन को युद्ध करने के लिए प्रेरित करती हैं। युद्ध-विरोध के सम्बन्ध में महेन्द्रभटनागर रंग, रस और रोमान के साथ-ही-साथ संस्कृति के उन्नायक और मानवतावाद में विश्वास रखने वाले कवि भी कहे जा सकते हैं। देशीय और अंतर्देशीय दायित्वों के प्रति महेन्द्रभटनागर का कवि सदैव जागरूक रहता है। देश के प्रति अपने दायित्व के एहसास के कारण महेन्द्रभटनागर की कविताओं में देश की सुरक्षा का स्वर भी सुनाई देता है। वे आज़ादी की खुशी मनाने वाले कवि भी हैं और साथ-ही-साथ आज़ादी के फल को हड़पने वालों को चुनौती देने वाले रचनाकार भी। वे नहीं चाहते कि आज़ादी का नाजायज़ फ़ायदा कोई वर्ग, समाज या देश उठा सके। ऐसी स्थिति में वे शान्ति के स्वर को छोड़कर संघर्ष का आह्वान करने लगते हैं, चुनौती देने लगते हैं मानवता के शत्रुओं को। इस प्रकार महेन्द्र भटनागर की कविताओं में युद्ध और शान्ति का समन्वित स्वर हमें उपलब्ध होता है। महेन्द्रभटनागर न तो व्यर्थ ही रक्तपात का समर्थन करने वाले कवि हैं और न ही ऐसी शान्ति के हिमायती ही हैं जो मानव को इतना दब्बू और कायर बना दे कि वह अपनी आज़ादी की रक्षा भी न कर सके।

नारी के प्रति महेन्द्रभटनागर की कविताओं में वही दृष्टिकोण है, जो स्वच्छन्दतावादी कवियों में प्रसाद, निराला और पन्त का है और मैथिलीशरण गुप्त के ‘द्वापर’ की विधृता का। न तो रीतिकालीन कवियों की भाँति महेन्द्रभटनागर ने नारी को सिर्फ़ भोग्या माना है, न द्विवदीयुगीन रचनाकारों की भाँति उने सिर्फ़ आदर्श के धरातल पर ही प्रतिष्ठित किया है और न ही साठोत्तरी कविता के प्रतिनिधि रचनाकारों की तरह नारी के शारीरिक अवयवों को ही कविता का वर्ण्य-विषय माना है। बंगाल की भूखी पीढ़ी के कवि मलयराय चौधरी की भाँति न तो महेन्द्रभटनागर की कविता में स्त्री के रज से कुल्ले करने की आकांक्षा है, न पाश्चात्य रचनाकार एलेन गिंसबर्ग की लम्बी कविता ‘हाउल’ की भाँति नारी के ‘स्तनों की चाय’ पीने की इच्छा ही है।
हिन्दी के नयी पीढ़ी के रचनाकारों की तरह महेन्द्रभटनागर का कवि सिर्फ़ ‘औरत की औलाद बन कर औरत की तलाश’ ही नहीं करता है। महेन्द्र भटनागर की कविता में डी. एच. लारेंस से सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘आरंस राँड’ की भाँति पुरुष और नारी के सनातन संघर्ष की चर्चा भी नहीं की गयी है। महेन्द्रभटनागर नारी को पुरुष की पूरक शक्ति मानते हैं। नर के समकक्ष स्थान देते हैं। अपनी कविता ‘नयी नारी’ में वे नारी को पुरुष के पैरों की जूती नहीं मानते, जिसके टूटने पर कोई अफ़सोस न हो। उन्होंने पुरुष को, नारी का स्वामी न मानकर सखा माना है:
तुम नहीं कोई
पुरुष की ज़रख़रीदी चीज़ हो,
तुम नहीं
आत्माविहीना सेविका
मस्तिष्क-हीना सेविका
गुड़िया हृदय-हीना !

