कृष्ण- दीवानी, मीरा की पीर और भक्ति , दोनों ही,शुद्ध प्रेम की ऊँचाई
की पराकाष्ठा है । अपने माता-पिता की एकलौती संतान ,मीराबाई का जन्म 1558
के लगभग, मारवाड़ के कुड़की नामक गाँव में , श्री रत्न सिंह राठौर के घर
हुआ था । मीरा अपने माता-पिता की बड़ी लाड़ली थी । जब मीरा बहुत छोटी थी,
तभी एक दिन उनके घर एक साधु आये । उन्होंने नन्हीं मीरा को एक गिरिधर की
मूर्ति दी जिसे पाकर मीरा इतनी खुश हुई कि अपने जीवन भर के लिए सुध-बुध खो
ही दी और कृष्ण भक्ति में लीन रहने लगी । मीरा प्रतिदिन कृष्ण की उस मूर्ति
को स्नान कराकर चंदन-पुष्प लगाती थी , आरती उतारती थी और भक्ति में लीन
होकर कृष्ण –कन्हैया के गीत गाती थी । कभी-कभी तो व गीतों में इतनी तत्लीन
हो जाती थी, कि मूर्ति के समक्ष मूर्च्छित हो गिर पड़ती थी । जब मीरा और
बड़ी हुई, तब खुद पद्य रचना करने लगी । संवत 1573 में मीराबाई का विवाह
चित्तोड़ के सिसोदिया वंश में महाराणा साँगा के ज्येष्ठ पुत्र, भोजराज से
हुआ । नैहर से विदा होकर जब मीरा अपने ससुराल जाने लगी, तब कन्हा को भी
अपने साथ लेते गई । वहाँ पहुँचकर भी वे विधिवत, गिरिधर की पूजा- अर्चना
करती थी । दिन-दिन भर मीरा का कृष्ण के प्रेम में इस प्रकार तल्लीन रहना,
मीरा के पति भोजराज को बिल्कुल पसंद नहीं आया । वे नहीं चाहते थे कि मीरा
के एक मूर्ति के आगे नाचे-गाये और अपना सारा दिन उसकी भक्ति में निकाल दे ।
पहले तो उन्होंने मीरा को काफ़ी समझाया, लेकिन जब मीरा की प्रेम-भक्ति के
आगे एक न चला ; तब उन्होंने अपनी दूसरी शादी कर ली । उसके बाद तो मीरा ,
राजघराने को छोड़कर साधु-संगति में जीवन व्यतीत करने लगी । मीरा के इस
फ़ैसले से उनके माता-पिता भी उनसे निराश रहने लगे । कई बार उनके ससुराल
वाले उन्हें मरवाने का भी प्रयास किये । पर मीरा हर बार अपने कृष्ण की
भक्ति की शक्ति से बच निकली । ससुराल वालों की तरफ़ से, इस प्रकार के
उत्पीड़न से मीरा धीरे-धीरे शारीरिक स्तर पर दीन-क्षीण होती गई, लेकिन
मनोबल में कोई अंतर नहीं आया । मीरा का दिनों-दिन स्वास्थ्य गिरता देख,
उनके माता-पिता एक दिन एक वैद्यराज को लेकर आये और बोले ,’ मीरा ! ये
तुम्हारे कमजोर स्वास्थ्य का उपचार करने आये हैं । इनसे मिलो । ’ सुनकर
मीरा ने कहा ---
’ हे री मैं तो प्रेम की दीवानी
मेरो दरद न जाने कोय
गोविन्द लीन्हो मोल
माई मैंने गोविन्द लीन्हों मोल
कोई कहे सस्ता,कोई कहे महंगा
लीन्हों तराजू तोल’
एक लम्बी बीमारी में विवाह के दश साल बाद ही राजा भोज का देहांत हो गया ।
उनके पिता , महाराणा साँगा भी परलोक सिधार गये । तब मीरा का देवर ,
बिक्रमाजीत महाराणा बने । मीरा राजमहल की रानी होकर, साधु-संतों के बीच
उठे-बैठे, महीनों घर से लापता रहे; यह बात बिक्रमाजीत को बिल्कुल पसंद नहीं
आया । उन्होंने ऊदाबाई को, मीराबाई के पास, समझा-बुझाकर,घर ले आने भेजा ।
लेकिन मीरा ने उनसे स्पष्ट कह दिया -------------------
बरजी ! मैं काहू की न रहूँगी
सुनो री सखी,तुम चेतन होके मन की बात कहूँगी
साधु-संगति कर हरि सुख लेंहु,जग से मैं दूर रहूँगी ॥
ऊदाबाई ने लौटकर जब महाराणा को सारी बातें बताई, महाराणा सुनकर बहुत रुष्ट
हुए। उसके बाद उन्होंने चित्तोड़गढ़ की कई स्त्रियों को भेजकर मीरा से
कहलवाया कि, इससे कुल की प्रतिष्ठा खत्म हो रही है; इसलिए वे घर लौट आयें ।
लेकिन मीराबाई का राजभवन में लौट आना तो दूर, जो लोग आईं थीं, वे भी
मीराबाई के रंग में रंग गईं और वहीं की होकर रह गईं ।
इतिहास तो यह भी कहता है, कि एक बार राणा ने विष तक भेजा, जिसे मीरा
हँसते-हँसते पी गई, और उन्हें कुछ नहीं हुआ । उसके बाद तो मीरा, कृष्ण की
ऐसी दीवानी हो गई, कि लोग उन्हें पागल सोचने लगे । लेकिन मीरा ऐसा कहने
वालों पर हँसती थी, कहती थी -------
’ पग घुँघरू बाँध मीरा नाची रे
लोग कहे मीरा बावरी रे
सास कहे कुल नासी रे’
कृष्ण – विरह में कातर ,मीरा का शरीर बहुत कमजोर और दुबला हो गया । लेकिन
प्रियतम की प्रतीक्षा ही , मीरा का अब जीवन हो गया । कहा जाता है, एक दिन
महाराणा स्वयं मीरा के पास आये और क्रोधित हो पूछने लगे, इतनी सज-धज कर
कहाँ जा रही हो । तब मीरा ने उत्तर दिया ____
राणाजी मैं साँवरे के रंग राँची
सज शृंगार, बाँध पग घुँघरू
लोक लाज तजि नाची
सुनकर गुस्सा से आग बबूला , राणा ने मीरा को मारने के लिए साँप का पिटारा
भेजा । परंतु मीरा के खोलते ही , साँप कृष्ण-मूर्ति में बदल गया ।
बार-बार राणा के उत्पीरन से, उबकर मीरा साधु- मंडली के साथ वृन्दावन आ गई
और वहीं रहकर अपने साँवरिया कृष्ण की आराधना करने लगी । आखिर एक दिन मीरा
को कृष्ण दर्शन दिये । कृष्ण से मिलकर मीरा ने कहा -----
मेरे तो गिरिधर गुपाल,दूसरो न कोई
जाके सिर मोर मुकुट , मेरो पति सोई
कृष्ण की प्रेम- विरहिनी मीराबाई का देहावसान 1630 ई० में हुआ । उनकी लिखी
कविता, आज जन-जन की कंठहार है । मीरा, अपनी भक्ति-प्रवण गीतों में आज भी
जिंदी है , कल भी रहेगी । जब तक यह संसार रहेगा, तब तक मीरा—राधा की
प्रतिरूप रहेगी ।