॰
डा. कुमार विमल ने अपने स्तरीय लेखन से मुझे आकर्षित किया। इसमें दो मत
नहीं, प्रतिभाशाली लेखकों का प्रत्येक काल और देश में अभाव रहता आया है।
प्रतिभा के साथ-साथ कार्य-क्षमता एवं ईमानदारी का होना — ऐसे
लेखकों-रचनाकारों को और विशिष्ट बना देता है। ऐसे लेखक-रचनाकार
साहित्येतिहास के निर्माता होते हैं। साहित्य को उनका योगदान कालजयी होता
है। भावी पीढ़ियाँ भी उनके कर्तृत्व से बहुत-कुछ सीखती-समझती हैं; प्रेरणा
ग्रहण करती हैं। लेखक-आलोचक डा. कुमार विमल ऐसे ही साहित्य-सृष्टा हैं।
उनके लेखन में परिपक्वता है, मौलिकता है, सार है, स्पष्टता है, गहराई है,
विवेचन-विश्लेषण संबंधी सांगोपांगता है। उन्होंने सचमुच श्रम किया है;
सरलीकरण से वे दूर रहे हैं। साधारण ख्याति-लोभ वहाँ नहीं है। न धनार्जन के
लिए उन्होंने लिखा है। न किसी को प्रसन्न करने के लिए क़लम उठायी है। क्रमशः
लिखते गये; कालान्तर में उसने विपुल आकार ग्रहण कर लिया। साहित्य-मर्मज्ञ
और बुद्धिजीवी डा. कुमार विमल के लेखन को पूर्ण गंभीरता से ग्रहण करते हैं।
डा. कुमार विमल जैसे लेखकों की साहित्य-रचना कभी उपेक्षित नहीं रही।
उत्कृष्टता किसी की मुहताज़ नहीं होती। डा. कुमार विमल मेरे प्रिय लेखकों
में से रहे हैं । यद्यपि औरों की तरह, डा. कुमार विमल से भी मेरी भेंट नहीं
हो सकी। पत्राचार अवश्य है। एक बार, दूरदर्शन के एक कार्यक्रम में उन्हें
देखा भी। साक्षात्कार था। प्रश्नों के उत्तर डा. कुमार विमल ने दिये। मैंने
देखा, एक अत्यन्त शांत-सौम्य-संयत व्यक्तित्व। प्रांजल प्रभावी अभिव्यक्ति
थी जिसकी। हर बात में सादगीपूर्ण अद्भुत आभिजात्य दृग्गोचर हुआ। न बेचैनी,
न आतुरता। सब अत्यधिक शालीन। यह दूरदर्शन पर उनके दर्शन का चलचित्र था।
उनके लेखन में भी कहीं स्खलन नहीं है। गरिमा है। साहित्य को समझने की सही
दृष्टि; सतही कुछ नहीं, सूक्ष्म-से-सूक्ष्म को भेदती हुई अन्तर्दृष्टि और
भावना-कल्पना-विचारणा को रूपायित करती हुई उनकी शैली; कथन-भंगी का प्रवाह।
सब में नयापन, ताज़गी।
॰
डा. कुमार विमल के और निकट आने की, उनसे व्यक्तिगत सम्पर्क करने की बड़ी
इच्छा थी; किन्तु अभी-तक पूरी नहीं हुई। ऐसे साहित्य-मर्मज्ञ की मुझ जैसे
तथाकथित रचनाकार पर भी दृष्टि पड़े; ऐसी वासना भी वर्षों सँजोयी। और अब
अंतिम पड़ाव आ गया !