तुम्हारा प्रभु नहीं हूँ,
हाँ, सखा हूँ !
और तुमको
सिर्फ़ अपने प्यार के सुकुमार बंधन में
हमेशा बाँध रखना चाहता हूँ !
कला के प्रति महेन्द्रभटनागर का बहुत ही स्वस्थ दृष्टिकोण है। न तो वे द्विवेदीयुगीन कवियों की भाँति सिर्फ़ कविता को उपदेश का माध्यम बनाना चाहते हैं और न ही शमशेर, नकेनपंथियों, एज़रा पाउण्ड तथा साठोत्तरी पीढ़ी के रचनाकारों की भाँति सिर्फ़ शिल्प-वैचित्र्य को ही मान्यता देते हैं। वे तो यह मानकर चलते हैं कि किसी-न-किसी भावना के सशक्त इज़हार के लिए शिल्प का प्रयोग करना चाहिए। मानवता के विकास, सांस्कृतिक अभ्युत्थान तथा नये जीवन-मूल्यों की स्थापना में ही वे किसी भी कला की सार्थकता और पूर्णता स्वीकारते हैं। मानव के हृदय में प्यार और विश्वास की भावनाओं को पनपाने के लिए, जीवन में उल्लास के प्रसार के लिए और सौन्दर्य-बोध को जगाने के लिए ही वे कला-साधना को उचित मानते हैं:
हर हृदय में
स्नेह की दो बूँद ढल जाएँ
कला की साधना है इसलिए !
गीत गाओ
स्वर्ग से सुन्दर धरा होगी,
देव होगा नर
व नारी अप्सरा होगी !
हर मनुज में
बोध हो सौन्दर्य का जाग्रत
कला की कामना है इसलिए !
एज़रा पाउण्ड ने कहीं कहा है कि यदि कोई रचनाकार अपने पूरे जीवन में एक भी सुन्दर बिम्ब की संरचना कर लेता है, तो वह सफलता के शिखर को चूम लेता है। महेन्द्रभटनागर खण्डित बिम्बों के नहीं, बल्कि जीवन्त बिम्बों के कवि हैं। बिम्ब-सृजन द्वारा वे विचार-शृंखला की समबद्धता का एहसास कराते हैं। विचार शृंखला के साथ उनकी कविताओं में बिम्ब-शृंखला के प्रयोग भी देखे जा सकते हैं। एक ही भावस्थिति, भावबोध और केन्द्रगामी विचारधारा के लिए वे अनेक बिम्बों का इस्तेमाल एक साथ करते हैं। ज़िन्दगी के लिए अनेक बिम्बों के प्रयोग उन्होंने एक साथ किये हैं:
ज़िन्दगी
एक बेतरतीब सूने बन्द कमरे की तरह,
दूर सिकता पर पड़े तल-भग्न बजरे की तरह
ज़िन्दगी:
बदरंग केनवस की तरह
धूल की परतें लपेटे
किचकिचाहट से भरी !
बिम्बों के अतिरिक्त महेन्द्रभटनागर रूपक के सफल कवि हैं। उनकी कविताओं में रूपक के प्रयोग सबसे ज़्यादा किये गये हैं। वैसे बिम्ब भी एक प्रकार से रूपक के आधार पर ही निर्मित होता है। अतएव अगर यह कहा जाय कि रूपक उनके काव्य-शिल्प का मूलाधार है, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। रूपक का सफल प्रयोग वही कवि करता है जिसमें भावों के ‘ईक्वेंशंस’ ढूँढ़ने की अदम्य आकांक्षा होती है:
भावना के व्योम में
भोले कपोतों के उड़ाने के सिवा !

अभावों की धधकती आग से
मन को जुड़ाने के सिवा !
महेन्द्रभटनागर की कविताओं के सम्बन्ध में एक बात और कहना चाहूंगा। उनकी काव्य-भाषा उन्हं आधुनिक हिन्दी कविता में एक विशिष्ट स्थान दिलाती है। लगभग वैसा ही स्थान, जैसा कि निराला की परवर्ती रचनाओं का है और बच्चन के समग्र काव्य का। निराला और बच्चन ने साधारण, सरल और अकृत्रिम भाषा में अनूठी काव्याभिव्यक्तियाँ कीं। मैं यह मानता हूँ कि जो रचनाकार सरल भाषा में, बोधगम्य भाषा में, काव्य-सर्जना कर लेता है, वह निश्चित ही प्रौढ़ और महान रचनाकार है। आज, जबकि हिन्दी को लेकर अन्य प्रान्तों में विरोध किया जा रहा है, हमें इस बात की आवश्यकता और ज़ोरों से महसूस होती है कि सरल काव्य-भाषा का प्रयोग किया जाय। हिन्दी, संस्कृत के नज़दीक आकर अपना हिन्दीपन खो देगी, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। हिन्दी, कोई पण्डितों और पण्डों की ही भाषा नहीं है। इसीलिए जो रचनाकार आमफ़हम, अवाम की भाषा का प्रयोग अपनी रचनाओं में करता है, उसके योगदान को कभी अस्वीकारा नहीं जा सकता। महेन्द्रभटनागर की काव्य-भाषा सिर्फ़ उनकी न होकर हमारी है, सब पाठकों की है, जनता की है। जो रचनाकार अपनी रचनाओं में अपने पाठकों को सम्बोधित करना चाहेगा, उसे पाठकों की भाषा का इस्तेमाल करना ही पड़ेगा। महेन्द्रभटनागर सच्चे माने में जनवादी कवि हैं। जनभावनाओं का इज़हार उन्होंने जन-भाषा में किया है।

मैं कभी न चाहूंगा कि महेन्द्रभटनागर, इटली के उस मूर्तिकार की पूर्णता तक पहुँच जाएँ जो अपनी मूर्तिकला की पूर्णता तक पहुँचने के बाद सर पटक कर रोने लगा था कि उसकी कला आज समाप्त हो गयी। कलाकार का महत्त्व तभी तक होता है जब तक कि उसकी पूर्णता का आदर्श उससे दूर रहे, वह सचेष्ट रहे कलात्मक प्रौढ़ता के लिए।

HTML Comment Box is loading comments...
 

Free Web Hosting