मिलावट के इस दौर में असली बचा न कोय

डॉ. शशि तिवारी

व्यक्ति की पहचान पहले उसके नाम से बाद में उसके कार्यों से होती है। कार्यों के गुण-दोषों केे ही आधार पर लम्बे समय के बाद उसकी छबि बनती एवं असावधानी से बिगड़ती भी रहती है। अर्थात् आदमी को हर पल सजग रहने की आवश्यकता रहती है। वही संस्थाओं की छवि उसकी विचारधारा और जुड़े समूह से होती है। राजनीतिक पार्टिया भी इससे अछूती नहीं है। फिर बात चाहे कांग्रेस, भाजपा, कम्यूनिष्ट, मार्कवादी, समाजवादी, बसपा या क्षेत्रीय दलों की ही क्यों न हो। सभी अपनी-अपनी विचारधारा पर चल कार्य करते है। इतिहास गवाह है जब-जब पार्टी विचारधारा का मेल व्यक्ति की अति महत्वकांक्षा से मेल नहीं खाया, तब-तब नई पार्टी का गठन या जन्म हुआ है। प्रारंभ में रही कांग्रेस, जनसंघ, कम्यूनिष्ट आदि जैसी प्रमुख पार्टिया भी आज व्यक्तियों की महत्वकांक्षा की शिकार हो नित नई राजनीतिक पार्टियों का गठन हो उदय हो रहा है। नतीजा प्रतिस्पर्धा की दौड़, सत्ता का नशा व लालच की लोलुपता में ‘‘मेरी साड़ी उसकी साड़ी से सफेद’’ की तर्ज पर अपने को पाक साफ व सामने वाले के ऊपर केवल कीचड़ उलीचने और फैंकने में ही मशगूल रहते है।

वर्तमान में आज किसी भी बड़ी राजनीतिक पार्टी की कोई भी विचारधारा प्रदूषित होने से बच नहीं पाई है फिर चाहे वो कांग्रेस हो या भाजपा। इनके प्रदूषित होने के पीछे सबसे बडा सशक्त कारण कुर्सी-सत्ता पर बने रहने के लिए अपनी नीतियों से विचलित होने के कारण ही इनका जनाधार भी घटा, लेकिन लालसा तो सत्ता की ही है। बस यही से शुरू होता है सांठ-गांठ का सिलसिला अर्थात् गठबंधन का सिलसिला। ये पहले अपनी विचारधारा से गिरे अब गठबंधन के धर्म के नाम पर अपने को और भी गिरा ‘‘सत्ता के लिए कुछ भी करेगा’’ की तर्ज पर पार्टी विचारधारा को रसातल में पहुंचा रहे है। इस बुराई व पार्टी विचारधारा के प्रदूषण होने से आज कोई भी राजनीतिक पार्टी अछूती नहीं है।

घर से लेकर बाहर तक आज बड़ों का ही महत्व है इसलिए आज सभी आमजन कांग्रेस और भाजपा की ही और देखते है। दुर्भाग्य से आज दोनों ही बड़ी पार्टिया बिना गठबन्धन के केन्द्र में नहीं चल सकती। भ्रष्टाचार को ले दोनों ही राजनीतिक पार्टिया बात तो करती है लेकिन इससे खुद भी अछूती नहीं हैं?