॰
डा. कुमार विमल से मेरा पत्राचार ख़ूब हुआ। उनके समस्त पत्रों को प्रस्तुत
तो नहीं किया जा सकता। अन्यों के लिए, प्रत्येक पत्र की उपादेयता व
सार्थकता भी नहीं होती। प्रत्येक पत्र में विशिष्ट भी नहीं होता। बहुत-से
पत्र मात्र इतिवृत्तात्मक होते हैं, सूचना-परक होते हैं, काम-काजी होते
हैं।
॰
डा. कुमार विमल-द्वारा सम्पादित ‘अत्याधुनिक हिन्दी साहित्य’ (1965) में
संकलित उनका लम्बा आलेख ‘आधुनिकता ?’ जब मैंने पढ़ा; अत्यधिक प्रभावित हुआ।
इस आलेख को मैंने, सचमुच, दर्जन-बार से अधिक पढ़ा होगा। वाक्य-के-वाक्य
कण्ठस्थ हो गये। जगह-जगह भाषणों में इसकी वैचारिक सम्पदा को दुहराया — जी
हाँ, डा. कुमार विमल के नामोल्लेख से। इस आलेख में ज़बरदस्त त्वरा है,
आक्रामक तेवर हैं , तीखा आक्रोश है, निस्संकोच बेलाग अभिव्यक्ति है — किसका
लिहाज़, किसका भय ? मानवता को जगाता है यह आलेख, उसे सचेत-सक्रिय करता है,
उसके भविष्य को सुरक्षित बनाता है। साहित्यकार से इससे अधिक और क्या
अपेक्षा की जा सकती है ?
॰
अभी-तक मैं डा. कुमार विमल के कवि-रूप से परिचित नहीं था। अचानक, ‘प्रकर’
(दिल्ली) नामक समीक्षा मासिक पत्रिका से उनका कविता-संग्रह ‘ये सम्पुट सीपी
के’ (1972) समीक्षार्थ आया; जिसकी समीक्षा यथासमय प्रकाशित हुई। तब यह
कविता-संग्रह देख कर उछल पड़ा और एक साँस में पढ़ गया। लेकिन, निराश इस अर्थ
में हुआ कि उसमें हिन्दी की ‘नयी कविता’ का लेश भी उपलब्ध नहीं हुआ। हिन्दी
की ‘नयी कविता’ का — ‘नवलेखन’ का — इतना बड़ा प्रवक्ता और स्वयं की
काव्य-सृष्टि में उससे इतना अछूता ! दूसरी बात जो उभर कर आयी; वह कविताओं
का बौद्धिक धरातल। डा. कुमार विमल विद्वान हैं ; उनकी विद्वत्ता उनके इस
संग्रह की कविताओं पर भी हावी नज़र आयी। समीक्षा में, जिस ‘प्रसंग-गर्भत्व’
का उल्लेख मैंने किया है; उसका संबंध इसी से है। सामान्य पाठक का ऐसी
रचनाओं से आवर्जन नहीं हो सकता। इनको समझने-सराहने के लिए, पाठक का भी कुछ
बौद्धिक धरातल होना ज़रूरी है। वह अपनी साहित्यिक विरासत का कुछ ज्ञाता भी
हो या कम-से-कम उसमें रुचि रखता हो। लेकिन, इसका अभिप्राय यह नहीं कि कुमार
विमल के काव्य में दुरूहता है। प्रांजलता-स्पष्टता-सम्प्रेषणीयता तो उनके
समग्र लेखन में है।
॰
चाहता था, उनके और-और कविता-संग्रह भी देखूँ-पढ़ूँ। किन्तु उपलब्ध नहीं हो
सके। और अब क्षण-क्षण ऊर्जा-क्षय !
॰
डा. कुमार विमल ने अपने पत्रों में कविता-संग्रह मुहैया कराने की बात
बार-बार लिखी भी; किन्तु वह बात / चाह तात्कालिक रही। उसका कार्यान्वय नहीं
हुआ। अपने लेखन के प्रति बेख़बर ही नज़र आये डा. कुमार विमल ! बिना किसी
दुराव के इच्छा प्रकट की; किन्तु बस, फिर सब भूल गये ! प्रस्तुत पत्रों में
यह सब आपको मिलेगा। डा. कुमार विमल पत्र-संस्कृति के धनी हैं । उनके पत्रों
तक से उनकी सुरुचि झलकती है। मित्रों की भावनाओं का वे पूरा ध्यान रखते हैं
। उनकी गतिविधियों की, उनके कार्यक्रमों की याद रहती हैं उन्हें। यह बात
अलग है, कार्याधिक्य, अस्वास्थ्य अथवा प्रमादवश वे, वह लिखा पूर्ण कर न
पाएँ, जो पत्रों में सहज ही अभिव्यक्त कर आश्वस्त करते हैं।
॰
सन् 1977 में मेरा बारहवाँ कविता-संग्रह ‘संकल्प’ प्रकाशित हुआ। डा. कुमार
विमल को भेजा। पत्र लिखा। उनके उत्तर प्राप्त हुए — आत्मीयता /
सम्मान-भावना से भरपूर। लेकिन, ‘संकल्प’ पर वे अपनी ‘व्यवस्थित धारणा’ /
प्रतिक्रिया’ आज-तक न लिख-भेज सके ! निम्नांकित दो पत्र द्रष्टव्य :
॰
पत्र 1 / पटना – 20
॰
बन्धुवर,
आपका दि. 2 अप्रैल 1977 का कृपापत्र मिला और ‘संकल्प’ नामक आपकी
कविता-पुस्तिका भी मिली। बहुत प्रसन्नता हुई। स्नेह देने में आप सदैव मुझसे
आगे रहे। आलसी होने के कारण मैं स्नेह के आदान-प्रदान में पीछे रह गया।
बहुत दिनों के बाद इस स्नेहिल स्मरण के लिए आभारी हूँ। ‘संकल्प’ की कविताओं
को पढ़ कर अपनी व्यवस्थित धारणा आपको 2-3 सप्ताह के भीतर लिख भेजूंगा।
॰
अब मेरा आवासीय पता बदल गया है, जो इस पत्र के शिरोभाग पर लिखा हुआ है।
शायद, आपको यह सूचना भी नहीं मिली होगी कि अब मैं विगत दो-ढाई वर्षों से
‘बिहार लोक सेवा आयोग’ के सदस्य पद पर कार्य कर रहा हूँ। फिर भी,
राष्ट्रभाषा पर्षद से मेरा संबंध बना हुआ है और मैं उसके शासी निकाय का
वरिष्ठ सदस्य हूँ।
आशा है, आप सपरिवार सानंद हैं।
आपका,
कुमार विमल
28 अप्रैल 77
॰
पत्र 2 / पटना – 20
॰
बन्धुवर,
आपका पत्र मिला। विलम्ब भले ही हो, आपकी पुस्तक पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य
ही लिखूंगा। अपने निबन्धों में जहाँ कहीं अवसर मिला, उसकी चर्चा भी करूंगा।
मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि इन दिनों आप ‘विक्रम विश्वविद्यालय’ के
हिन्दी-बोर्ड में वरिष्ठतम प्रोफ़ेसर होने के कारण ‘बोर्ड’ के अध्यक्ष हैं।
लगता है, मुझे यह सूचना विलम्ब से मिली है। कृपया मेरी हार्दिक बधाई
स्वीकार करें।
परिषद् और हिन्दी ग्रन्थ अकादमी के पदाधिकारियों से मैं आपके द्वारा
निर्दिष्ट संदर्भ में बातचीत करूंगा। आपकी विदेश यात्रा का निश्चित
कार्यक्रम बन जाय तो मुझे उसकी पूर्व सूचना देंगे। आपको किन-किन देशों की
यात्रा करनी है, कृपया यह भी मुझे बतायेंगे।
आपका,
कुमार विमल / दि. 4 जुलाई 77
॰
जून 1977 से मेरे ताशकंद जाने का ‘हल्ला’ होता रहा। ‘ताशकंद
विश्वविद्यालय’ में हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रोफ़ेसर-पद पर, दो-वर्ष की
प्रतिनियुक्ति पर जाना था। ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’, ‘भारतीय
सांस्कृतिक संबंध परिषद्’ और विदेश मंत्रालय द्वारा सब तय हो चुका था
(विस्तार से दृष्टव्य — ‘आत्मकथ्य’ में ‘ताशकंद-प्रसंग’)। पूरी तैयारी कर