भाजपा संसदीय दल के अध्यक्ष लालकृष्ण आडवानी जब पार्टी कार्यकर्ताओं को चुनाव के लिए कमर कसने की बात करते है, राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरूण जेटली भी ऐसी ही संभावनाओं की बात करते है और उसी बीच लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज्य पार्टी में एकता की बात कहती है तो ऐसा लगता है कि पार्टी के अन्दर सब कुछ ठीक नहीं है? सत्ता का छींका पास में तो है लेकिन अकेले इसकी और न दौड़े, पहले अपने में एका कर फिर सत्ता के छीके पर टूट मलाई खायें? सुषमा की कहीं गई बातों में अनेकों अर्थ न केवल चालाक कूटनीतिज्ञ उन्हीं की पार्टी के नेता निकाल समझ रहे है बल्कि जनता भी अब कुछ-कुछ समझ रही है। यहाँ चुनाव महत्वपूर्ण नहीं है? भ्रष्टाचार महत्वपूर्ण नहीं है? महत्वपूर्ण अगर कुछ है तो अगले बनने वाले प्रधानमंत्री, उस पद पर काबिज होने की अति महत्वकांक्षा है? चूंकि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की पार्टी के ही भीतर बढ़ती लोकप्रियता, दबंगाई के बढ़ते अप्रत्याशित ग्राफ ने ही पार्टी में मुंगेरीलाल के हसीन सपनों को देखना न केवल बढ़ा दिया है बल्कि उनमें एक अजब सी बैचेनी, अशांति, महत्वकांक्षा की सुनामी भी पैदा कर दी है। चूंकि भाजपा केन्द्र में सत्ता का सुख भोग चुकी है और उन्हीं की पार्टी में एवरेस्ट पर्वत की तरह के व्यक्तित्वधारी अटल बिहारी बाजपेई के कारण कई लोगों की महत्वकांक्षा पूरी नहीं हो सकी थी। अब, जब पार्टी में ऐसा करिश्माई व्यक्तित्व किसी का भी नहीं है, इसलिए सभी न-न करते हुए पूरी दम-खम के साथ प्रधानमंत्री कुर्सी की दौड़ में अपने-अपने तरीके से जोर लगाना शुरू कर दिया है।

भाजपा की हाल ही में हुई दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में मनभेद-मतभेद नरेन्द्र मोदी और लालकृष्ण आडवानी की रथयात्रा को लेेकर स्पष्टता के साथ उभरे है।

यूं तो यात्राएं, देशाटन, ज्ञानार्जन, समझ विकसित करने के लिए, समस्याओं से रूबरू होने के लिए होती है लेकिन आज यात्राऐं विशेषतः राजनीतिक यात्राओं का स्वरूप केवल स्वार्थ सिद्धी तक ही सिमट कर रह गया है। सुनने में आया है कि राजनाथ भी अपनी खोती छवि को जनता में पुनः निखारने के लिए एक यात्रा निकालने का मूड बना रहे है जो उत्तर प्रदेश तक ही सीमित रहेगी।

कांग्रेस में जो हैसियत सोनिया गाँधी की है वही भाजपा में संघ की है, अंतर सिर्फ इतना है कि एक सामने है दूसरा लुका-छिपा। सत्य हमेशा कड़वा होता है उसे सुनने के लिए विवेक की आवश्यकता होती है। भ्रष्टाचार पर हल्ला मचाने वाली भाजपा को यह भी बताना होगा कि उत्तराखण्ड में भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते बी.पी.खण्डूरी को हटा रमेश पोखरियाल को मुख्यमंत्री बनाया था। अब पुनः खण्डूरी की ताजपोशी मुख्यमंत्री पद पर क्यों? इसी तरह कर्नाटक में जिस बेशर्मी से भाजपा को अन्ततः येदुरप्पा को खून का घूट पी हटाना पड़ा था वो भी आम जनता के सामने है।

हाल ही में उत्तर प्रदेश, इसी के बाद अगले 2-3 वर्षों में आने वाले राज्य एवं लोकसभा चुनावों की बाढ़ आने वाली है। ऐसे में क्या कांग्रेस, क्या भाजपा, क्या अन्य दलों को भी अपनी चाल और चरित्र की अग्नि परीक्षा देने की घड़ी आन पड़ने वाली है। यहाँ भाजपा को शांत दिमाग से सोचना होगा कि अटल बिहारी बाजपेई के कार्यकाल से अब तक कितने घटक दल भाजपा से जुड़े या छोड़े? वक्त सभी राजनीतिक दलों के आत्मनिरीक्षण, आत्मशुद्धि, आत्म चिंतन का है।

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