ली थी। कुछ-कुछ रूसी भाषा का ज्ञान भी अर्जित कर लिया था। किन्तु, एक दिन
‘भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद्’ के चेयर्स के प्रभारी अधिकारी ने बताया
कि ‘ताशकंद विश्वविद्यालय’ के कुलपति का ताज़ा टेलेक्स आया है कि इन दिनों
ताशकंद में आवासीय स्थान की तंगी है; अतः फ़िलहाल योजना को स्थगित कर दिया
है। इस बात में सचाई ज़रूर थी; क्योंकि फिर भारत से कोई भी हिन्दी-प्रोफ़ेसर
‘ताशकंद विश्वविद्यालय’ नहीं गया। आगे चल कर ‘सोवियत संघ’ में परिवर्तन हो
गये। स्वतंत्र उज्बेकिस्तान बन गया। मेरे से संबंधित विश्वविद्यालय ‘विक्रम
विश्वविद्यालय’, उज्जैन के तत्कालीन कुलपति डा. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ ने मुझे
लिखा — ‘तुम ताशकंद के लिए अवश्य प्रयत्न करो। पता नहीं कैसे रह गया वह तो
क़रीब-क़रीब तय हो गया था। एक बार तुम्हारा विदेश जाना परमावश्यक है; अनुभव व
मैत्री आयाम दोनों दृष्टियों से।’ डा. कुमार विमल जी ने भी इस संबंध में
रुचि ली थी और जानना चाहा था :
॰
पटना – 20
॰
बन्धुवर,
आपका एक पत्र मुझे जनवरी मास में ही मिला था। किन्तु कई कारणों से मैं समय
पर आपको उत्तर नहीं दे सका - क्षमा करेंगे।
तब आपने मुझे सूचित किया था कि आप ताशकंद विश्वविद्यालय दो वर्षों के लिए
प्रतिनियुक्ति पर जा रहे हैं। चूँकि आपके कथनानुसार सत्र सितम्बर के अन्तिम
सप्ताह से शुरू होने वाला है, इसलिए मैं उम्मीद करता हूँ कि अब आप ताशकंद
यात्रा की तैयारी में होंगे। मैं भी सलाह दूंगा कि आप ताशकंद अवश्य जायँ।
बहुत अच्छी जगह है और भारतीय विद्वानों के लिए कई दृष्टियों से बहुत उपयोगी
है। मैंने भी अपनी रूस यात्रा में ताशकंद को विशेष महत्त्व दिया था।
आपने मुझसे आग्रह किया था कि मैं भारती भवन, पटना से आपके शोध-प्रबन्ध के
नये संस्करण की व्यवस्था करा दूँ। स्थिति यह है कि अब भारती भवन ने
साहित्यिक प्रकाशनों में रुचि लेना लगभग छोड़ दिया है। यदि आप बिहार
राष्ट्रभाषा परिषद से नया संस्करण प्रकाशित कराना चाहते हैं , तो उसमें कुछ
नियम संबंधी बाधा हम लोगों के समक्ष अवरोध पैदा करेगी। कारण, बिहार
राष्ट्रभाषा परिषद अबतक अप्रकाशित ग्रन्थों के ही प्रकाशन करती रही है।
अन्यत्र प्रकाशित ग्रन्थों के नये संस्करण प्रकाशित करने का प्रावधान
परिषद् की नियमावली में नहीं है।
आप जैसी राय देंगे, उस दिशा में कुछ सोचने और करने का प्रयास करूंगा। आप तो
स्वयं ही हिन्दी के समर्थ लेखक हैं और देश भर के सभी स्तरीय प्रकाशक आपको
जानते हैं।
शुभकामनाओं सहित,
आपका
कुमार विमल / दि. 12 सितम्बर 78
॰
डा. कुमार विमल मेरी कविताओं के अंग्रेज़ी-अनुवादों की कृतियों के आधार
पर, अंग्रेज़ी में एक लेख लिखने वाले थे। किन्तु वे न लेख तैयार कर सके; न
उन्होंने अपनी नव-प्रकाशित कविता-पुस्तकें ही मुझे भेजीं ! इस संदर्भ में
दो पत्र दृष्टव्य :
॰
* पत्र 1 / पटना – 20
॰
बन्धुवर,
आपका 28-9-78 का पत्र मुझे यथायमय मिला था। व्यस्तताओं के कारण चाहकर भी
तुरंत उत्तर नहीं दे सका। मुझे यह जाकर प्रसन्नता हुई कि अब आप जीवाजी
विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हो गये हैं ।
आपने अपने पत्र में अपनी कविताओं के अंग्रेज़ी अनुवाद ‘Forty Poems Of
Mahendra Bhatnagar’ और ‘After The Forty Poems’ की चर्चा की है। आपके इन
दोनों काव्य-संकलनों की समीक्षा मैं अंग्रेज़ी में लिख दूंगा। लेकिन एक शर्त
है। वह यह कि मैं अपनी नवप्रकाशित दो कविता-पुस्तकें आपके यहाँ भेजवा देता
हूँ और आप उनकी विस्तृत समीक्षा हिन्दी अथवा अंग्रेज़ी में लिख दें।
और सकुशल है। आपके पत्रोत्तर की प्रतीक्षा रहेगी।
आपका,
कुमार विमल / दि. 27 नवम्बर 78
॰
* पत्र 2 / पटना – 20
॰
बन्धुवर,
अपका दिनांक 28-7-1980 का पत्र मिला। यह जान कर प्रसन्नता हुई कि मेरे
द्वारा भेंट-स्वरूप प्रेषित पुस्तक आपके पास पहुँच गयी है। मैं अपने दो
काव्य-संकलन भी आपके शीघ्र भिजवाऊंगा। उन दोनों काव्य-संकलनों पर आप कुछ
लिखने की कृपा करें। मेरे जीवन की अभिव्यक्ति मेरी कविताओं में ही हो सकी
है। लेख और शोध-निबन्ध तो अध्ययन, चिन्तन और मनन के शिलाखंड के नीचे ही दब
कर रह गये हैं ।
आशा है। आप सपरिवार सानंद हैं। आपकी ताशकंद-यात्रा का क्या हुआ? लिखेंगे।
आपका,
कुमार विमल / दि. 5-8-80
॰
‘मध्य-प्रदेश साहित्य परिषद्, भोपाल’ एवं ‘जीवाजी विश्वविद्यालय,
ग्वालियर’ के संयुक्त तत्वावधान में, ‘कमलाराजा कन्या महाविद्यालय,
ग्वालियर के कला-भवन में, ‘युवा लेखक शिविर’ (दि. 16-17 मार्च 1980) आयोजित
किया गया; जिसका संयोजन-दायित्व मुझे सौंपा गया। ‘शिविर’ में डा. विनयमोहन
शर्मा, डा. विद्यानिवास मिश्र, डा. हरिहरनिवास द्विवेदी, डा. ललित शुक्ल,
डा. गोविन्द ‘रजनीश’ आदि विद्वानों ने भाग लिया। डा. कुमार विमल को भी
मैंने आमंत्रित किया था। वे आने भी वाले थे। किन्तु, अचानक अस्वस्थ हो जाने
के कारण न आ सके। ‘शिविर’ में कुछ अनामंत्रित बुद्धिजीवी और लेखक डा. कुमार
विमल से मिलने के उद्देश्य से ही आये थे; जो निराश हुए :
॰
पटना – 20
॰
बन्धुवर,
आपका 1-3-80 का लिखा हुआ पत्र मुझे 7-3-80 को मिला। मैं आपके ‘शिविर’ में
अवश्य सम्मिलित होऊंगा। 16-3-80 की संध्या तक मैं लश्कर पहुँच जाने की
चेष्टा करूंगा। रेलगाड़ी से जाने-आने में काफ़ी समय लगेगा और 'कविता : कथ्य
और कला’ पर मेरा टंकित आलेख 15-3-80 तक आपके पास पहुँच जायगा। वहाँ
रुकने-ठहरने में मुझे कोई असुविधा नहीं हो — इस पर आप कृपया विशेष ध्यान
देंगे।
आपका,
कुमार विमल / दि. 9-3-80
॰
मध्य-प्रदेश और बिहार के विश्वविद्यालयों के स्नातकोत्तर छात्रों को
ध्यान में रख कर छायावादोत्तर कविता का एक संकलन तैयार किया; जिसमें डा.
कुमार विमल की कविताएँ भी समाविष्ट की गयीं। पाण्डुलिपि तैयार करने का
अग्रिम पारिश्रमिक देकर, प्रकाशक पाण्डुलिपि प्रकाशनार्थ ले भी गये। किन्तु
खेद है, ‘संकलन’ नहीं छपा। स्नातकोत्तर छात्रों की संख्या कम रहती है; कुछ
इस कारण और कुछ; सहयोगी कवियों को कॉपीराइट-शुल्क देने की शर्त सुन कर ।
॰
पटना – 20
॰
बन्धुवर,
नमस्कार। आपके दि. 15-6-1981 के कृपा-पत्र का अन्तरिम उत्तर मैं ने तुरन्त
भेज दिया था। शायद, मिल गया होगा। यह जानकर बड़ी ख़ुशी हुई कि इन दिनों आप ही
जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर में हिन्दी के ‘बोर्ड ऑफ़ स्टडीज़’ के
अध्यक्ष हैं।
आपके आदेशानुसार अपनी आठ कविताएँ इस पत्र के साथ संलग्न कर भेज रहा हूँ;
जिनके शीर्षक क्रमशः इस प्रकार हैं — काफ्का के प्रति, कवि, स्वप्नान्तर,
आद्या, शुद्धत्स्व, गीत-कामना, पूर्णता के विरुद्ध और व्यथा-कथा। इन
कविताओं के साथ आपके निर्देशानुसार रचना-काल भी दे दिया गया है। व्यस्तताओं
के कारण मैं अपनी रचनाओं के चयन में अपेक्षित श्रम नहीं कर सका। जो रचनाएँ
भेज रहा हूँ, उन्हीं में कृपा कर चयन कर लेंगे। साथ में संक्षिप्त परिचय भी
आपके अनुरोध के अनुसार संलग्न कर दिया गया है।
कृपया प्राप्ति-सूचना देंगे। शुभकामनाओं सहित,
भवदीय,
कुमार विमल / दि. 30-6-81
॰
सन् 1990 में मेरा चौदहवाँ कविता-संग्रह ‘जीने के लिए’ प्रकाशित हुआ।
डा. कुमार विमल जी को प्रति भेजी; उनका उत्तर प्राप्त हुआ :
॰
पटना – 20
॰
बंधुवर,
नमस्कार। आपके द्वारा प्रेषित ‘जीने के लिए’ नामक कविता-संग्रह की मानार्थ
प्रति पाकर बहुत प्रसन्नता हुई। इसमें सन् 1977 ईस्वी तक की आपकी कविताएँ
संकलित हैं। मैं इन्हें ध्यानपूर्वक पढूंगा। अभी शीघ्रता में हूँ। केवल
प्राप्ति-सूचना के लिए यह पत्र भेज रहा हूँ।
आपकी इस पंक्ति से अब मैं भी सहमत हूँ --
‘ज़िन्दगी ललक थी; किन्तु भारी जुआ बन गयी !’
भवदीय,
कुमार विमल / दि. 21-11-90
॰
डा. कुमार विमल का एक पत्र विशिष्ट है। यह पत्र 17 जून 1991 का लिखा हुआ
है। उन्होंने मुझे और मेरे लेखन को बड़ा मान दिया; किन्तु जब-जब उनके
काव्य-कर्तृत्व से संबंधित मैंने कार्य-योजना बनायी; उन्होंने रुचि नहीं
ली! ! परिणामतः जो चाहा; कुछ इस कारण भी सम्पन्न नहीं हो सका।
ग्वालियर-पटना की दूरी भी बाधक रही। प्रकाशन-समस्या अलग; ख़ास तौर से
काव्य-कृति की। निम्नांकित पत्र पाने के बाद, दो-चार प्रकाशकों को लिखा;
लेकिन कोई तैयार नहीं हुआ। अन्यथा वांछित कृति आकार अवश्य ले लेती :
॰
पटना – 20
॰
आदरणीय महेंद्र भटनागर जी,
नमस्कार। आज पत्राचार की संचिका को उलटने-पुलटने के क्रम में आपके द्वारा
प्रेषित वर्षों-वर्षों पुरानी चिट्ठियाँ मिलीं। 1952-54 से ही हम लोगों के
बीच पत्राचार चल रहा है। आपकी सबसे अधिक चिट्ठियाँ उस समय आयी हैं, जिस समय
मैं बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना का निदेशक था। बाद में जैसे-जैसे मेरा
जीवन साहित्य-कर्म से दूर होता गया, वैसे-वैसे पत्राचार की गति मंद होती
गयी। सबसे कम पत्राचार 1974 से 1985 की अवधि में हुआ-सा लगता है, जब मैं
बिहार लोक सेवा आयोग का सदस्य और बाद में अध्यक्ष था।
आपकी एक चिट्ठी ऐसी मिली, जिसमें आपने मेरी कविताओं का संकलन कर उसकी
विस्तृत भूमिका लिखने की योजना बनाई थी। आपने इस दिशा में कुछ काम भी किया
है। किन्तु, उसके बाद, शायद, आप विदेश चले गये या आपका स्थानान्तरण हो गया,
जिससे यह योजना पूरी नहीं हो सकी।
पता नहीं, अब आपकी क्या व्यस्तताएँ हैं ? यदि आपकी क़लम मेरे आलोचना-साहित्य
या मेरे काव्य-साहित्य या मेरे समग्र साहित्य पर चल पाती, तो मेरा लिखना
सार्थक हो जाता। लेखन की गहराई में जाकर किसी की साहित्य-साधना के मर्म को
समझने वाले और उस पर निस्पृह भाव से विस्तारपूर्वक लिखने वाले अब कहाँ रहे
?
कुछ दोष तो मेरा भी रहा या नियति का रहा कि मैं क्रमशः प्रशासनिक पदों से
अधिकाधिक बँधता चला गया।
अब तो समय बीत चुका है। मेरे पछताने से क्या होगा?
शुभकामनाओं सहित
भवदीय,
कुमार विमल
दि. 17-6-1991
॰
प्रस्तुत पत्र मेरे आलोचक को एक उच्च-स्तरीय रचनाकार द्वारा प्रदत्त
अति-महत्त्वपूर्ण प्रमाण-पत्र है। पूर्व में, ‘प्रकर’ में प्रकाशित उनके
कविता-संग्रह ‘ये सम्पुट सीपी के’ की मेरे द्वारा लिखित समीक्षा डा. कुमार
विमल जी को पसंद आयी थी; हाँला कि उसे इतने मनोयोगपूर्वक नहीं लिख पाया था।
पुस्तक-समीक्षाएँ वैसे भी संक्षिप्त-रूप में छप पाती
हैं । यद्यपि ‘प्रकर’ ने ‘ये सम्पुट सीपी के’ को डेढ़ पृष्ठ से अधिक स्थान
दिया था।
सन् 1994 से ‘ग्रंथावली’ प्रकाशन की बात चल रही है। सन् 1997 में पंद्रहवाँ
कविता-संग्रह ‘आहत युग’ प्रकाशित हुआ। डा. कुमार विमल जी को जब-तब जानकारी
देता रहा। उनका समर्थन सदा प्राप्त हुआ :
॰
पटना – 20
॰
प्रिय डा. महेंद्र भटनागर जी,
नमस्कार। आपके द्वारा प्रेषित दि. 20-7-94 का पत्र मिला। धन्यवाद।
आपके साहित्य की प्रकाशन-योजना मुझे पसंद आयी। प्रस्तावित तीन खंडों में
आपका सम्पूर्ण साहित्य आ जाय, तो उससे पाठकों को लाभ होगा।
‘आहत युग’ के प्रकाशन की प्रतीक्षा रहेगी। अभी-अभी मेरा भी एक काव्य-संकलन
प्रकाशित हुआ है — ‘कविताएँ कुमार विमल की’ — दिल्ली से। प्रकाशक से
सम्पर्क हो सका, तो उसकी एक मानार्थ प्रति आपके पास भिजवाऊंगा।
मुझे बहुत व्यस्त रहना पड़ता है। पढ़ना भर जारी है, लेखन बंद।
शुभकामनाओं सहित,
भवदीय,
कुमार विमल / दि. 28-7-94
॰
आख़िरकार, छह-खंडों में ‘समग्र’ का प्रकाशन तय हुआ। तीन कविता-खंड, दो
आलोचना-खंड, एक विविध रचनाओं का। नया कविता-संग्रह ‘अनुभूत क्षण’ खंड तीन
में शामिल है। इसका पृथक से भी प्रकाशन होना था। फ़ोन पर स्वीकृति पाकर,
भूमिका-हेतु पाण्डुलिपि डा. कुमार विमल जी को भेज दी। लेकिन, अचानक उनके
गंभीर रूप से बीमार पड़ जाने के कारण; व्यवधान आया। डा. कुमार विमल का पत्र
मिला। पूर्व में, ‘Forty Poems Of Mahendra Bhatnagar’ और ‘After The Forty
Poems’ पर लेख न लिख पाने को स्वयं ‘वादा-ख़िलाफ़ी’ तक कह डाला ! जब कि ऐसा
कुछ न था। चाहते हुए भी, कभी-कभी लिखना नहीं हो पाता :
॰
पटना – 20
॰
बन्धुवर,
आपकी चिट्ठी मिली। आपके द्वारा प्रेषित पैकेट भी मिला। धन्यवाद।
बहुत गंभीर रूप से बीमार हो गया हूँ। पहले भी मुझसे वादा-खिलाफी हो चुकी
है। ‘Forty Poems Of Mahendra Bhatnagar’ और ‘After The Forty Poems’ पर
मैं नहीं लिख सका था।
इस बार भी नहीं लिख सकूंगा। आपकी जिज्ञासा है कि इधर नई कृतियाँ कौन-कौन-सी
आई हैं ? नहीं के बराबर आई हैं।
एक सप्ताह पहले नेशनल पब्लिशर्स, दिल्ली से मेरी एक किताब आई है — ‘तीन
शिखर कृतियाँ’। दस-बारह महीन पहले जय भारती प्रकाशन, इलहाबाद से मेरी किताब
आई थी — ‘साहित्य-चिन्तन और मूल्यांकन’।
साहित्य-सेवा बहुत हो चुकी। लेकिन साहित्य सेवा से होता-जाता क्या है ?
बुढ़ापे में रोग मिलता है। अर्थाभाव मिलता है — सन्ततियों को कष्ट मिलता है।
पता नहीं, आपका अनुभव क्या है ?
कुमार विमल
दि. 23-1-2000
॰
‘साहित्य-सेवा’ पर उनके अभिमत से मैं सहमत नहीं हुआ। लेखन / सृजन कोई
साहित्य-सेवा नहीं। मौलिक सृष्टि है। आन्तरिक अनुभूतियों, अनुभवों और
चिन्तन की अदम्य अभिव्यक्ति है साहित्य-सृष्टि। 14 मार्च 2000 को उनका एक
पत्र और मिला :
॰
पटना – 20
॰
बन्धुवर,
नमस्कार। आपके 31-01-2000 के पत्र का उत्तर आज दे रहा हूँ। अब भी पूरी तरह
स्वस्थ नहीं हूँ। पढ़ना-लिखना बन्द है।
आपकी पुस्तक पर कुछ लिख पाता, तो मुझे प्रसन्नता होती।
आशा है, आप स्वस्थ और प्रसन्न हैं।
भवदीय,
कुमार विमल
दि. 14-3-2000
॰
सन् 2002 में, छह खडों में ‘महेंद्रभटनागर-समग्र’ का प्रकाशन हुआ।
प्रकाशन-पूर्व डा॰ कुमार विमल जी ने अपना जो निम्नलिखित अभिमत भेजा; वह खंड
– 3 के फ़्लैप पर प्रकाशित है :
॰
“अपनी पीढ़ी के एक सशक्त हस्ताक्षर का नाम है महेंद्रभटनागर; जिसकी
कविताएँ समय की चोट से आहत नहीं हुईं; बल्कि जीवन्त बन गईं। सुकवि और
समीक्षक डा. महेंद्रभटनागर के सर्जक व्यक्तित्व के कई आयाम हैं। प्रगतिशील
चेतना के इस समादृत कवि की काव्य-साधना में वह सातत्य है, जो परिमाण और
परिणाम —- दोनों को संवर्द्धित करता है। जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी
संकल्प-बल के धनी इस साहित्य-साधक को साधना के पथ से विचलित नहीं कर सकीं।
अपने समय और समाज के तौर-तेवर को महेंद्रभटनागर की कविताओं ने ईमानदारी के
साथ अभिव्यक्ति दी है। इसलिए इन कविताओं को पढ़ना एक अहद् से गुज़रना है और
एक समग्र युग के ‘वास्तव’ का एहसास करना है। ऐसे जाग्रत, जिजीविषु और
जयिष्णु कवि का हार्दिक अभिनन्दन !”
— डा. कुमार विमल
॰
यह अभिमत उन्होंने फ़ोन पर बड़े प्रसन्न भाव से पढ़कर मुझे सुनाया था।
॰
इधर, 23 फ़रवरी 2010 को अचानक, ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग’ ने,
अपने पुरी-अधिवेशन में मुझे और डा॰ कुमार विमल को ‘सम्मेलन’ की सर्वोच्च
मानद उपाधि ‘साहित्यवाचस्पति’ से साथ-साथ अलंकृत व सम्मानित किया। वार्धक्य
और अस्वास्थ्य के कारण मैं पुरी यात्रा नहीं कर सका। इस संदर्भ में, डा॰
कुमार विमल जी से विनोद-वार्ता करने की इच्छा थी; किन्तु व्यस्तताओं के
कारण न कर सका।
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अब,अचानक उनके दिवंगत हो जाने के कारण (नवम्बर 2011) इस अनवधानता पर दु:ख
अनुभव कर रहा हूँ।
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डा॰ कुमार विमल-जैसे लेखक शताब्दी में बहुत-कम जन्म लेते हैं।
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